Chand Pagal Hai 9789350004692


210 74 944KB

Hindi Pages [136]

Report DMCA / Copyright

DOWNLOAD PDF FILE

Table of contents :
चाँद पागल है
वाणी प्रकाशन
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
21
22
23
24
25
26
27
28
29
30
31
32
33
34
35
36
37
38
39
40
41
42
43
44
45
46
47
48
49
50
51
52
53
54
55
56
57
58
59
60
61
62
63
64
65
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
Recommend Papers

Chand Pagal Hai
 9789350004692

  • 0 0 0
  • Like this paper and download? You can publish your own PDF file online for free in a few minutes! Sign Up
File loading please wait...
Citation preview

चाँद पागल है

वाणी प्रकाशन 4695, 21-ए, द रयागंज, नयी िद ी 110 002 शाखा अशोक राजपथ, पटना 800 004 फ़ोन: +91 11 23273167 फ़ै स: +91 11 23275710 www.vaniprakshan.in [email protected] CHAND PAGAL HAI by Rahat Indori ISBN : 978-93-5000-469-2 Collection of Ghazals © राहत इ दौरी सं करण 2012 इस पु तक के िकसी भी अं श को िकसी भी मा यम म प्रयोग करने के िलए प्रकाशक से िलिखत अनु मित ले ना अिनवाय है । मेहरा ऑफ़सेट, नयी िद ी-110002 म मुि त

वाणी काशन का लोगो मक़बूल िफ़दा हुसेन क कूची से

िकसी िकसी को ही िमलते ह चाहने वाले ! एक अ छे शायर म ख़ूिबय के साथ साथ ख़रािबयां भी बराबर क होनी चािहए, वरना िफर वह शायर कहाँ रह जाएगा, वह तो िफर फ़ र ता होकर रह जाएगा! और फ़ र त को अ ाह ने शायरी के इनआम से मह म रखा है। इस लए पूर े यक़ न से कहा जा सकता है िक राहत फ़ र ते नह ह। वह तमाम इ सानी कमज़ो रय से लु फ़ ले ना जानते ह! और एक अ छे और स े शायर क तरह वह अपनी कमज़ो रय का इक़रार भी करत ह! और ■जसके पास अपने गुनाह और कमज़ो रय के इक़रार क िह मत भी मौजूद हो, वह सचमुच बड़ा आदमी होता है! और यह दिु नया का द तुर चला आ रहा है क बड़ा आदमी ही बड़ा शायर होता आया है! राहत ने अपनी शायरी के खरे सोने म कह कह अवामी ज बात के पीतल क िमलावट भी क है, और ग़ज़ल को ख़ूबसूरत ज़ेवर म ढालने के लए तांबे और पीतल के टाँक क ज़ रत पड़ती है, वरना सोने के ढेल और टु कड़ से ■स े तो ढाले जा सकते ह, ख़ूबसूरत ज़ेवर कभी नह बनाए जा सकते ह। अ छे और हो￱शयार सराफ़ क ताजुरबेकार आँ ख ज़ेवर का हु न देखती ह, ताँबे और पीतल के टाँके तो मामूली कारीगर तलाश करते रहते ह। राहत ने ख़याल का एहतेराम करते हुए, और ग़ज़ल क ा■सक बुिनयाद से छे ड़छाड़ िकए बग़ैर, अपने लहज़े, श दावली और ￸ड सन क मदद से ■सफ़ ग़ज़ल के फूल ही नह खलाए ह ब क समाज के फूल जैसे तलव म चुभे हुए जो काँटे िनकाले ह, यह उनक शायराना सजरी का कमाल है! और अपने घर आँ गन म और शायरी काग़ज़ पर ही अपने असली प म नज़र आती है। मुशायरे, महिफ़ल और टेज तो वो नुमाइशगाह ह जहाँ आप औरत और शायरी का मेकअपज़दा चेहरा देखते ह। शायरी गैस भरा वह गु बारा नह है जो पलक झपकते आसमान से बात करने लगे! ब क शायरी तो ख़ु बू क तरह आिह ता आिह ता अपने पर को खोलती है, हमारी सोच और िदल के दरवाज़े खोलती है और ह क गहराइय म उतरती चली जाती है। रहत ने ग़ज़ल क िम ी म अपने तज बात और िज़ दगी के मसाएल को गूँधा है यही उनका कमाल भी है और उनका हुनर भी और अपने इसी कारनामे क वजह से वह देश िवदेश म जाने और पहचाने जाते ह। इंदौर क पथरीली िम ी से उठी एक मु ी ख़ाक ने हज़ार िदल म शायरी के ख़ूबसूरत फूल का गुलशन आबाद कर िदया! म इसी िम ी से उठा था बगुले क तरह और िफर इक िदन इसी िम ी म िम ी िमल गई कोलकाता 13.02.09

—मु न वर राना

अनु क्रम 1. हर मु सािफ़र है सहारे ते रे 2. ख़ु क दिरयाओं म ह की सी रवानी और है 3. इससे पहले िक हवा शोर मचाने लग जाए 4. खड़े ह मु झको ख़रीदार दे खने के िलए 5. चे हर के िलए आईने क़ुबान िकए ह 6. एक दो आसमान और सही 7. रात की धड़कन जब तक जारी रहती है 8. बै र दुिनया से क़बीले से लड़ाई ले ते 9. आ मां मु झसे ख़फ़ा है िक ज़मी रखता हँ ू 10. तो या बािरश भी ज़हरीली हुई है 11. नफ़रत का बाज़ार न बन 12. आँ ख म पानी रखो होट प’ िचं गारी रखो 13. ख़ाक होना तय हुआ अब ख़ाकसारी के िलए 14. चराग़ को उछाला जा रहा है 15. ये बफ़ रात भी बनकर अभी धु आँ उड़ जाएँ 16. ये हरसू जो फ़लक मं ज़र खड़े ह 17. अब अपनी ह के छाल का कुछ िहसाब क ँ 18. िज़ दगी उम्र से बड़ी तो नहीं 19. हाथ ख़ाली ह ितरे शहर से जाते -जाते

20. मु झे डुबो के बहुत शमसार रहती है 21. धूप बहुत है मौसम जल-थल भे जो न 22. िसफ़ खं जर ही नहीं आँ ख म पानी चािहए 23. नाम िल खा था आज िकस-िकस का 24. िसफ़ सच और झट ू की मीज़ान म र खे रहे 25. पहली शत जु दाई है 26. मौसम की मनमानी है 27. हम अब इ क़ का चाला पड़ा है 28. हमने खु द अपनी रहनु माई की 29. उसे अबके वफ़ाओं से गु ज़र जाने की ज दी थी 30. नींद या- या वाब िदखाकर ग़ायब ह 31. मौत की तफ़सील होनी चािहए 32. सफ़र म जब भी इरादे जवान िमलते ह 33. बढ़ गई है िक घट गई दुिनया 34. हौसले िज़ दगी के दे खते ह 35. नदी ने धूप से या कह िदया रवानी म 36. िकसने द तक दी है िदल पर कौन है ? 37. अगर िख़लाफ़ है होने दो जान थोड़ी है 38. उठी िनगाह तो अपने ही -ब- हम थे 39. मसअला यास का यूँ हल हो जाए

40. मु ह बत के सफ़र पर िनकल के दे खँ ग ू ा 41. अँ धेरे चार तरफ़ साँय- साँय करने लगे 42. नज़ारा दे िखए किलय के फू ल होने का 43. मौसम बु लाएँ गे तो सदा कैसे आएगी 44. पु राने शहर के मं ज़र िनकलने लगते ह 45. ते रे वादे की, ते रे यार की मोहताज नहीं 46. दो गज़ टु कड़ा उजले -उजले बादल का 47. ते रा मे रा नाम ख़बर म रहता था 48. इक नया मौसम नया मं ज़र खु ला 49. तूफ़ां तो इस शहर म अ सर आता है 50. वो कभी शहर से गु ज़रे तो ज़रा पूछगे 51. पाँ ओं से आसमान िलपटा है 52. सबको सवा बारी-बारी िकया करो 53. िजतना दे ख आए ह अ छा है , यही काफ़ी है 54. िदल म आग लब पर गु लाब रखते ह 55. चे हरे से धूप आँ ख से गहराई ले गया 56. िदए जलाए तो अं जाम या हुआ मे रा 57. आँ ख यासी है कोई मं ज़र दे 58. अपनी साँस बे च कर मने िजसे आबाद की 59. ये साने हा तो िकसी िदन गु ज़रने वाला था

60. शहर -शहर गाँ व का आँ गन याद आया 61. अपने होने का हम इस तरह पता दे ते थे 62. िजहालत के अँ धेरे िमटा के लौट आया 63. िकसी आह ू के िलए दरू तलक मत जाना 64. काली रात को भी रं गीन कहा है मने 65. िर ता-िर ता साय-ए-दीवारो-दर म क़ैद हँ ू 66. साथ मं िज़ल थी मगर ख़ौफ़ो-ख़तर ऐसा था 67. सारी िफ़तरत तो नक़ाब म छुपा र खी थी 68. िमरी ते ज़ी िमरी र तार हो जा 69. िज़ दगी भर दरू रहने की सज़ाएँ रह गयीं 70. अजनबी वािहश सीने म दबा भी न सकूँ 71. मवािफ़क़ जो फ़ज़ा त यार की है 72. शह का नौकर न कहे शह का मु सािहब समझे 73. रोज़ तार को नु माइश म ख़लल पड़ता है 74. फू ल जै से मख़मलीं तलव म छाले कर िदए 75. जो शाख़ पर उदासी के बरहना ख़त बनाते ह 76. सम दर म मवािफ़क़ हवा चलाता है 77. पे शािनय प’ िल खे मु क़ र नहीं िमले 78. मह ला साँय-साँय कर रहा है 79. ग़ज़ल फेरी लगाकर बे चता हँ ू

80. आँ ख म िजतने भी आँ स ू थे िठकाने लग गए 81. तु हारे नाम पर मने हर आफ़त सर प’ र खी थी 82. सबब वो पूछ रहे ह उदास होने का 83. न हमसफ़र न िकसी हमनशीं से िनकले गा 84. तू तो अपने मि वर के ज़ म दे कर छोड़ दे 85. कोई मौसम हो, दुख़-सु ख म गु ज़ारा कौन करता है 86. पु राने दाँ व पर हर िदन नए आँ स ू लगाता है 87. कभी िदमाग़, कभी िदल, कभी नज़र म रहो 88. मु झ पर नहीं उठे ह तो उठकर कहाँ गए 89. हर नयी शय को पु रानी कर दँ ू 90. चमकते ल ज़ िसतार से छीन लाए ह 91. जब कभी फू ल ने ख़ु बू की ितजारत की है 92. सम दर पार होती जा रही है 93. इस सामाने -सफ़र जान, ये जु गनू रख ले 94. िज़ दगी को ज़ म की ल ज़त से मत मह म कर 95. सु लगते ल ज़ का न शा उतारने वाले 96. सु लगती यास का कुछ हल ज़ु र िनकले गा 97. म जब चलूँ तो ये दौलत भी साथ रख दे ना 98. राह म ख़तरे भी ह ले िकन ठहरता कौन है 99. ह टो प’ अपने यास का दोज़ख़ खं गाल ले

100. यूँ सदा दे ते हुए ते रे ख़याल आते ह 101. दो त है तो िमरा कहा भी मान 102. िमरे ख़ु लस ू की गहराई से नहीं िमलते 103. ये ख़ाकज़ादे जो रहते ह बे -ज़बान पड़े 104. घर से ये सोच के िनकला हँ ू िक मर जाना है 105. आँ स-ू आँ स ू सािजश होती रहती है 106. ह लाख ज़ु म मगर बद्-दुआ नहीं दगे 107. िमरे अहबाब को िजस व त भी फुसत होगी 108. शाम ने जब पलक पर आितश-दान िलया 109. वाब म जो बसी है वो दुिनया हसीन है 110. शहर के िबखरे हुए मं ज़र उठा ले जाएँ गे 111. सु लगते चीख़ते मौसम की वापसी होगी 112. हर-एक चे हरे को ज़ म का आईना न कहो 113. मि जद के से हन तक जाना बहुत दु वार था 114. इ तज़ामात नए िसर से सँ भाले जाएँ 115. मे रे अपने मु झे िमट् टी म िमलाने आए 116. खानक़ाह म, हरम म, न िशवाल म िमले 117. दो ती कब िकसी से की जाए

1 हर मु सािफ़र है सहारे ते रे कि तयाँ ते री िकनारे ते रे ते रे दामन को खबर दे कोई टू टते रहते ह तारे ते रे धूप-दिरया म रवानी थी बहुत बह गए चाँद-िसतारे ते रे ते रे दरवाज़े को जु ि बश न हुई मने सब नाम पु कारे ते रे बे -तलब आँ ख म या- या कुछ है वो समझता है इशारे ते रे कब पसीजगे ये बहरे बादल ह शजर हाथ पसारे ते रे मे रा इक पल भी मु झे िमल न सका मने िदन-रात गु ज़ारे ते रे वे िमरी यास बता सकती है य सम दर हुए खारे ते रे जो भी मं सब ू ितरे नाम से था मने सब क़ज़ उतारे ते रे तूने िल खा िमरे चे हरे प’धु आँ

मने आईने सँ वारे ते रे और िमरा िदल वही मु फ़िलस का चराग़ चाँद ते रे ह िसतारे ते रे

2 ख़ु क दिरयाओं म ह की सी रवानी और है रे त के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है इक कहानी ख़ म करके वो बहुत है मु तमईन भूल बै ठा है िक आगे इक कहानी और है जो भी िमलता है उसे अपना समझ ले ता हँ ू म एक बीमारी मु झे ये ख़ानदानी और है बोिरये पर बै िठए, कु हड़ म पानी पीिजए हम कल दर ह हमारी मे ज़बानी और है एक िदन इस शहर की क़ीमत लगाई जाएगी गाँ व म थोड़ी बहुत खे ती-िकसानी और है िफर कौन िफर पूछेगा गूँगे मु ि सफ़ से ख़ै िरयत एक ले -दे कर हमारी बे -ज़बानी और है

3 इससे पहले िक हवा शोर मचाने लग जाए मे रे अ लाह िमरी ख़ाक िठकाने लग जाए घे रे रहते ह कई वाब िमरी आँ ख को काश कुछ दे र मु झे नींद भी आने लग जाए तो ज़ री है िक म िम त्र से िहजरत1 कर जाऊँ जब जु लै ख़ा ही िमरे दाम लगाने लग जाए साल भर ईद का र ता नहीं दे खा जाता वो गले मु झसे िकसी और बहाने लग जाए मे री कोिशश है िक हर शाम ये ढलता सूरज शब थी दहलीज़ प’इक शम्अ जलाने लग जाए ू रे थान पर बसना 1. िहजरत—एक थान को छोड़ कर दस

4 खड़े ह मु झको ख़रीदार दे खने के िलए म घर से िनकला था बाज़ार दे खने के िलए हज़ार बार हज़ार की स त दे खते ह तरस गए तु झे इक बार दे खने के िलए क़तार म कई नाबीना लोग शािमल ह अमीरे -शहर का दरबार दे खने के िलए जगाए रखता हँ ू सूरज को अपनी पलक पर ज़मीं को वाब से बे -दार1 दे खने के िलए अजीब श स है ले ता है जु गनु ओं से िख़राज2 शब को अपनी चमकदार दे खने के िलए हर-एक हफ़ से िचं गािरयाँ िनकलती ह कले जा चािहए अख़बार दे खने के िलए 1. बे दार—जाग्रत 2. िख़राज—िकराया, महसूल, माल गु ज़ारी

5 चे हर के िलए आईने क़ुबान िकए ह इस शौक़ म अपने कई नु सान िकए ह महिफ़ल म मु झे गािलयाँ दे कर है बहुत ख़ु श िजस श स प’ मने कई एहसान िकए ह वाबो से िनबटना है मु झे रतजगे करके कमब त कई िदन से परीशान िकए ह िर त के, मरािसम के, मु ह बत के, वफ़ा के कुछ शहर तो ख़ु द हमने ही वीरान िकए ह तू ख़ु द भी अगर आए तो ख़ु बू म नहा जाए हम घर को ितरे िज़क् र से लोबान िकए ह ऐ धड़कनो अब और िठकाना कोई ढूँढ़ो हम िदल मे तो उस श स को मे हमान िकए ह

6 एक दो आसमान और सही और थोड़ी उड़ान और सही शहर आबाद ह दिर द से जं गल म मचान और सही धूप को नींद आ भी सकती है छाँ व की दा तान और सही बािरशो! हौसले बल द रह मे रा क चा मकान और सही ये पसीना तो अपनी पूँजी है एक मु ट् ठी लगान और सही गािलय से नवाज़ता है मु झे एक अहले -ज़बान1 और सही शहर म अ न है कई िदन से कोई ताज़ा बयान और सही 1. अहले -ज़बान—भाषा का मम

7 रात की धड़कन जब तक जारी रहती है सोते नहीं हम, िज मे दारी रहती है जब से तूने ह की-ह की बात कीं यार, तबीयत भारी-भारी रहती है वो मं िज़ल पर अ सर दे र से पहुँचे ह िजन लोग के पास सवारी रहती है उसकी छत से धूप के ने ज़े आते ह िजस आँ गन म छाँ व हमारी रहती है घर के बाहर ढूँढ रहा हँ ू म दुिनया घर के अ दर दुिनयादारी रहती है

8 बै र दुिनया से क़बीले से लड़ाई ले ते एक सच के िलए िकस-िकस से बु राई ले ते आबले अपने ही अं गार के ताज़ा ह अभी लोग य आग हथे ली प’ पराई ले ते बफ़ की तरह िदस बर का सफ़र होता है हम तु झे साथ न ले ते तो रज़ाई ले ते िकतना हमदद सा मानूस सा इक दद रहा इ क़ कुछ रोग नहीं था िक दवाई ले ते तु मने जो तोड़ िदए वाब हम उनके बदले कोई क़ीमत कभी ले ते तो ख़ु दाई ले ते

9 आ मां मु झसे ख़फ़ा है िक ज़मीं रखता हँ ू म ख़ु दा की तरह इं सां प’ यक़ीं रखता हँ ू मु झसे ख़ु श ह िमरी धुँ धलाई हुई ताबीर कम से कम वाब तो आँ ख म हसीं रखता हँ ू मे री इस ख़ूबी को य ऐब कहा जाता है चीज़ िजस ख़ाने की होती ह वहीं रखता हँ ू इक तअ लु क़ है वु ज़ू से भी सु ब ू से भी मु झे म िकसी शौक़ को पद म नहीं रखता हँ ू

10 तो या बािरश भी ज़हरीली हुई है हमारी फ़ ल य नीली हुई है ये िकसने बाल खोले मौसम के ये रं गत िकस िलए पीली हुई है सफ़र का लु फ़ बढ़ता जा रहा है ज़मीं कुछ और पथरीली हुई है सु नहरी लग रहा है इक-इक पल कई सूब म त दीली हुई है िदखाया है अगर सूरज ने गु सा तो बालू और चमकीली हुई है

11 नफ़रत का बाज़ार न बन फू ल िखला तलवार न बन िर ता-िर ता िलख मं िज़ल र ता बन दीवार न बन कुछ लोग से बै र भी ले दुिनया भर का यार न बन अपना दर ही दार लगे इतना दुिनयादार न बन सब की अपनी साँस ह सबका दावे दार न बन कौन ख़रीदे गा तु झको ू उद का अख़बार न बन

12 आँ ख म पानी रखो होट प’ िचं गारी रखो िज़ दा रहना है तो तरकीब बहुत सारी रखो राह के प थर से बढ़कर कुछ नहीं ह मं िज़ल रा ते आवाज़ दे ते ह सफ़र जारी रखो आते -जाते पल ये कहते ह हमारे कान म कू च का ऐलान होने को है तै यारी रखो ये हवाएँ उड़ न जाएँ ले के काग़ज़ का बदन दो तो, मु झ पर कोई प थर ज़रा भारी रखो ले तो आए शायरी बाज़ार म ‘राहत’ िमयाँ ये ज़ु री तो नहीं लहजा भी बाज़ारी रखो

13 ख़ाक होना तय हुआ अब ख़ाकसारी के िलए ये दुकां हमने लगायी थी उधारी के िलए कुछ पल की िततिलय के रं ग मे रे सं ग ह चं द ख़ु िशयाँ ह ग़म की पासदारी1 के िलए दाँ व पर लगने लगीं िफर इ ज़त सादात2 की इ क की राह बहुत आसां ह वारी3 के िलए इक सम दर अपने ही अ दर डुबोना है मु झे एक क ती चािहए मु झको सवारी के िलए धड़कन पलभर भी िदल से दरू रह सकती नहीं दे िवयाँ पागल हुई ह इक पु जारी के िलए तजरबा अपना ‘असद’ से कुछ अलग है दो तो मय जु री शय है यक गूंना-ख़ु मारी4 के िलए 1. पासदार—िलहाज़, मु र वत, अदब; 2. सादात—स यद; 3. वारी— सवाई; 4. ख़ु मारी —म ती

14 चराग़ को उछाला जा रहा है हवा पर रौब डाला जा रहा है न हार अपनी न अपनी जीत होगी मगर िस का उछाला जा रहा है थे पहले ही कई साँप आ तीं म अब इक िब छ ू भी पाला जा रहा है िमरे झट ू े िगलास की चखाकर बहकत को सँ भाला जा रहा है हमीं बु िनयाद का प थर ह ले िकन हम घर से िनकाला जा रहा है जनाज़े पर िमरे िलख दे ना यारो मु ह बत करने वाला जा रहा है

15 ये बफ़ रात भी बनकर अभी धु आँ उड़ जाएँ वो इक िलहाफ़ म ओढ़ँू िक सिदयाँ उड़ जाएँ ख़ु दा का शु क्र िक मे रा मकां सलामत है थीं इतनी ते ज़ हवाएँ िक बि तयाँ उड़ जाएँ िबखर-िबखर सी गई है िकताब साँस की ये काग़ज़ात ख़ु दा जाने कब कहाँ उड़ जाएँ रहे याल िक म ज़ूबे-इ क़1 ह हम लोग अगर ज़मीन से फूँ क तो आ मां उड़ जाए बहुत ग़ु र है दिरया को अपने ते वर पर जो मे री यास से उलझे तो धि जयाँ उड़ जाएँ 1. म ज़ूबे-इ क़—मु ह बत की म ती म म त

16 ये हरसू1 जो फ़लक मं ज़र खड़े ह न जाने िकस के पै र पर खड़े ह तु ला है धूप बरसाने प’ सूरज शजर भी छतिरयाँ ले कर खड़े ह इ ह नाम से म पहचानता हँ ू िमरे दु मन िमरे अ दर खड़े ह कई िदन चाँद िनकला था यहाँ से उजाले आज भी छत पर खड़े ह जु लूस आने को है दीदावर 2 का नज़र नीची िकए मं ज़र खड़े ह उजाला सा है कुछ कमरे के अ दर ज़मीनो-आ मां बाहर खड़े ह 1. हरसू—चार तरफ़; 2. दीदावर —होशम द, अ लम द, जानकार

17 अब अपनी ह के छाल का कुछ िहसाब क ँ म चाहता था चराग़ो को आफ़ताब1 क ँ म करवट के नए ज़ािवए2 िलखूँ शब भर ये इ क़ है तो कहाँ िज़ दगी अज़ाब3 क ँ है मे रे चार तरफ़ भीड़ गूँगे-बहर की िकसे ख़तीब4 बनाऊँ िकसे िख़ताब5 क ँ उस आदमी को बस इक धु न सवार रहती है बहुत हसीन है दुिनया इसे ख़राब क ँ ये िज़ दगी जो मु झे क़ज़दार करती है कहीं अकेले म िमल जाए तो िहसाब क ँ 1. आफ़ताब—सूरज; 2. ज़ािवए—दृि टकोण; 3. अज़ाब—दुखदायी, क टप्रद; 4. ख़तीब —व ता; 5. िख़ताब—स बोधन

18 िज़ दगी उम्र से बड़ी तो नहीं ये कहीं मौत की घड़ी तो नहीं ये अलग बात हम भटक जाएँ वै से दुिनया बहुत बड़ी तो नहीं टू ट सकता है ये तअ लु क़ भी इ क़ है कोई हथकड़ी तो नहीं आते -आते ही आएगी मं िज़ल रा ते म कहीं पड़ी तो नहीं एक खटका-सा है िबछड़ने का ये मु लाक़ात की घड़ी तो नहीं

19 हाथ ख़ाली ह ितरे शहर से जाते -जाते जान होती तो िमरी जान लु टाते जाते अब तो हर हाथ का प थर हम पहचानता है उम्र गु ज़री है ितरे शहर म आते -आते मु झको रोने का सलीक़ा भी नहीं है शायद लोग हँ सते ह मु झे दे ख के आते जाते अबकी मायूस हुआ यार को ख़सत करके जा रहे थे तो कोई ज़ म लगाते जाते हमसे पहले भी मु सािफ़र कई गु ज़रे ह गे कम से कम राह के प थर तो हटाते जाते

20 मु झे डुबो के बहुत शमसार रहती है वो एक मौज जो दिरया के पार रहती है हमारे ताक़ भी बे ज़ार ह उजाल से िदए की लौ भी हवा पर सवार रहती है िफर उसके बाद वही बासी मं ज़र के जु लूस बहार च द ही ल हे बहार रहती है हमारी शहर के दािनशवर से यारी है इसीिलए तो क़बा1 तार-तार रहती है मु झे ख़रीदने वालो! क़तार म आ जाओ वो चीज़ हँ ू जो पसे -इ ते हार2 रहती है 1. क़बा—एक िक म का ल बा कोट जो आगे से खु ला रहता है (शरीर का व त्र) 2. पसे -इ ते हार—िव ापन के पीछे

21 धूप बहुत है मौसम जल-थल भे जो न बाबा मे रे नाम का बादल भे जो न मोलसरी की शाख पर भी िदए जल शाख का केसिरया आँ चल भे जो न न ही-मु नी सब चहकार कहाँ गयीं मोर के पै र की पायल भे जो न ब ती-ब ती वहशत िकसने बो दी है गिलय -बाज़ार की हलचल भे जो न सारे मौसम एक उमस के आदी ह छाँ व की ख़ु बू धूप का स दल भे जो न म ब ती म आिख़र िकससे बात क ँ मे रे जै सा कोई पागल भे जो न

22 िसफ़ खं जर ही नहीं आँ ख म पानी चािहए ऐ ख़ु दा दु मन भी मु झको ख़ानदानी चािहए मने अपनी ख़ु क आँ ख से लह ू छलका िदया इक सम दर कह रहा था मु झको पानी चािहए शहर की सारी अिलफ़-लै लाएँ बूढ़ी हो ग शाहज़ादे को कोई ताज़ा कहानी चािहए मने ऐ सूरज तु झे पूजा नहीं समझा तो है मे रे िह से म भी थोड़ी धूप आनी चािहए िज़ दगी है इक सफ़र और िज़ दगी की राह म िज़ दगी भी आए तो ठोकर लगानी चािहए

23 नाम िल खा था आज िकस-िकस का ‘हाथ द ता हवा है निगस का’ शाख़ पर उम्र कट गयी गु ल की बाग़ है जाने कौन बे िहस1 का वार िफरते ह आईना होकर जाने मुँ ह दे खना है िकस-िकस का बु झ गए चाँद सब हवे ली के चल रहा है चराग़ मु फ़िलस का सर प’ रखकर ज़मीन िफरता हँ ू साथ उसका है म नहीं िजसका ‘मीर’ जै सा था दो सदी पहले हाल अब भी वही है मजिलस का 1. बे िहस—सं वेदन शू य

24 िसफ़ सच और झट ू की मीज़ान म र खे रहे हम बहादुर थे मगर मै दान म र खे रहे जु गनु ओं ने िफर अँ धेर से लड़ाई जीत ली चाँद-सूरज घर के रौशनदान म र खे रहे धीरे -धीरे सारी िकरन खु दकशी करने लगीं हम सहीफ़ा1 थे मगर जु ज़दान2 म र खे रहे ब द कमरे खोल कर स चाइयाँ रहने लगीं वाब क ची धूप थे दालान म र खे रहे िसफ़ इतना फ़ासला है िज़ दगी और मौत का शाख़ से तोड़े गए गु लदान म र खे रहे िज़ दगी भर अपनी बूढ़ी धड़कन के साथ-साथ हम भी घर के क़ीमती सामान म र खे रह 1. सहीफ़ा—आसमानी िकताब, पिवत्र ग्रंथ 2. जु ज़दान—िकताब रखने का ब ता

25 पहली शत जु दाई है इ क़ बड़ा हरजाई है गु म ह होश हवाओं के िकसकी ख़ु बू आई है चाँद तराशे सारी उम्र तब कुछ धूप कमाई है म िबछड़ा हँ ू डाली से दुिनया य मु झायी है िदल पर िकसने द तक दी तु म हो या त हाई है

26 मौसम की मनमानी है आख -आख पानी है सब पर हँ सते रहते ह फू ल की नादानी है हाय ये दुिनया! हाय ये लोग हाय! ये सब कुछ फ़ानी है िकतने सपने दे ख िलए आँ ख की है रानी है

27 हम अब इ क़ का चाला1 पड़ा है बड़े मुँ ह ज़ोर से पाला पड़ा है कई िदन से नहीं डूबा ये सूरज हथे ली पर िमरी छाला पड़ा है सफ़र पर म तो त हा जा रहा हँ ू ये ब ती भर म य ताला पड़ा है िमरी पलक प’ उतरे िफर फ़िर ते सम दर िफर तनहो-बाला पड़ा है सु नहरा चाँद उतरा है नदी म िकनारे चाँद का हाला2 पड़ा है 1. चाला—िवदाई, कू च, नई-नवे ली दु हन का ससु राल से शादी के बाद प्रथम चार बार मै के जाना 2. चाँद का हाला—चाँद के पीछे का घे रा, चाँद का कु डल

28 हमने ख़ु द अपनी रहनु माई की और शोहरत हुई ख़ु दाई की मने दुिनया से मु झसे दुिनया ने सै कड़ बार बे -वफ़ाई की खु ले रहते ह सारे दरवाज़े कोई सूरत नहीं िरहाई की सोए रहते ह ओढ़ कर ख़ु द को अब ज़ रत नहीं रज़ाई की मं िज़ल चूमती ह मे रे क़दम दाद दीजे िशक त:पाई1 की अब िकसी की ज़बां नहीं खु लती र म जारी है मुँ ह-भराई की 1. िशक त:पाई—टू टते क़दम ।

29 उसे अबके वफ़ाओं से गु ज़र जाने की ज दी थी मगर इस बार मु झको अपने घर जाने की ज दी थी इरादा था िक म कुछ दे र तूफ़ां का मज़ा ले ता मगर बे चारे दिरया को उतर जाने की ज दी थी म अपनी मु िट् ठय म क़ैद कर ले ता ज़मीन को मगर मे रे क़बीले को िबखर जाने की ज दी थी वो शाख़ो से जु दा होते हुए प े प’ हँ सते थे बड़े िज़ दा-नज़र थे िजनको मर जाने की ज दी थी म सािबत िकस तरह करता िक हर आईना झट ू ा है कई कमज़फ़ चे हर को उतर जाने की ज दी थी

30 नींद या- या वाब िदखाकर ग़ायब ह आँ ख तो मौजूद ह मं ज़र ग़ायब ह बाक़ी िजतनी चीज़ थीं मौजूद ह सब न शे म दो-चार सम दर ग़ायब ह जाने ये त वीर म िकसका ल कर है हाथ म शमशीर ह सर ग़ायब ह दरवाज़ो पर द तक द तो कैसे द घरवाले मौजूद मगर घर ग़ायब ह

31 मौत की तफ़सील1 होनी चािहए शहर म इक झील होनी चािहए चाँद तो हर शब िनकलता है मगर ताक़ म िक़ दील होनी चािहए ू है रौशनी जो िज म तक महदद ह म तहलील2 होनी चािहए हु म गूँगो का है ले िकन हु म है हु म की तामील होनी चािहए असलहे तो ख़ै र िफर आ जाएँ गे क यू म ढील होनी चािहए 1. तफ़सील—िव तृ त जानकारी 2. तहलील—घु ल जाना

32 सफ़र म जब भी इरादे जवान िमलते ह खु ली हवाएँ खु ले बादबान1 िमलते ह बहुत किठन है मु साफ़त2 नई ज़मीन की क़दम-क़दम प’ नए आसमान िमलते ह म उस मह ले म इक उम्र काट आया हँ ू जहाँ प’ घर नहीं िमलते मकान िमलते ह जहाँ -जहाँ भी चराग़ ने ख़ु दकुशी की है वहाँ -वहाँ प’ हवा के िनशान िमलते ह रक़ीब,3 दो त, पड़ोसी, अज़ीज़, िर ते दार िमरे िख़लाफ़ सभी के बयान िमलते ह 1. बादबान—वो कपड़ा, जो िक ती की र तार बढ़ाने और ख मोड़ने के िलए लगाया जाताहै 2. मु साफ़त—यात्रा; 3. रक़ीब—शत्

33 बढ़ गई है िक घट गई दुिनया मे रे न शे से कट गई दुिनया िततिलय म समा गए मं ज़र मु िट् ठय म िसमट गई दुिनया एक नािगन का ज़हर है मु झम मु झको डसकर पलट गई दुिनया िकतने ख़ानो म बँ ट गए हम-तु म िकतने िह स म बँ ट गई दुिनया जब भी दुिनया को छोड़ना चाहा मु झसे आकर िलपट गई दुिनया

34 हौसले िज़ दगी के दे खते ह चिलए कुछ दे र जी के दे खते ह नींद िपछली सदी से ज़ मी है वाब अगली सदी के दे खते ह धूप इतनी कराहती य है छाँ व के ज़ म सी के दे खते ह टकटकी बाँ ध ली है आँ ख ने रा ते वापसी के दे खते ह बािरश से तो यास बु झती नहीं आइए ज़हर पी के दे खते ह

35 नदी ने धूप से या कह िदया रवानी म उजाले पाँ व पटकने लगे ह पानी म ये कोई और ही िकरदार है तु हारी तरह तु हारा िज़क् र नहीं है िमरी कहानी म अब इतनी सारी शब का िहसाब कौन रखे बहुत सवाब कमाए गए जवानी म चमकता रहता है सूरजमु खी म कोई और महक रहा है कोई और रातरानी म म सोचता हँ ू कोई और कारोबार क ँ िकताब कौन ख़रीदे गा इस गरानी1 म 1. गरानी—महँ गाई

36 िकसने द तक दी है िदल पर कौन है ? आप तो अ दर ह बाहर कौन है ? रौशनी ही रौशनी है हर तरफ़ मे री आँ ख म मु न वर1 कौन है ? आ मां झुक-झुक के करता है सवाल आपके क़द के बराबर कौन है ? हम रखगे अपने अ क का िहसाब पूछने वाला सम दर कौन है ? सारी दुिनया है रती है िकसिलए? दरू तक मं ज़र-ब-मं ज़र कौन है ? 1. मु न वर—चमकदार, रौशन

37 अगर िख़लाफ़ है होने दो जान थोड़ी है ये सब धु आँ है कोई आसमान थोड़ी है लगे गी आग तो आएँ गे घर कई ज़द मे यहाँ प’ िसफ़ हमारा मकान थोड़ी है म जानता हँ ू िक दु मन भी कम नहीं ले िकन हमारी तरह हथे ली प’ जान थोड़ी है हमारे मुँ ह से जो िनकले वही सदाक़त है हमारे मुँ ह म तु हारी ज़बान थोड़ी है जो आज सािहबे -मसनदा1 ह कल नहीं ह गे िकराएदार ह ज़ाती मकान थोड़ी है सभी का ख़ून है शािमल यहाँ की िमट् टी म िकसी के बाप का िह दो तान थोड़ी है 1. सािहबे -मसनद—मसनद पर िवराजमान

38 उठी िनगाह तो अपने ही -ब- हम थे ज़मीन आईना ख़ाना थी चार सू हम थे िदन के बाद अचानक तु हारी याद आई ख़ु दा का शु क्र िक उस व त बा-वु ज़ू हम थे वो आईना तो नहीं था पर आईने -सा था वो हम नहीं थे मगर यार ह-ू ब-ह ू हम थे ज़मीं प’ लड़ते हुए आसमां के नग़1 म कभू-कभू कोई दु मन कभू-कभू हम थे हमारा िज़क् र भी अब जु म हो गया है वहाँ िदन की बात है महिफ़ल की आब हम थे 1. आसमां के नग़—आसमान के चं गुल म

39 मसअला यास का यूँ हल हो जाए िजतना अमृ त है हलाहल हो जाए शहरे -िदल म है अजब स नाटा ते री याद आए तो हलचल हो जाए िज दगी एक अधूरी त वीर मौत आए तो मु क मल हो जाए और इक मोर कहीं जगं ल म नाचते -नाचते पागल हो जाए थोड़ी रौनक़ है हमारे दम से वना ये शहर तो जं गल हो जाए

40 मु ह बत के सफ़र पर िनकल के दे खँ ग ू ा ये पु ल-िसरात1 अगर है तो चल के दे खँ ग ू ा सवाल ये है िक र तार िकस की िकतनी है ? म आफ़ताब से आगे िनकल के दे खँ ग ू ा गु ज़ािरश का कुछ उस पर असर नहीं होगा वो अब िमले गा तो लहजा बदल के दे खँ ग ू ा अजब नहीं िक कहीं रौशनी मु झे िमल जाए म अपने घर से िकसी िदन िनकल के दे खँ ग ू ा उजाले बाँटने वाल प’ या गु ज़रती है िकसी चराग़ की मािनं द जल के दे खँ ग ू ा 1. पु ल-िसरात—अनु याियय के मु तािबक़ मु ि तम धम के नक के ऊपर वह पु ल, जो बाल से यादा बारीक और तलवार से अिधक ते ज़ है । ने क लोग आसानी से उसके ऊपर से गु ज़र कर ज नत म चले जाएँ गे और बु रे आदमी दोज़ख़ म िगर पडगे ।

41 अँ धेरे चार तरफ़ साँय- साँय करने लगे चराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे तर क़ी कर गए बीमािरय के सौदागर ये सब मरीज़ ह जो अब दवाएँ करने लगे लह-ू लु हान पड़ा था ज़मीं प’ इक सूरज पिर दे अपने पर से हवाएँ करने लगे ज़मी पर आ गए आँ ख से टू ट कर आँ स ू बु री ख़बर है फ़िर ते ख़ताएँ करने लगे झुलस रहे ह यहाँ छाँ व बाँटने वाले वो धूप है िक शजर इि तजाएँ 1 करने लगे 1. इि तजाएँ —प्राथनाएँ , िनवे दन

42 नज़ारा दे िखए किलय के फू ल होने का यही है व त दुआएँ कुबूल होने का उ ह बताओ िक ये रा ते सलीब के ह जो लोग करते ह दावा रसू1 होने का तमाम उम्र गु ज़रने के बाद दुिनया म पता चला हम अपने िफ़ज़ूल होने का उसूल वाले ह बे चारे इन फ़िर त ने मज़ा चखा ही नहीं बे -उसूल होने का है आ मां से बल द उसका मतबा िजसको शरफ़ है आपके क़दम की धूल होने का ू 1. रसूल—पै ग बर, दे वदत

43 मौसम बु लाएँ गे तो सदा कैसे आएगी सब िखड़िकयाँ ह बं द हवा कैसे आएगी मे रा ख़ु लस ू इधर है , उधर है ितरा गु र ते रे बदन प’ मे री क़बा कैसे आएगी सर रख के मे रे ज़ानूं प’ सोयी है िज़ दगी ऐसे म आई भी तो क़ज़ा कैसे आएगी आँ ख म आँ सुओं को अगर हम छुपाएँ गे तार को टू टने की सदा कैसे आएगी वो बे -वफ़ा यहाँ से भी गु ज़रा है बार-बार इस शहर की हद म वफ़ा कैसे आएगी

44 पु राने शहर के मं ज़र िनकलने लगते ह ज़मी जहाँ भी खु ले घर िनकलने लगते ह म खोलता हँ ू सदफ़ मोितय के च कर म मगर यहाँ भी सम दर िनकलने लगते ह हसीन लगते ह जाड़ म सु ् ह के मं ज़र िसतारे धूप पहनकर िनकलने लगते ह बलि दय का तस वु र भी ख़ूब होता है कभी-कभी तो िमरे पर िनकलने लगते ह अगर याल भी आए िक तु झको ख़त िल खूँ तो घ सल से कबूतर िनकलने लगते ह

45 ते रे वादे की, ते रे यार की मोहताज नहीं ये कहानी िकसी िकरदार की मोहताज नहीं आ मां ओढ़ के सोए ह खु ले मै दां म अपनी ये छत िकसी दीवार की मोहताज नहीं ख़ाली क कोल प’ इतराई हुई िफरती है ये फ़क़ीरी िकसी द तार की मोहताज नहीं उसे तूफ़ा ही िकनारे से लगा सकता है मे री क ती िकसी पतवार की मोहताज नहीं मने मु क की तरह लोग के िदल जीते ह ये हुकू मत िकसी तलवार की मोहताज नहीं

46 दो गज़ टु कड़ा उजले -उजले बादल का याद आता है एक दुपट् टा मलमल का शहर के मं ज़र दे ख के चीख़ा करता है मे रे अ दर स नाटा जं गल का बादल हाथी-घोड़े ले कर आते ह ले िकन अपना र ता तो है पै दल का मु झसे आकर मे री ज़बां म बात करे िलखता रहता है जो खाता पल-पल का खु ले-खु ले से र ते के हम आदी ह यान िकसे है दरवाज़े की साँकल का मु झको अपने रं ग म ढाला दुिनया ने साँप हुआ हँ ू ख़ु द ही अपने स दल का

47 ते रा मे रा नाम ख़बर म रहता था िदन बीते इक सौदा सर म रहता था मे रा र ता तकता था इक चाँद कहीं म सूरज के साथ सफ़र म रहता था सारे मं ज़र गोरे -गोरे लगते थे जाने िकसका प नज़र म रहता था काठ की िक ती पीठ थपकती रहती थी दिरयाओं का पाँ व भँ वर म रहता था उजली-उजली त वीर-सी बनती ह सु नते ह अ लाह बशर म रहता है मील तक हम िचिड़य -से उड़ जाते थे कोई अपने साथ सफ़र म रहता था

48 इक नया मौसम नया मं ज़र खु ला कोई दरवाज़ा िमरे अ दर खु ला इक ग़ज़ल कमरे की छत पर मुं तिशर1 इक क़लम र खा है काग़ज पर खु ला चलते रहने का इरादा शत है जब भी दीवार उठी ह सर खु ला हो गया ऐलान िफर इक जं ग का िजतने व फ़े2 म िमरा िब तर खु ला साथ रहता है यही एहसासे -जु म िकसके िज़ मे छोड़ आए घर खु ला म ख़ु द अपने आप ही म बं द था ् त के बाद ये मु झ पर खु ला मु द द 1. मुं तिशर—िबखरी हुई; 2. व फ़े—समय

49 तूफ़ां तो इस शहर म अ सर आता है दे ख अबके िकसका न बर आता है सूखे बादल होट पर कुछ िलखते ह आँ ख म सै लाब का मं ज़र आता है बोता है वो रोज़ तअ फ़ुन1 ज़े हन म जो कपड़ पर इत्र लगाकर आता है रहमत िमलने आती है पर फैलाए पलक पर जब कोई पय बर आता है उन आँ ख की नींद गु म हो जाती ह िजन आँ ख को वाब मय सर2 आता है टू ट रही है मु झम हर िदन इक मि जद इस ब ती म रोज़ िदस बर आता है 1. तअ फ़ुन—सड़ाँ ध, बदबू; 2. मय सर—उपल ध

50 वो कभी शहर से गु ज़रे तो ज़रा पूछगे ज़ म हो जाते ह िकस तरह दवा पूछगे गु म न हो जाएँ मकान के घने जं गल म कोई िमल जाए तो हम घर का पता पूछगे मे रे सच से उ ह या ले ना है म जानता हँ ू हाथ कुरआन प’ रखवा के वो या पूछगे वो कहीं िकरन समे टे हुए िमल जाएगा कब रफ़ू होगी उजाल की क़बा पूछगे वो जो मुं िसफ़ है तो या कुछ भी सज़ा दे दे गा हम भी रखते ह ज़बां पहले ख़ता पूछगे

51 पाँ ओं से आसमान िलपटा है रा ते से मकान िलपटा है रौशनी है ितरे ख़याल की मु झसे रे शम का थान िलपटा है कर गए सब िकनारा क ती से िसफ़ इक बादबान िलपटा है दे तवानाइयाँ 1 िमरे माबूद िज़ म से ख़ानदान िलपटा है और म सु न रहा हँ ू या- या कुछ मु झसे इक बे -ज़बान िलपटा है मु झको दुिनया बु ला रही है मगर मु झसे िह दो तान िलपटा है 1. तवानाइयाँ —ताक़त, जवानी

52 सबको सवा बारी-बारी िकया करो हर मौसम म फ़ वे जारी िकया करो रात का नींद से िर ता टू ट चु का अपने घर की पहरे दारी िकया करो क़तरा-क़तरा शबनम िगन कर या होगा दिरयाओं की दावे दारी िकया करो चाँद िजयाद: रौशन है तो रहने दो जु गनू भइया! जी मत भारी िकया करो जब जी चाहे मौत िबछा दो ब ती म ले िकन बात यारी- यारी िकया करो रोज़ वही इक कोिशश िज़ दा रहने की मरने की भी कुछ तै यारी िकया करो

53 िजतना दे ख आए ह अ छा है , यही काफ़ी है अब कहाँ जाइए दुिनया है , यही काफ़ी है हम से नाराज़ है सूरज िक पड़े सोते ह जाग उठने का इरादा है यही काफ़ी है अब ज़ु री तो नहीं है िक वो फलदार भी हो शाख़ से पे ड़ का िर ता है यही काफ़ी है लाओ म तु मको सम दर के इलाके िलख दँ ू मे रे िह से म ये कतरा है यही काफ़ी है अब िसतार प’ कहाँ जाएँ तनाब1 ले कर ये जो िमट् टी का घर दा है यही काफ़ी है 1. तनाब—ख़े मे की रि सयाँ

54 िदल म आग लब पर गु लाब रखते ह सब अपने चे हर प’ दुहरी नकाब़ रखते ह बहुत से लोग िक जो हफ़-आशना1 भी नहीं इसी म ख़ु श ह िक ते री िकताब रखते ह ये मयकदा है , वो मि जद है , वो है मयख़ाना कहीं भी जाओ फ़िर ते िहसाब रखते ह हमारे शहर के मं ज़र न दे ख पाएँ गे यहाँ के लोग तो आँ ख म वाब रखते ह 1. हफ़-आशना—श द से पिरिचत

55 चे हरे से धूप आँ ख से गहराई ले गया आईना सारे शहर की बीनाई ले गया डूबे हुए जहाज़ प’ या त स1 कर ये हाद् सा तो सोचा िक गहराई ले गया हालाँ िक बे ज़बान था ले िकन अजीब था जो श स मु झसे छीन के गोया2 ले गया ‘ग़ािलब’ तु हारे वा ते अब कुछ नहीं रहा गिलय के सारे रं ग तो सौदाई ले गया 1. त सरा—चचा करना; 2. गोयाई—बोलने की ताक़त

56 िदए जलाए तो अं जाम या हुआ मे रा िलखा है ते ज़ हवाओं ने मिस1 मे रा िकसी ने ज़हर कहा है िकसी ने शहद कहा कोई समझ नहीं पाया है ज़ायका मे रा म चाहता था ग़जल आसमान हो जाए मगर ज़मीन से िचपका है क़ािफ़या मे रा बलि दय के सफ़र म ये यान आता है ज़मीन दे ख रही होगी रा ता मे रा 1. मिसया—मृ यु गान

57 आँ ख यासी है कोई मं ज़र दे इस जज़ीरे को भी सम दर दे अपना चे हरा तलाश करना है गर नहीं आईना तो प थर दे ब द किलय को चािहए शबनम इन चराग़ो म रौशनी भर दे प थर के सर से क् रज़ उतार इस सदी को पय बर1 दे क़हक़ह म गु ज़र रही है हयात अब िकसी िदन उदास भी कर दे िफर न कहना िक ख़ु दकुशी है गु नाह आज फुसत है फ़ैसला कर दे ू 1. पय बर—दे वदत

58 अपनी साँस बे च कर मने िजसे आबाद की वो गली ज नत तो अब भी है मगर शद् दाद1 की उम्र भर चलते रहे आँ ख प’ पट् टी बाँ धकर िज़ दगी को ढूँढने म िज़ दगी बबाद की दा तान के सभी िकरदार गु म होने लगे आज काग़ज़ चु नती िफरती है परी बग़दाद की इक सु लगता चीख़ता माहौल है और कुछ नहीं बात करते हो यगाना, िकस अमीनाबाद की 1. शद् दाद—एक राजा का नाम है िजसने ज़मीन पर ‘इरम’ नाम की ज नत बनाई थी मगर वह उसम क़दम न रख सका। उसकी मृ यु हो गई।

59 ये साने हा तो िकसी िदन गु ज़रने वाला था म बच भी जाता तो रोज़ मरने वाला था ितरे सु लक ू ितरी आगही1 की उम्रदराज़2 िमरे अज़ीज़! िमरा ज़ म भरने वाला था बलि दय का नशा टू टकर िबखरने लगा िमरा जहाज़ ज़मी पर उतरने वाला था िमरे चराग़, िमरी शब, िमरी मुं डेर ह म कब शरीर हवाओं से डरने वाला था 1. आगही— ान; 2. उम्रदराज़—ल बी उम्र

60 शहर -शहर गाँ व का आँ गन याद आया झट ू े दो त और स चा दु मन याद आया पहली-पहली फ़ त दे ख के खे त म िमट् टी का इक ख़ाली बतन याद आया िगरजा म इक मोम की मिरयम र खी थी माँ की गोद म गु ज़रा बचपन याद आया दे ख के रं गमहल की रं गीं दीवार अपने घर का सूना आँ गन याद आया जं गल सर प’ रख के सारा िदन भटके रात हुई तो राज िसं हासन याद आया

61 अपने होने का हम इस तरह पता दे ते थे ख़ाक मु ट् ठी म उठाते थे उड़ा दे ते थे बे -समर1 जान के हम काट चु के ह जो शजर याद आते ह िक बे चारे हवा दे ते थे उसकी महिफ़ल म वही सच था वो जो कुछ भी कहे हम भी गूँगो की तरह हाथ उठा दे ते थे अब िमरे हाल प’ शिम दा हुए ह वो बु जु ग जो मु झे फू लने -फलने की दुआ दे ते थे घर की तामीर म बरस रहे ह पागल रोज़ दीवार उठाते थे िगरा दे ते थे हम भी अब झट ू की पे शानी2 को बोसा दे ग़े तु म भी सच बोलने वाल को सज़ा दे ते थे 1. बे -समर—फल रिहत 2. पे शानी—म तक

62 िजहालत 1 के अँ धेरे िमटा के लौट आया म आज सारी िकताब जलाके लौट आया ये सोचकर िक वो त हाई साथ लाएगा म छत प’ बै ठे पिर दे उड़ा के लौट आया वो अब भी रे ल म बै ठी िससक रही होगी म अपना हाथ हवा म िहला के लौट आया ख़बर िमली है िक सोना िनकल रहा है वहाँ म िजस ज़मीन प’ ठोकर लगा के लौट आया वो चाहता था िक कासा ख़रीद ले मे रा म उसके ताज की क़ीमत लगा के लौट आया 1. िजहालत —अ ान।

63 िकसी आह ू के िलए दरू तलक मत जाना शाहज़ादे कहीं जं गल म भटक मत जाना इ ते हाँ लगे यहाँ सब्र का दुिनया वाले मे री आँ ख ! कहीं ऐसे छलक मत जाना िज़ दा रहना है तो सड़क प’ िनकलना होगा घर के बोसीदा िकवाड़ से िचपक मत जाना किचयाँ ढूँढ़ती िफरती ह बदन खु शबू का ख़ारे -सहरा1, कहीं भूले से महक मत जाना 1. ख़ारे -सहारा—जं गल के काँटे

64 काली रात को भी रं गीन कहा है मने ते री हर बात प’ आमीन कहा है मने ते री द तार प’ त क़ीद की िह मत तो नहीं अपनी पापोश1 को कालीन कहा है मने ज़ाइक़े बारहा आँ ख म मज़ा दे ते ह बाज़ चे हर को भी नमकीन कहा है मने तूने फ़न की नहीं शजरे की िहमायत की है ते रे एज़ाज़2 को तौहीन3 कहा है मने 1. पापोश—जूता; 2. एज़ाज़—स मान; 3. तौहीन—अपमान

65 िर ता-िर ता साय-ए-दीवारो-दर म क़ैद हँ ू मे रा दुख ये है िक म अपने ही घर म क़ैद हँ ू म इसी प थर म हँ ू सोया हुआ इक शाहकार हाँ मगर अब तक िकसी द ते -हुनर1 म क़ैद हँ ू अनिगनत शहर के िज़ दान 2 का पानी पी चु का ् त से ज़ं जीरे -सफ़र म क़ैद हँ ू म, िक इक मु द द मे री साँस की सलाख़, ह उफ़ुक3 से ता उफ़ुक़ म अज़ल से गिदशे -शामो-सहर4 म क़ैद हँ ू मे रे प थर, मे रा सीना, मे रे नाख़ु न, मे रे ज़ म म कोई सौदा हँ ू और अपने ही सर म क़ैद हँ ू 1. द ते -हुनर—हुनरमं द हाथ; 2. िज़ं दान —कारागृ ह ; 3. उफ़ुक़—आसमान 4. गिदशे -शामो-सहर—शाम-सवे रे का च कर

66 साथ मं िज़ल थी मगर ख़ौफ़ो-ख़तर ऐसा था उम्र-भर चलते रहे लोग सफ़र ऐसा था िह ज़ थीं मु झको भी चे हर की िकताब या- या िदल िशक ता था मगर ते ज़ नज़र ऐसा था आग ओढ़े था मगर बाँट रहा था साया धूप के शहर म इक त हा शजर ऐसा था लोग ख़ु द अपने चराग़ो को बु झा कर सोए शहर म ते ज़ हवाओं का असर ऐसा था

67 सारी िफ़तरत तो नक़ाब म छुपा र खी थी िसफ़ त वीर उजाले म लगा र खी थी हम िदया रख के चले आए ह दे ख या हो उस दरीचे प’ तो पहले से हवा र खी थी मे री गदन प’ थी तलवार िमरे दु मन की मे रे बाज़ू प’ िमरी माँ की दुआ र खी थी

68 िमरी ते ज़ी िमरी र तार हो जा सु बक रौ, उठ कभी तलवार हो जा बु ज़ु गों का तरीक़1 अपनाने वाले सरापा ज ब-ए-ईसार2 हो जा ितरी दु मन है ते री सादा-लौही िमरी माने तो कुछ दु वार3 हो जा कहाँ तक खोटे िस क म िबकेगा िकसी िदन ख़ूिबए-बाज़ार4 हो जा तु झे या दद की ल ज़त बताएँ मसीहा! आ कभी बीमार हो जा 1. तरीक़—ढं ग; 2. ज ब-ए-ईसार—याग की भावना रखने वाला 3. दु वार—मु ि कल; 4. ख़ूिबए-बाज़ार—बाज़ार की जान होना या सबसे क़ीमती होना

69 िज़ दगी भर दरू रहने की सज़ाएँ रह गयीं मे रे कीसे म िमरी सारी वफ़ाएँ रह गयीं नौजवां बे ट को शहर के तमाशे ले उड़े गाँ व की झोली म कुछ मजबूर माँ एँ रह गयीं एक-इक करके हुए ख़सत िमरे कुनबे के लोग घर के स नाटे से टकराती हवाएँ रह गयीं बादा-ख़ाने 1, शायरी, न म, लतीफे, रतजगे अपने िह से म यही दे सी दवाएँ रह गयीं 1. बादा-ख़ाने —शराब ख़ाने

70 अजनबी वािहश सीने म दबा भी न सकूँ ऐसे िज़द् दी ह पिर दे िक उड़ा भी न सकूँ फूँ क डालूँगा िकसी रोज़ म िदल की दुिनया ये ितरा ख़त तो नहीं है िक जला भी न सकूँ िमरी ग़ै रत भी कोई शय है िक महिफ़ल म मु झे उसने इस तरह बु लाया िक म जा भी न सकूँ इक न इक रोज़ कहीं ढूँढ़ ही लूँगा तु झको ठोकर ज़हर नहीं ह िक म खा भी न सकूँ

71 मवािफ़क़ जो फ़ज़ा1 त यार की है बड़ी तदबीर2 से हमवार3 की है यहाँ गूँगी है मे री हर इबादत ज़ रत हािशया-बरदार4 की है यकीं कैसे क ँ म मर चु का हँ ू मगर सु ख़ी यही अख़बार की है ये िमट् टी, िमट् िटय से कुछ अलग है िकसी टू टे हुए मीनार की है अब इक दिरया है और िफर इक सम दर अभी तो िसफ़ नद् दी पार की है न जाने िकस के आने की ख़बर है अजब हालत दरो-दीवार की है 1. फज़ा—वातावरण; 2. तदबीर—यु ि त; 3. हमवार—राह बनाना 4. हािशया-बरदार—छोड़े हुओं के समथक

72 शह का नौकर न कहे शह का मु सािहब समझे उसकी वािहश है िक दुिनया उसे ग़ािलब समझे मे रा या मोल है , ये फ़ैसला तु झ पर छोड़ा मु झे मं ज़रू है तू जो भी मु नािसब समझे बादशाह के कसीद से िकताब भर द कम नज़र लोग थे ज़रों को कवा कब समझे मने जो कुछ भी िलखा, अपने िलए िल खा था ये अलग बात िक वो ख़ु द को मु ख़ाितब समझे

73 रोज़ तार को नु माइश म ख़लल पड़ता है चाँद पागल है अँ धेरे म िनकल पड़ता है एक दीवाना मु सािफ़र है िमरी आँ ख म व त-बे -व त ठहर जाता है , चल पड़ता है अपनी ताबीर के च कर म िमरा जागता वाब रोज़ सूरज की तरह घर से िनकल पड़ता है रोज़ प थर की िहमायत म ग़ज़ल िलखते ह रोज़ शीश से कोई काम िनकल पडता है उसकी याद आई है , साँसो ज़रा आिह ता चलो धड़कन से भी इबादत म ख़लल पड़ता है

74 फू ल जै से मख़मली तलव म छाले कर िदए गोरे सूरज ने हज़ार िज म काले कर िदए यास अब कैसे बु झे गी हमने ख़ु द ही भूल से मयकदे कमज़फ़ लोग के हवाले कर िदए िज़ दगी का कोई भी तोहफा नहीं है मे रे पास ख़ून के आँ स ू ग़ज़ाल के हवाले कर िदए दे खकर तु झको कोई मं ज़र न दे खा उम्र-भर इक उजाले ने िमरी आँ ख म जाले कर िदए

75 जो शाख़ पर उदासी के बरहना1 ख़त बनाते ह हम उन सूखे हुए प

से घर की छत बनाते ह

फ़िर ते रं ग बरसाते ह, मौसम र स2 करता है जब उड़ते बादल म हम ितरी सूरत बनाते ह सु लगती रे त पर दिरया ने िजनका नाम िल खा था हम उन त ना-लब 3 की याद म शरबत बनाते ह म िजनके बोलते अ फ़ाज़ को गूँगा समझता हँ ू वो बूढ़े ह ट मे रे वा ते ज नत बनाते ह न जाने कौन सी तख़लीक़ की मे राज4 हो जाए हम अपने घर म अ सर ई के परबत बनाते ह 1. बरहना—न न; 2. र स—नृ य; 3. त ना-लब — यासे होठ ; 4. मे राज—पराका ठा

76 सम दर म मवािफ़क़ हवा चलाता है जहाज़ ख़ु द नहीं चलता ख़ु दा चलाता है ये जा के मील के प थर प’ कोई िलख आए वो हम नहीं ह िज ह रा ता चलाता है ये लोग पाँ व नहीं ज़े हन से अपािहज़ ह उधर चलगे िजधर रा ता चलाता है हम अपने बूढ़े चराग प’ ख़ूब इतराए और उसको भूल गए जो हवा चलाता है

77 पे शािनय 1 प’ िल खे मु क़ र नहीं िमले द तार2 या िमले , िक जहाँ सर नहीं िमले सूरज के साथ-साथ ह िकतनी कहािनयाँ मग़िरब3 के बाद हम भी कभी घर नहीं िमले कल आईन का ज न हुआ था तमाम रात अं धे तमाशबीन को प थर नहीं िमले म चाहता था ख़ु द से मु लाक़ात हो मगर आईने मे रे क़द के बराबर नहीं िमले हालाँ िक दो त से बहुत कम िमले ह हम ले िकन कभी नक़ाब लगाकर नहीं िमले 1. पे शानी—म तक; 2. द तार—पगड़ी 3. मग़िरब—शाम, िदन डूबने का व त

78 मह ला साँय-साँय कर रहा है िमरे अं दर का इं सां मर रहा है जमी ह सोच पर कदम की चाप न जाने कौन पीछा कर रहा है अब उसकी ठोकर म ताज होगा वो सारी उम्र नं गे सर रहा है िदल अपने ग़म रसीदा पै रहन म उ मीद का कसीदा भर रहा है िमरे सीने से गु ज़री रे लगाड़ी जु दाई का अजब मं ज़र रहा है बड़ा तािजर1 बना िफरता है सूरज िमरे वाब का सौदागर रहा है 1. तािजर— यापारी

79 ग़ज़ल फेरी लगाकर बे चता हँ ू म सराफे म प थर बे चता हँ ू िसयह िमट् टी की िचिड़य के बदन पर गु लाबी पर लगाकर बे चता हँ ू मु झे पवा नहीं सूदो-िज़याँ 1 की म क़तर म सम दर बे चता हँ ू वो काग़ज की मुँ डेर बाँ धता है म िमट् टी के कबूतर बे चता हँ ू ख़रीदे ह िमरे ब च ने फ़ाक़े म सड़क पर मु क़ र बे चता हँ ू ख़मोशी है िमरे ल ज़ो की गाहक बड़े नायाब गौहर बे चता हँ ू 1. सूदो-िज़याँ —हािन-लाभ

80 आँ ख म िजतने भी आँ स ू थे िठकाने लग गए आते -आते इक तब सु म तक ज़माने लग गए अब तो सहरा और सम दर के िलए ह बािरश खे ितयाँ िजतनी थीं उन पर कारख़ाने लग गए ते री पलक के घने साये का मौसम ख़ूब है धूप म िनकला तो सर पर शािमयाने लग गए बं द कमर की उमस अपना मु क़ र बन गई छत प’ जब पहुँचा तो बादल सर उठाने लग गए

81 तु हारे नाम पर मने हर आफ़त सर प’ र खी थी नज़र शोल प’ र खी थी, ज़बां प थर प’ र खी थी हमारे वाब तो शहर की सड़क पर भटकते थे तु हारी याद थी जो रात भर िब तर प’ र खी थी म अपना अ म ले कर मं िज़ल की िस त िनकला था मश कत हाथ प’ र खी थी, िक मत घर प’ र खी थी इ हीं साँस के च कर ने , हम वो िदन िदखाए थे हमारे पाँ व की िमट् टी हमारे सर प’ र खी थी सहर तक तु म जो आ जाते तो मं ज़र दे ख सकते थे िदए पलक प’ र खे थे , िशकन िब तर प’ र खी थी

82 सबब वो पूछ रहे ह उदास होने का िमरा िमज़ाज नहीं बे -िलबास होने का म ते रे पास बता िकस ग़रज़ से आया हँ ू सु बत ू दे मु झे चे हरा-शनास होने का िमरी ग़रज़ से बना ज़े हन म कोई त वीर सबब न पूछ िमरे दे वदास होने का कई िदन से तबीयत िमरी उदास न थी यही जवाज़1 बहुत है उदास होने का 1. जवाज़—कारण

83 न हमसफ़र न िकसी हमनशीं से िनकले गा हमारे पाँ व का काँटा हमीं से िनकले गा इसी गली म वो बूढ़ा फ़क़ीर रहता था तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से िनकले गा बु जु ग कहते थे इक व त आएगा िजस िदन जहाँ प’ डूबेगा सूरज वहीं से िनकले गा गु िज़ ता साल के ज़ मो हरे -भरे रहना जु लूस अबके बरस भी यहीं से िनकले गा

84 तू तो अपने मि वर के ज़ म दे कर छोड़ दे मु झको िज़ दा िकस तरह रहना है मु झे पर छोड़दे इन हवा के ज़लज़ल का है जु री कुछ इलाज रे त पर काग़ज़ की इक क ती बनाकर छोड़ दे अब तो इस शीशे के घर म साँस ले ना है मु हाल कम से कम सर फोड़ने को एक प थर छोड़ दे िदल की दौलत इस क़दर मासूिमयत से उड़ गई जै से इक शहज़ादी हाथ से कबूतर छोड़ दे िदल ितरे जूटे ख़त से बु झ गया अब आ भी जा िज म के गौतम से या उ मीद कब घर छोड़ दे

85 कोई मौसम हो, दुख़-सु ख म गु ज़ारा कौन करता है पिर द की तरह सब कुछ गवारा कौन करता है सम दर के सफ़र म साथ चलना है बहुत मु ि कल ये मौज खु द बता दगी िकनारा कौन करता है घर की राख िफर दे खगे पहले दे खना ये है घर को फूँ क दे ने का इशारा कौन करता है िजसे दुिनया कहा जाता है , कोठे की तवायफ़ है इशारा िकसको करती है , नज़ारा कौन करता है

86 पु राने दाँ व पर हर िदन नए आँ स ू लगाता है वो अब भी इक फटे माल पर ख़ु शबू लगाता है उसे कह दो िक ये ऊँचाइयाँ मु ि कल से िमलती ह वो सूरज के सफ़र म मोम के बाजू लगाता है म काली रे त के ते ज़ाब से सूरज बनाता हँ ू िमरी चादर म ये पै ब द इक जु गनू लगाता है न जाने ये अनोखा फ़क़ उसम िकस तरह आया वो अब कालर म फू ल की जगह िब छ ू लगाता है

87 कभी िदमाग़, कभी िदल, कभी नज़र म रहो ये सब तु हारे ही घर ह िकसी भी घर म रहो जला न लो कहीं हमदिदय म अपना वजूद गली म आग लगी हो तो अपने घर म रहो तु ह पता ये चले घर की राहत या ह हमारी तरह अगर चार िदन सफ़र म रहो है अब ये हाल िक दर-दर भटकते िफरते ह ग़म से मने कहा था िक मे रे घर म रहो िकसी को ज़ म िदए ह िकसी को फू ल िदए बु री हो, चाहे भली हो, मगर ख़बर म रहो

88 मु झ पर नहीं उठे ह तो उठकर कहाँ गए म शहर म नहीं था तो प थर कहाँ गए म ख़ु द ही मे ज़बान हँ ू मे हमान भी हँ ू ख़ु द सब लोग मु झको घर प’ बु लाकर कहाँ गए ये कैसी रौशनी है िक एहसास बु झ गया हर आँ ख पूछती है िक मं ज़र कहाँ गए िपछले िदन की आँ धी म गु बद तो िगर चु का अ लाह जाने सारे कबूतर कहाँ गए

89 हर नयी शय को पु रानी कर दँ ू आग िमल जाए तो पानी कर दँ ू क़ैद आँ ख म ह आँ स ू वना हर तरफ़ पानी ही पानी कर दँ ू वज़्अदारी है लह ू म वना म अभी ख़ म कहानी कर दँ ू म सु बुक़ ल ज़ो-मआनी का अमीं सं ग भी आए तो पानी कर दँ ू आ, क़सीदा कोई िल खूँ ते रा ला, तु झे यूसुफ़े-सानी कर दँ ू

90 चमकते ल ज िसतार से छीन लाए ह हम आ मां से ग़ज़ल की ज़मीन लाए ह वो और ह गे जो ख़ं जर छुपा के लाए ह हम अपने साथ फटी आ तीन लाए ह हँ सो न हम प’ िक हम बं द-नसीब1 बं जारे सर प’ रख के वतन की ज़मीन लाए ह 1. बं द-नसीब—बदनसीब

91 जब कभी फू ल ने ख़ बू की ितजारत1 की है प ी-प ी ने हवाओं से िशकायत की है यूँ लगा जै से कोई इत्र फ़ज़ा म घु ल जाए जब िकसी ब चे ने कुरआं की ितलावत की है सर उठाए थीं बहुत सु ख़ हवाएँ िफर भी हमने पलक के चराग़ो की िहफ़ाज़त की है मु झे तूफ़ाने -हवािदस2 से डराने वालो हादस ने तो िमरे हाथ प’ बै अत की है 1. ितजारत— यापार; 2. तूफ़ाने -हवािदस—तूफ़ान के हादसे

92 सम दर पार होती जा रही है दुआ पतवार होती जा रही है दरीचे अब खु ले िमलने लगे है फ़ज़ा हमवार होती जा रही है मसाइल, जं ग, ख़ु बू, रं ग, मौसम ग़ज़ल अख़बार होती जा रही है कटी जाती ह साँस की पतं ग हवा तलवार होती जा रही है गले कुछ दो त आकर िमल रहे ह छुरी पर धार होती जा रही है

93 इस सामाने -सफ़र जान, ये जु गनू रख ले राह म तीरगी होगी, िमरे आँ स ू रख ले तू जो चाहे तो ितरा झट ू भी िबक सकता है शत इतनी है िक सोने की तराज़ू रख ले वो कोई िज म नहीं है िक उसे छ ू भी सक हाँ , अगर नाम ही रखना है तो खु बू रख ले तु झको अनदे खी बल दी म सफ़र करना है एहितयातन िमरी िह मत, िमरे बाज़ू रख ले िमरी वािहश है िक आँ गन म न दीवार उठे िमरे भाई! िमरे िह से की ज़मीं तू रख ले

94 िज़ दगी को ज़ म की ल ज़त से मत मह म कर रा ते के प थर से ख़ै िरयत मालूम कर टू ट कर िबखरी हुई तलवार के टु कड़े समे ट और अपने हार जाने का सबब मालूम कर जागती आँ ख के वाब को ग़ज़ल का नाम दे रात भर की करवट का ज़ायक़ा मालूम कर शाम तक लौट आऊँगा हाथ का ख़ालीपन िलए आज िफर िनकला हँ ू म घर से हथे ली चूम कर मत िसखा लहजे को अपनी बिछय के पतरे िज़ दा रहना है तो लहजे को ज़रा मासूम कर

95 सु लगते ल ज का न शा उतारने वाले ग़ज़ल उतार सहीफ़ा उतारने वाले ये भूल मत िक अभी सर प’ आसमान भी है िकसी के सर का दुपट् टा उतारने वाले वो आज चलने लगे पाँयचे उठाए हुए कभी चढ़ा हुआ दिरया उतारने वाले िबठाए िफरते ह दुिनया को अपनी पलक पर िमरी िनगाह से दुिनया उतारने वाले अकेले पन के िसयह नाग डस रहे ह मु झे मदद, पिर द का जोड़ा उतारने वाले

96 सु लगती यास का कुछ हल ज़ु र िनकले गा हमारे नाम का बादल ज़ु र िनकले गा अदालत न सही, जं ग की ज़मी प’ सही म मसअला हँ ू िमरा हल ज़ु र िनकले गा ह मु दाख़ोर पिर दे छत प’ बै ठे हुए यहीं कहीं कोई म तल ज़ु र िनकले गा हरे -भरे कई शहर का तज बा है मु झे कहीं भी जाइए जं गल ज़ु र िनकले गा

97 म जब चलूँ तो ये दौलत भी साथ रख दे ना िमरे बु जु ग िमरे सर प’ हाथ रख दे ना ढले गा िदन तो सु लगने लगे गा िदल मे रा मु झे भी घर के चराग़ो के साथ रख दे ना ये आने वाले ज़मान के काम आएँ गे कहीं िछपा के िमरे तजरबात रख दे ना अँ धेरी रात के गु मराह जु गनु ओ ं के िलए उदास धूप ही टहनी प’ रात रख दे ना म एक सच हँ ू अगर सु न सको तो सु नते रहो ग़लत कहँ ू तो िमरे मुँ ह प’ हाथ रख दे ना

98 राह म ख़तरे भी ह ले िकन ठहरता कौन है मौत कल आती है आज आ जाए डरता कौन है सब ही अपनी ते ज़गामी1 के नशे म चूर ह लाख़ आवाज़ लगा लीजे ठहरता कौन है ह पिर द के िलए शादाब पे ड़ के हुजूम अब िमरी टू टी हुई छत पर उतरता कौन है ते रे ल कर के मु क़ािबल म अकेला हँ ू मगर फ़ैसला मै दान म होगा िक मरता कौन है 1. ते ज़गामी—तीव्रगित से चलना

99 ह टो प’ अपने यास का दोज़ख़1 खं गाल ले या एिड़याँ रगड़ कोई च मा िनकाल ले भाई समझ रहा है तो आ जा गले लग दु मन समझ रहा है तो हसरत िनकाल ले ऐसे तो ख़ म हो न सकेगा मु क़ाबला अब मि वरा यही है िक िस का उछाल ले ये लिग्ज़श तो मने िवरासत म पाई ह अब ते रा काम है िक िग ँ तो सँ भाल ले यारो! मआफ़ ‘मीर’ का म मोतिक़द नहीं ऐसी भी या ग़ज़ल िक कले जा िनकाल ले 1. दोज़ख़—नक

100 यूँ सदा दे ते हुए ते रे याल आते ह जै से काबे की खु ली छत प’ िबलाल आते ह रोज़ हम अ क से धो आते ह दीवारे -हरम पगिड़याँ रोज़ फ़िर त की उछाल आते ह हाथ अभी पीछे बँ धे रहते ह चु प रहते ह दे खना ये है तु झे िकतने कमाल आते ह चाँद-सूरज िमरी चौखट प’ कई सिदय से रोज़ िल ख़े हुए चे हरे प’ सवाल आते ह बे िहसी, मु दािदली, र स, शराब, ऩ मे बस इसी राह से क़ौम प’ ज़वाल आते ह

101 दो त है तो िमरा कहा भी मान मु झसे िशकवा भी कर बु रा भी मान िदल को सबसे बड़ा हरीफ़1 समझ और इसी रं ग को ख़ु दा भी मान म कभी सच भी बोल दे ता हँ ू गाहे -गाहे 2 िमरा कहा भी मान काग़ज़ की ख़ामोिशयाँ भी पढ एक इक हफ़ को सदा भी मान आज़माइश म या िबगड़ता है फ़ज़ कर और मु झे भला भी मान 1. हरीफ़—दु मन 2. गाहे -गाहे —कभी-कभी

102 िमरे ख़ु लस ू की गहराई से नहीं िमलते ये झट ू े लोग ह स चाई से नहीं िमलते वो सबसे िमलते हुए हमसे िमलने आता है हम इस तरह िकसी हरजाई से नहीं िमलते पु राने ज़ म ह काफ़ी शु मार करने को सो अब िकसी भी शनासाई1 से नहीं िमलते मु ह बत का सबक दे रहे ह दुिनया को जो ईद अपने सगे भाई से नहीं िमलते 1. शनासाई—पिरचय

103 ये ख़ाकजादे 1 जो रहते ह बे -ज़बान पड़े इशारा कर द तो भी सूरज ज़मीं प’ आन पड़े सु कूते -ज़ी त2 को आमद-ए-बग़ावत3 कर लह ू उछाल िक कुछ िज़ दगी म जान पड़े हमारे शहर की बीनाइय प’ रोते ह तमाम शहर के मं ज़र लहल ू ु हान पड़े उठे ह हाथ िमरे हुरमते -ज़मीं4 के िलए मज़ा जब आए िक अब पाँ व आसमान पड़े िकसी मकींन5 की आमद के इ तज़ार म ह िमरे मह ले म ख़ाली कई मकान पड़े ह 1. ख़ाकज़ादे —िमट् टी म ज मे ; 2. सु कूते -ज़ी त—जीवन की शाि त 3. आमद-ए- बग़ावत— बग़ावत के िलए उकसाना; 4. हुरमते -ज़मीं—धरती का स मान 5. मकींन—मकान म रहने वाला

104 घर से ये सोच के िनकला हँ ू िक मर जाना है अब कोई राह िदखा दे िक िकधर जाना है िज म से साथ िनभाने की मत उ मीद रखो इस मु सािफ़र को तो र ते म ठहर जाना है न शा ऐसा था िक मयख़ाने को दुिनया समझा होश आया तो ख़याल आया िक घर जाना है िमरे ज बे की बड़ी क़द्र है लोग म मगर मे रे ज बे को िमरे साथ ही मर जाना है

105 आँ स-ू आँ स ू सािजश होती रहती है हर मौसम म बािरश होती रहती है हम लोग से झुककर िमलते रहते ह क़ामत1 की पै माइश2 होती रहती है काई जमी रहती है ह पर ले िकन िज म की आराईश3 होती रहती है आती-जाती िचिड़याँ रौशन-दान म घर-आँ गन की वाइश होती रहती है घर के बाहर सूरज आग उगलता है घर के अ दर बािरश होती रहती है 1. क़ामत—क़द, उँ चाई; 2. पै माइश—मापना; 3. आराइश—सजावट

106 ह लाख ज़ु म मगर बद्-दुआ नहीं दगे ज़मीन माँ है , ज़मीं को दग़ा नहीं दगे हम तो िसफ़ जगाना है सोने वाल को जो दर खु ला है वहाँ हम सदा नहीं दगे रवायत की सफ़ तोड़ कर बढ़ो वना जो तु मसे आगे ह वो रा ता नहीं दगे यहाँ कहाँ ितरा स जाद: आ के ख़ाक प’ बै ठ िक हम फ़क़ीर तु झे बोिरया नहीं दगे

107 िमरे अहबाब को िजस व त भी फुसत होगी और तो कुछ नहीं होगा, िमरी ग़ीबत होगी अभी रं ग की ज़बां गु ं ग पड़ी है ले िकन जब ये त वीर बने गी तो क़यामत होगी अब के बािरश म नहाने का मज़ा आएगा बे िलबासी की तरह घर की खु ली छत होगी माँ के क़दम के िनशां ह िक िदए रौशन ह ग़ौर से दे ख यहीं पर कहीं ज नत होगी

108 शाम ने जब पलक पर आितश-दान िलया कुछ याद ने चु टकी म लोबान िलया दरवाज़ ने अपनी आँ ख नम कर लीं दीवार ने अपना सीना तान िलया यास तो अपनी सात सम दर जै सी थी नाहक हमने बािरश का एहसान िलया मने तलव से बाँ धी थी छाँ व मगर शायद मु झको सूरज ने पहचान िलया िकतने सु ख से धरती ओढ़ के सोए ह हमने अपनी माँ का कहना मान िलया

109 वाब म जो बसी है वो दुिनया हसीन है ले िकन नसीब म नहीं दो गज़ ज़मीन है म क़तरा-क़तरा मरता रहा हँ ू तमाम उम्र जो ज़हर पी सके वो िमरा जां -नशीन है रोटी की सि तय ने हम स त कर िदया सु नते ह अब भी ढाके की मलमल महीन है है आसमान से भी बल द उसका मतबा हालाँ िक अपने पाँ व के नीचे ज़मीन है

110 शहर के िबखरे हुए मं ज़र उठा ले जाएँ गे फू ल चु नने वाले आकर सर उठा ले जाएँ गे इक नई मि जद बनाना चाहते ह शहर म ते रे कू चे का कोई प थर उठा ले जाएँ गे हम फ़क़ीर के िलए तो सारी दुिनया एक है हम जहाँ जाएँ गे अपना घर उठा ले जाएँ गे रं ग-महल के दरीचे खोिलए आलम-पनाह ू र उठा ले जाएँ गे वना शहज़ादी को जादग

111 सु लगते चीख़ते मौसम की वापसी होगी नयी त म नए ग़म की वापसी होगी जहाँ कढ़े हुए माल हमने भे जे ह वहीं से जं ग के परचम की वापसी होगी िकसी कनीज़ की िक मत चमक भी सकती है सवे रे सािहबे -आलम की वापसी होगी हम बहार से िदलचि पयाँ नहीं ले िकन ख़ु शी ये है िक ितरे ग़म की वापसी होगी

112 हर-एक चे हरे को ज़ म का आईना न कहो ये िज़ दगी तो है रहमत सज़ा न कहो न जाने कौन सी मजबूिरय का कैदी हो वो साथ छोड गया है तो बे -वफ़ा न कहो हमारे ऐब हम उँ गिलय प’ िगनवाओ हमारी पीठ के पीछे हम बु रा न कहो म वाक़यात की ज़ं जीर का नहीं क़ाइल मु झे भी अपने गु नाह िसलिसला न कहो ये शहर वो है जहाँ रा स भी ह ‘राहत’ हर इक तराशे हुए बु त को दे वता न कहो

113 मि जद के से हन तक जाना बहुत दु वार था दे र से िनकला तो मे रे रा ते म दार था अपने ही फैलाव के न शे म खोया था दर त और हर मासूम टहनी पर फल का बार था दे खते ही दे खते शहर की रौनक बन गया कल यही चे हरा था जो हर पर बार था सबके दुख-सु ख उसके चे हरे 1 पर िलखे पाए गए आदमी या था हमारे शहर का अख़बार था क़ाग़ज़ की सब िसयाही बािरश म धु ल गयी हमने जो सोचा ितरे बारे म सब बे कार था 1. उसके चे हरे — व. कािशफ़ इ दौरी

114 इ तज़ामात नए िसर से सँ भाले जाएँ िजतने कमज़फ़ ह महिफ़ल से िनकाले जाएँ मे रा घर आग की लपट म िछपा है ले िकन जब मज़ा है ितरे अं गन म उजाले जाएँ ख़ाली व त म कहीं बै ठ के रो ल यारो फ़ुसत ह तो सम दर ही खं गाले जाएँ ख़ाक म यूँ न िमला ज़ त की तौहीन न कर ये वो आँ स ू ह जो दुिनया को बहा ले जाएँ

115 मे रे अपने मु झे िमट् टी म िमलाने आए अब कहीं जाके िमरे होश िठकाने आए तूने बाल म सजा र खा था काग़ज़ का गु लाब लोग ये समझे बहार के ज़माने आए चाँद ने रात की दहलीज़ को ब शे ह चराग़ मे रे िह से म भी अ क के ख़जाने आए दो त होकर भी महीन नहीं िमलता मु झसे उससे कहना िक कभी ज़ म लगाने आए फ़ुसत चाह रही ह िमरी ह ती का लहू मु तिज़र1 हँ ू िक मु झे कोई बु लाने आए 1. मु तिज़र—इ तज़ार म य त रहने वाला

116 खानक़ाह म, हरम म, न िशवाल म िमले वो फ़िर ते जो िकताब के हवाल म िमले चाँद को हमने कभी गौर से दे खा ही नहीं उससे कहना िक कभी िदन के उजाल म िमले मु कुराहट की सलीब प’ चढ़ाऊँ आँ स ू िज़ दगी ऐसी गु ज़ा ँ िक िमसाल म िमले िफर वही ज़ म उभर आए जो भर आए थे आज कुछ ख़त मु झे बोसीदा िरसाल म िमले मे री ग़ज़ल ने ये एज़ाज़ िदया है मु झको मे रे दु मन भी िमरे चाहने वाल म िमले

117 दो ती कब िकसी से की जाए दु मन की भी राय ली जाए मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं म अब कहाँ जा के साँस ली जाए बस इसी सोच म हँ ू डूबा हुआ ये नदी कैसे पार की जाए अगले व त के ज़ म भरने लगे आज िफर कोई भूल की जाए कह दो इस अहद के बु जु गों से िज़ दगी की दुआ न दी जाए