Cinema: Kal, Aaj, Kal [1 ed.] 8181434668, 9788181434661


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Hindi Pages [524] Year 2006

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Cinema: Kal, Aaj, Kal [1 ed.]
 8181434668, 9788181434661

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विनोद भारद्वाज

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डे फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज तीन दशकों से भारतीय और विश्व सिनेमा के विशेषज्ञ के रूप में धर्मयुग, दिनमान, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, आउटलुक साप्ताहिक आदि देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते

रहे हैं। 'दिनमान” के संपादक रघुवीर सहाय के अनुरोध पर उन्होंने कॉलेज के दिनों मेंही चुनी हुई विदेशी फिल्मों पर लिखना शुरू कर दिया था। बाद में “धर्मयुग” में धर्मवीर भारती के कहने पर उन्होंने हिंदी फिल्म समीक्षा का कालम लिखा। 'दिनमान' के संपादकीय विभाग के एक सदस्य के रूप में विनोद भारद्वाज लंबे समय तक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों पर लिखते रहे। “नवभारत टाइम्स” में कई साल तक उन्होंने फिल्म समीक्षा काकालम लिखा और इन दिनों वह

“आउटलुक' साप्ताहिक के फिल्म समीक्षक हैं। पिछले 32 सालों में विनोद भारद्वाज ने सिनेमा पर जो लिखा उसका एक प्रतिनिधि

चयन इस पुस्तक में शामिल है। लेखक के पास विश्व सिनेमा को जानने जाँचने के पर्याप्त औजार हैंऔर भारतीय सिनेमा की

परंपरा से भी वह गहरे स्तर पर जुड़े हैं। मुंबइया लोकप्रिय सिनेमा पर भी उन्होंने एक अलग नजरिए से लिखा है।

आवरण चित्र

बुद्धदेव दासगुप्त की फिल्म 'मंदो मेयेर उपाख्यान” (2002) का एक दृश्य

सिनेमा : कल, आज, कल

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सिनेमा कल, आज, कल

विनोद भारद्वाज

वाणी प्रकाशन का लोगो विख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन की कूची से

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बवाणां प्रकाशन 2-ए, दरियागंज, नयी दिल्‍ली-00092

द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण : 2006

७6 लेखकाधीन आवरण : वाणी चित्रांकन

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भूमिका तीन दशकों से भीअधिक समय-ठीक-ठीक कहा जाए, तो 32 सालों का फिल्म लेखन है इस पुस्तक में |सौ से अधिक लेख, टिप्पणियाँ, समीक्षाएँ, भेंटवार्ताएँ आदि संकलित हैं। 970 के आसपास रघुवीर सहाय ने 'दिनमान' में कला, फिल्म, आधुनिक विचार आदि पर लिखने के लिए आग्रह किया था। तब मैं लखनऊ में एम. ए. मनोधघिज्ञान का छात्र था। कुछ फिल्म समीक्षाएँ भी मैंने लखनऊ से “दिनमान' भेजीं जो पत्रिका के अंतिम पृष्ठ परअलग ही नजर आती थीं। फ्रांसुआ त्रुफो की फिल्म “मिसीसिपी मरमेड”' और डेविड लीन की “रयांस डॉटर' लखनऊ में सिनेमाघरों में देखीं और उन पर “दिनमान' में विस्तार से लिखा भी। यह फिल्म लेखन की शुरुआत थी जो बाद में पैशन, पागलपन और पेशे का मिलाजुला रूप हो गई । इस पुस्तक मेंसिनेमा का सब तरह का लेखन शामिल है। कला सिनेमा, मुंबइया सिनेमा, विश्व सिनेमा, हॉलीवुड सभी कुछ मिल जाएगा पाठकों को। मुझे पूरी उम्मीद है किएक साथ 32 सालों का बिखरा हुआ लेखन पढ़कर फिल्म प्रेमी पाठकों को कुछ विचार जरूर मिलेंगे अलग-अलग समय के लेखन में पाठकों को कुछ दुहराव भी मिलेंगे। पर लेख के तर्क को संपूर्णता में समझने के लिए उन्हें हटाना उचित नहीं था। हिंदी में विदेशी नामों के सही उच्चारण की भी एक शाश्वत समस्या है। फिल्‍म पर मैंने लिखा तो और भी ज्यादा है। फिल्म समीक्षाएँ बहुत कम शामिल की हैंइस पुस्तक में ।आइसबर्ग की तरह वे 'दिनमान”, “नवभारत टाइम्स” और “आउटलुक'” की फाइलों में छिपी पड़ी हैं। 'दिनमान' मेंचुनी हुई फिल्मों परलिखता था। "नवभारत टाइम्स” और “आउटलुक' में हर सप्ताह रिलीज हुई फिल्मों पर लिखता रहा हूँ। अरुण माहेश्वरी का आभारी हूँकि उन्होंने इस पुस्तक को छापने में उत्साह दिखाया। इस पुस्तक में सिनेमा का वर्तमान और अतीत तो है ही। भविष्य को लेकर भी आशंकाएँ, सवाल आदि इन लेखों में छिपे हुए हैं। अजित राय का भी आभारी हूँजिन्होंने काफी दबाव डाला पुस्तक की पांडुलिपि बनाने के लिए। जिंदगी का बहुत सारा समय सिनेमाघर के आँधेरे में गुजारा है।एक जबरदस्त जादू है इस माध्यम का। पाठकों को थोड़ी भी रोशनी मिल सके, तो अच्छा लगेगा। “विनोद भारद्वाज

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अनुक्रम राय की गलती क्‍या है? बिरकुट की खोज में...

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बोलने वाला बहरा देवता

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फिल्म एक “प्रदर्शन” है कैमरे की बंदी : स्त्री कीछवि आज की दुनिया में फिल्‍म ,

30

नया सिनेमा

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एक यथार्थ जो अनछुआ है जिंदगी से जुड़े होने कासच क्‍या है?

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हिंदी में फिल्म पत्रकारिता आज की छटपटाहट को देखने वाली आँखें एक चेहरा जो स्मिता पाटील का है

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दर्शकों को निराश नहीं करना ओम पुरी

67

पति-पत्नी संबंध फिल्‍मी आईने में हम चीखते क्‍यों नहीं जन-अरण्य शतरंज के खिलाड़ी सत्यजित राय की दो टी.वी. फिल्में खँडहर

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दुविधा

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विजेता काडू सुबह

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सत्यम्‌ शिवम्‌ सुंदरम्‌ गंगा में शैंपेन वहाँ पैदल ही जाना है

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जंजीर

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चुपके-चुपके

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मुखामुखम माया मिरिगा सईद मिर्जा नीरद महापात्र

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कुंदन शाह कुमार शहानी मुजफ्फर अली प्रकाश झा ओम पुरी

29

शबाना आजमी जो सिर्फ अभिनेत्री नहीं थी काश हमारे दर्शक ग्रो कर सकें

भरत से मुंबइया सिनेमा तक छोटा-सा घर होगा बादलों की छाँव में पंद्रह वर्षों कीदस सर्वश्रेष्ठ फिल्में हिंदी सिनेमा के पिछले 75 साल सिनेमा, समय और इतिहास

अच्छी फिल्मों के दर्शकों तक पहुँचने की दुविधा साहित्य बनाम छोटा और बड़ा पर्दा आधुनिक सभ्यता का बूचड़खाना

एक भरे-पूरे जीवन की अधूरी आत्मकथा सिनेमा के एक सच्चे जीनियस के न रहने पर

गुरुदत्त : एक कवि और एक फिल्मकार अरविंदन : एक बेहतर जीवन का सपना “चिदंबरम” कहाँ है? जो डरा वो मरा हिंदी की अपने ढंग की पहली फिल्म विधेयन : मानव संबंधों काआइसबर्ग सिनेमा का पहला नागरिक चार्ली

रोबेरतो रोसेलीनी : अपनी समझ और परेशानियाँ दे सीका की अद्वितीय दृष्टि फेलीनी का आश्चर्यलोक

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फिल्मों में कुरोसावा केपचास साल बुनुएल : एक फिल्मकार की स्मृतियाँ और सपने

260

तारकोवस्की : 'सफलता'” के विरुद्ध

268

मिस लिलियन का मतलब है सिनेमा ग्रेटा गार्बो : आध्यात्मिक ग्लैमर की रोशनी और अँधेरा

20/2

264

275

आड़े हेपबर्न : एक सुंदर और समझदार स्त्री की छवि

278

एक निराला नसीर

220

एक “आगंतुक' का चले जाना

2865

हिंदी फिल्म समीक्षा : दशा और दिशा मनोरंजन-व्यापार-कला और सेंसर हिंदी की टॉप टेन! फिल्में विदेशों में भारतीय फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता

288

कॉमेडियन नंबर वन की खोज में कुछ सवाल “जुबली कुमार” का भी एक दौर था

305

विज्ञान और यंत्रविधि के दर्पण में भारतीय सिनेमा दो 'सर्वश्रेष्ठः फिल्में प्रेम अब भी एक संभावना है! नक॑ के दरवाजों का स्वर्ग क्यों खतरनाक है हिंसा की मनोरंजक शैली

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पर्दे पर अंडरग्राउंड यथार्थ : झूठा सच या सच्चा झूठ? गुलजार के कई रूप सच्चाई के दो स्तर

34]

असमय रिटायर क्‍यों हो एक अच्छी अभिनेत्री ? दक्षिण के सार्थक सिनेमा के संस्कार! डिजाइनर रोमांस के इस दौर में रंगमंच और सिनेमा का एक नया सौंदर्यशास्त्र एक अभिनेत्री के25 साल महेश भट्ट के अर्थ का सारांश एक नई प्रतिष्ठा मिली है कैमरामैन को बीसवीं शताब्दी की सबसे मोहक अभिनेत्री

30

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हिचकॉक : सस्पेंस की “दूसरी दुनिया” यह जीवन क्‍यों इतना सुंदर है! छोटी कथाफिल्मों की बड़ी दुनिया स्टेनले क्युबरिक : एक वास्तविक सुपरस्टार निर्देशक

3869

बर्गमैन : विचारों का सिनेमा

392

378 382 385

कुरोसावा की फिल्मकला की रहस्यमय कुंजियाँ नव यथार्थवादी सिनेमा का जन्मदाता : रोसेलीनी

खंडित तलवार और उड़ती हुई बर्फ कविता, कार्यहीनता और कल्पना

पत्तियाँ गिर रही हैं एक मौलिक '“लवर ब्वॉय'

मीना कुमारी : कुछ छूट गया याद नहीं एक मीठी महानता का नाम है लता दो आने की बारिश या लाखों का सावन

नारी मुक्ति कथा : उषा से जुबैदा तक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का अवमूल्यन हमारे शहर, उनके शहर “अंकल ऑस्कर' का ग्लैमर और हमारी “गरीबी! खामोश पानी और उसका शोर घोड़े बेचकर फिल्में बनाना

हुसेन केतीन शहर और एक सपना समय, सामाजिक सरोकार और सिनेमा भावशून्य चेहरों की विदाई क्षेत्रीय सिनेमा या केंद्रीय सिनेमा? नई तरह की नायिका : कितनी नई एडल्ट चैनल का तिलिस्म सत्यजित राय का नया रूप सत्यजित राय की आखिरी फिल्म कैबरेघर में कैमरा

वापसी की बेचैनी ला दोल्चे वीता

तीता की दुनिया रेड साम द टच

एक कलाकार की आहुति साढ़े चार हजार मर्द औरएक औरत

बचे हुए लोग ]900 एक चिड़िया की साहसिक उड़ान

राय की गलती क्‍या है? भारतीय सिनेमा के इतिहास में सत्यजित राय के अभूतपूर्व योगदान को रेखांकित करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उन्हें देवता का दर्जा दे दिया जाए। पिछले 26 वर्षो में सत्यजित राय ने शतरंज के खिलाड़ी के अलावा सभी फिल्में बंगला

भाषा में बनाई हैं। पर उनकी फिल्मों ने बंगला सिनेमा ही नहीं दुनिया भर के सिनेमा को अपने खास ढंग से प्रभावित किया है। कला माध्यमों में आज शायद फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो अपनी ताकत को अपेक्षाकृत आसानी से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाहिर कर सकता है। फिल्म के अलावा अन्य माध्यमों में भी भारत में ऐसे कलाकार मौजूद हैं जो विश्व के चुने हुए कलाकारों की गिनती में आ सकते हैं। सत्यजित राय को यदि विश्व के दस-बारह बड़े फिल्मकारों में आज चुना जाता है, तो इसके पीछे उनकी फिल्म कला की गहरी मानवीयता और उसका सार्विक रूप तो है ही-फिल्म माध्यम को चुनना भी एक कारण है। मिसाल के लिए श्याम बेनेगल ने अभी कुछ ही फिल्में बनाई थीं कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय चर्चा मिल गई। इसका कारण बेनेगल की अपनी प्रतिभा के साथ-साथ सिनेमा माध्यम का चुनाव भी है। एक फिल्म पर फौरन समीक्षाएँ आ जाएँगी, उसके उपन्शीर्षकों वाले प्रिंट तैयार हो जाएँगे और अंतर्राष्ट्रीय महोत्सवों के प्रतिनिधि घूम-घूमकर इन फिल्मों को खोजेंगे। अन्य विधाओं में (उनकी अपनी बनावट और नियति के कारण) यह

सब आसानी से संभव नहीं है। लेकिन सत्यजित राय अगर भारतीय या विश्व सिनेमा में इतना सम्मान पा सके हैं तो इसके पीछे बड़ा कारण उनकी बहुमुखी प्रतिभा है। सिनेमा केअलावा साहित्य, चित्रकला, संगीत आदि से सत्यजित राय का बड़ा निकट संबंध रहा है। इसीलिए वह अपनी फिल्मों पर काफी नियंत्रण रखते रहे हैं। 956 में कान महोत्सव में राय की पहली फिल्म 'पथेर पाँचाली” जब पुरस्कृत हुई तो उसके पीछे निर्णायकों के मन में यह बात नहीं थी कि हमें भारत की गरीबी के प्रति सहानुभूति दिखानी है। 'पथेर पाँचाली” विश्व सिनेमा केइतिहास की उन थोड़ी-सी फिल्मों में सेहैजिसमें एक कलाकार की मानवीय दृष्टि अपने श्रेष्ठतम राय की गलती क्या है? : 3

रूप में हैऔर साथ-ही-साथ सिनेमा माध्यम की समझ का बहुत रचनात्मक रूप भी मौजूद है। भारतीय जिंदगी के बारे में आज कोई कलाकार यदि मन से फिल्म बनाएगा तो उसे गरीबी की जिंदगी का सामना करना पड़ेगा ही। सत्यजित राय की प्रतिष्ठा

चूंकि पश्चिम में काफी ज्यादा रही है इसलिए अक्सर लोग बड़े भोले तर्क से यह मान लेते हैं किसत्यजित राय अपनी कला में गरीबी का व्यापार करते रहे हैं।

इन लोगों को यह जानने की जरूरत नहीं है कि सत्यजित राय ने गरीबी को कुछ ही फिल्मों में मुख्य विषय बनाया है। बल्कि लोग यह भूल जाते हैंकि पथेर पाँचाली के बाद जलसाघर, चारुलता, अरण्येरदिनरात्रि आदि सत्यजित राय की अनेक

बहुचर्चित फिल्में तथाकथित गरीबी से सीधा संबंध नहीं रखती रही हैं। राय की सभी अच्छी फिल्मों में एक बड़े कलाकार की प्रतिभा को हम पाते हैं। अपने लंबे

फिल्म जीवन में उन्होंने कुछ औसत और “खराब” फिल्में भी बनाई हैं किंतु यह निर्विवाद है किभारतीय जीवन को सत्यजित राय ने बहुत विविधता और गहराई में देखने कीकोशिश की है। यहाँ हम 'पूर्णता” की बात नहीं करेंगे चूँकि हरकलाकार की अपनी शर्ते होती हैं औरउसकी अपनी दुनिया होती है। सत्यजित राय के 60 वें जन्मदिन के अवसर पर नई दिल्ली में सत्यजित राय और विदेशों में भारतीय छवि जैसे नकली विषय पर जब बहस हो रही थी तो अधिकांश वक्ता सत्यजित राय की सराहना में तीन-चार वाक्यों को ही बार-बार दोहरा रहे थे किअचानक एक नौजवान लड़के ने स्टेज पर आकर यह घोषित

कर दिया कि सत्यजित राय की फिल्मों में बंगाल की जिंदगी के अनेक जुझारू पक्ष नहीं हैं। बंगला समाज की बेचैनी, राजनीतिक अस्थिरता तथा हिंसा को सत्यजित

राय अपनी फिल्मों में नहीं दिखा पाए हैं। कुछ उत्साही लोगों नेइस नौजवान का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया। खराब माइक्रोफोन से मैरी सेटन, अमिता मलिक और प्रो. अशोक मित्र जो नीरस बहस चला रहे थे हो सकता है उससे

मुक्ति केकारण भी यह तालियाँ बजी हों। पर यह सही है कि सत्यजित राय के आलोचक अक्सर उनकी फिल्मों में राजनीति और सांप्रतिक जीवन की लड़ाइयों

के न होने की बात करते रहे हैं। जहाँ तक विदेशों में भारतीय छवि का प्रश्न है सत्यजित राय को सरकारी

सांस्कृतिक दूत क्‍यों मान लिया जाए? सरकारी दूतावास एक खास तरह की भारतीय छवि को दिखाने के लिए विवश हैं। उससे एक कलाकार का क्‍या रिश्ता हो सकता

है? एक कलाकार अपनी कला की जरूरतों और मुश्किलों का सामना करता है। उसके दिमाग में यह बात कैसे हो सकती है कि मेरी इस कला से भारत के बारे में लोग क्‍या सोचेंगे? सच बात तो यह है कि विदेशों में भारतीय छवि तभी बेहतर हो सकती है जब बेहतर कलाकारों का काम सामने आए। सत्यजित राय अपने ]4 : सिनेमा : कल, आज, कल

भीतर के कलाकार के श्रेष्ठ रूप के कारण ही दुनिया भर में भारतीय छवि को बेहतर करते रहे हैं। नई दिल्ली के इस परिसंवाद के तुरंत बाद बी. डी. गर्ग की सत्यजित राय पर कुछ साल पहले बनाई गई लघु फिल्म भी दिखाई गई थी। इस फिल्म में सत्यजित राय के सिनेमा की कला के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण तो हैं ही, इसमें खुद राय ने अपने सिनेमा के बारे में भी कुछ बातें कही हैं। उन्होंने कहा है किकिसी फिल्म को बनाते वक्‍त मैं बहुत-सी नई बातें सीखता हूँ। 'पथेर पाँचाली” बनाते वक्‍त मुझे भारतीय गाँवों काऐसा परिचय मिला जो मुझे पहले कभी नहीं मिल पाया था। इसी तरह से “महानगर” को बनाते वक्‍त मैं कोलकाता को एक नई तरह से समझ पाया हूँ। सत्यजित राय की इस बात में शायद बहुत से लोग कोई नई बात न पाएँ। पर इतना तो देखा ही जा सकता है कि सत्यजित राय की दुनिया अनुभवों को लेकर बहुत खुली हुई दुनिया है। सांप्रतिक भारतीय जीवन के बारे में नारेबाजी करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। सत्यजित राय इस जीवन की बेचैनी को अपने ढंग से दिखाते हैं। उन्होंने बच्चों केलिए भी कई फिल्में बनाई हैं। पर उन में सांप्रतिक जीवन की हलचंलें गायब नहीं हैं। हीरक राजार देशे (सत्यजित राय की सबसे नई फिल्म) भले ही एक फिल्म के रूप में औसत फिल्म है पर उसका

राजनीतिक संदेश किसी से छिपा नहीं है। जन अरण्य की दुनिया आज के जीवन की वास्तविकता से बचना नहीं चाहती है। समस्या तब आती है जब हम एक कलाकार से बहुत ज्यादा उम्मीद करने लग पड़ते हैं। अक्सर ऐसे फिल्मकार राय की फिल्मों कीआलोचना करते देखे जा सकते हैं जोअपनी किसी फिल्म के एक प्रसंग में भीफिल्‍म कला को पकड़

नहीं पाए हैं। हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भारतीय सिनेमा का एक ही विस्तार हो। श्याम बेनेगल नें अपनी कुछ फिल्मों में हिंदी सिनेमा को कुछ नए ढंग से समृद्ध किया, तो यह एक अच्छी बात थी। पर जुनून और कलयुग में श्याम बेनेगल अपनी फिल्म कला की सीमाओं को काफी स्पष्ट करते दीखते हैं। स्वर्गीय ऋत्विक घटक या मृणाल सेन की चार-पाँच फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो सत्यजित राय के सिनेमा का भारतीय सिनेमा में एकछत्र शासन रहा है। (एक-दो अच्छी फिल्मों के फिल्मकारों की हम यहाँ बात नहीं कर रहे हैं)। लेकिन इस स्थिति के लिए

दोषी सत्यजित राय को क्‍यों माना जाए?

]98

राय की गलती क्या है? : 5

बिरकुट की खोज में... (भारतीय सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र) लगभग दस वर्ष पहले फिल्म वित्त निगम की मदद से बनी चार-छह हिंदी की फिल्में पत्र-पत्रिकाओं में बड़ी चर्चा में रही थीं। तब एक ऐसा वातावरण बना था

जिससे कुछ फिल्म प्रेमियों कोयह भ्रम भी होने लगा था कि अब शायद मुंबइया सिनेमा का पहले की तरह का जोर न रहे। अब दस साल बाद उन फिल्मों के बारे में जब हम सोचते हैं, तो हमें इस सवाल का सामना करना ही पड़ता है कि

आखिर बाद में कया हुआ कि हिंदी सिनेमा (मुंबइया सिनेमा नहीं) अपनी शक्ल नहीं बना पाया? अक्सर इस बात के लिए दोषी वितरण व्यवस्था को बताया जाता

है। पिछले कुछ वर्षों सेहाल यह है कि फिल्मकारों की किसी भी संगोष्ठी में चले जाइए सब तरफ से वितरण व्यवस्था के दोष पर बात हो रही होती है। इसमें कोई शक नहीं कि वितरण व्यवस्था में 'रैडिकल” परिवर्तन के बिना सार्थक सिनेमा को

आर्थिक मदद देना कोई अर्थ नहीं रखता। फिल्म कोई किताब नहीं है कि उसे छुपाकर रख देने (या मुफ्त बॉट देने) की 'रिस्क' आसानी से उठाई जा सके। लेकिन

सोचने की बात यह है कि "माया दर्पण”, “उसकी रोटी” से शुरू होकर “गमन” जैसी नई फिल्में अगर बेहतर वितरण व्यवस्था में सामने आतीं, तो क्या इससे हिंदी सिनेमा

की स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन आ जाता? स्थिति को देखने का एक ढंग यह भी हो सकता है कि वितरण व्यवस्था में सुधार आ जाने के बाद तथा राज्य सरकारों की दिलचस्पी बढ़ जाने के बाद ऐसे बहुत से लोग फिल्म कला में सक्रिय ढंग से रुचि ले सकते हैं जोआज चर्चा में नहीं हैं औरअगर चर्चा में हैं तोकिसी दूसरे कला माध्यम में अपने विशिष्ट काम के कारण चर्चा में हैं। परयह तो वितरण व्यवस्था को बदलने के पक्ष में एकऔर मजबूत तर्क ही होगा लेकिन ऊपर हमने जिस सवाल को उठाया है वह यह है कि हिंदी सिनेमा में जो समानांतर सिनेमा बना उसके प्रति दर्शक वर्ग अधिक संवेदनशील और उत्सुक और आशावादी है लेकिन खुद फिल्मकार इस वातावरण में अपने को कुछ अजीब ढंग से अलग पा रहे हैं। इस तरह की फिल्में ज्यादातर गैर-हिंदी भाषी लोगों ने बनाई हैंऔर अगर वे गैर-हिंदी 6 : सिनेमा : कल, आज, कल

भाषी नहीं भी हैं तो वे शुद्ध अंग्रेजी की दुनिया केलोग हैं। अब उनकी फिल्म सत्यजित राय या गिरीश करनाड की तरह किस तरह से अपने दर्शकों में (कम-से-कम एक “मिनिमम” दर्शक-वर्ग में) काफी गहराई तक उतर सके? हिंदी का बुद्धिजीवी यालेखक फिल्म कला में अगर दिलचस्पी लेता है, तो उम्दा संवाद लिखने तक ही उसकी दिलचस्पी सीमित रहती है। यह परंपरा हिंदी

में पुरानी रही है औरसमय-समय पर अनेक लेखक मुंबई में जाकर जम चुके हैं। लेकिन हिंदी के लेखक की जो ऐतिहासिक छवि रही उसमें फिल्म माध्यम कभी

बहुत ठीक से बैठ नहीं पाता रहा है। तकनीकी और संगठनात्मक पक्ष ने हिंदी के लेखक को हमेशा निराश किया है। इसलिए संवाद और पटकथा का काम वह -

अपने ऊपर लेता रहा है लेकिन उसमें उद्देश्य अधिकांशतः चूंकि आर्थिक रहे हैं इसलिए यह दिलचस्पी अंत में घटिया व्यावसायिक फिल्मों केलिए लिखने तक

सीमित रह जाती है और क्‍योंकि हिंदी सिनेमा में अभी ऐसी प्रतिभाएँ सामने नहीं आ सकी हैं जो शुद्ध सिनेमाई कल्पना शक्ति से सक्रिय हों इसलिए लेखक के लिए पटकथा-संवाद का काम भी मन का नहीं रह पाया है। श्याम बेनेगल अगर

विजय तेंडुलकर की जगह हिंदी लेखक के नजदीक रहकर फिल्म बनाते, तो यह स्थिति निस्संदेह बेहतर परिणाम देती, पर श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों का वातावरण

हिंदी क्षेत्र नहीं चुना है औरजब नई फिल्म में वह है भी, तो कहानी की मूल प्रेरणा रस्किन बांड है। यह सही है कि हिंदी सिनेमा की वास्तविक मुंक्ति तभी संभव है जब फिल्मकार खुद पटकथा में भी दखल रखेगा। पर फिर भी फिल्म जैसे बड़े और फैले हुए माध्यम में हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं किपटकथा लेखक

सिनेमा भाषा में दिलचस्पी लेने वाला व्यक्ति होते हुए भी निर्देशक नहीं है। पश्चिम जर्मनी के प्रतिभाशाली फिल्मकार राइनर वेर्नर फासबिंडर ने अपनी फिल्म 'हताशा' (अंग्रेजी में विज्ञापित नाम 'डेसपेयर') के लिए न सिर्फ नोबोकोव का उपन्यास

चुना बल्कि पटकथा प्रसिद्ध ब्रितानी नाटककार टॉम स्टॉपर्ड सेलिखवायी और फिल्म की समग्रता में कहीं ऐसा नहीं दिखता कि शब्द हावी हैं या कि वे पीछे चले गए

है|

फिल्म माध्यम की यह खूबी है कि वह शब्द पर बहुत अधिक आश्रित नहीं रहा है। इस संदर्भ में सेनेगल के चर्चित फिल्मकार उस्मान सेंबेन की एक बात

मुझे यहाँ ध्यान में आ रही है जो उन्होंने अफ्रीकी सिनेमा के संदर्भ में कही थी। अफ्रीका में भाषा की काफी बड़ी समस्या है चूँकि अक्सर एक कबीले से दूसरे कबीले की भाषा में इतना फर्क है कि सिनेमा की किसी ऐसी भाषा को बनाने

में दिक्कत होती है जो 'संदेश' को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचा सके। “डबिंग” और “उप-शीर्षक” आदि समस्या का उचित समाधान नहीं हैं। इसलिए वहाँ

अनेक फिल्मकार चाक्षुष स्तर पर अपनी बात अधिक जोर देकर कह रहे हैं और बिरकुट की खोज में... : 7

संवादों कोकाफी कम कर देना चाहते हैं। सेंबेन जैसे फिल्मकार तो खैर फिल्म की भाषा के फिलहाल 'तात्कालिक इस्तेमाल” में अधिक रुचि ले रहे हैं (वे मानते हैं किहमारी पहली जरूरत अपने लोगों को, उनकी नियति को बदलना है)-लेकिन कुछ साल पहले उनकी एक फिल्म “खाला” भारत में दिखाई गई थी जिसमें कहानी

थी, फिल्म भी थी और वह 'संदेश' भी था जिसमें सेंबेन कीदिलचस्पी है। फिल्म का कथानक एक कंपनी के मालिक के अपने नए विवाद के फौरन बाद नपुंसक हो जाने से संबद्ध था और सेंबेन ने नपुंसकता को प्रतीक रूप में रखकर फिल्म को राजनीतिक स्तर पर भी बहुत अर्थवान बना दिया था। फिल्म की समस्या उपनिवेशवाद से मुक्त होकर भी औपनिवेशिक ढाँचे में नएसमाज के बनने की थी। 'खाला” की चर्चा करके हम यहाँ इसी बात की तरफ इशारा करना चाहते हैं किफिल्म माध्यम में नकल के जितने भी आकर्षण मौजूद हों पर भारत जैसे देश में उसका प्रभावशाली रूप तभी आएगा जब फिल्मकार उसे अपने समाज में एक “कथानक-प्रधान'” ढाँचे में जोड़ेगा और अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो फिल्म का संदेश (जाहिर है हमारा अभिप्राय इस शब्द के संकुचित अर्थ से नहीं है) डिब्बों में बंद पड़ा रहेगा और इस धोखे में भी शायद ज्यादा दिन तक नहीं रहा जा सकता कि हम फिल्मकारों के फिल्मकार हैं। 'फिल्मकारों के फिल्मकार” होते जरूर हैं पर

वे शुरू से हीयह नहीं तय कर लेते कि हम यह होना चाहते हैं। कुछ साल पहले मुंबई की एक संगोष्ठी में एक व्यावसायिक फिल्मकार ने अपने उत्साह में बहुत चमक के साथ कहा था कि इन कला-फिल्मकारों की हालत तो साहब उन वैज्ञानिकों की तरह है जो प्रयोगशालाओं में फार्मूलों औरपरखनलियों की दुनिया में व्यस्त

हैं और हम “एस्प्रो-एस्प्रो"” कहते बाजार में माल पहुँचा रहे हैं (यह बात स्पष्ट है कि इस तरह से तो नहीं ही कही गई थी)। यानी हममें कोई मतभेद नहीं है। व्यावसायिक फिल्मकार और कला-फिल्मकार का यह रिश्ता ऊपर से रोचक भले ही दिखे पर है यह बड़ा खतरनाक। कृष्ण शाह (“'शालीमार' के निर्देशक) ने हाल में पश्चिमी टेलीविजन के लिए एक वृत्तचित्र बनाया है 'सिनेमा सिनेमा'। इसमें मुंबइया सिनेमा के द्वारा भारतीय सिनेमा की एक कहानी कही गई है तमाम

तरह से नई-पुरानी फिल्मों के हिस्से दिखाकर, दर्शकों की प्रतिक्रिया का विश्लेषण करने की कोशिश करके तथा “कमेंटरी” का इस्तेमाल करके ।यह एक अलग बात है कि यह फिल्‍म एम. जी. एम. की “दिस इज़ इंटरटेनमेंट” से प्रेरणा पाकर बनाई गई है पर इस फिल्म की खास बात यह है कि कृष्ण शाह ने उस सिनेमा को छुआ भी नहीं है जो पश्चिम में भारतीय सिनेमा के रूप में जाना जाता है। यानी सत्यजित राय का सिनेमा। कृष्ण शाह का तर्क है कि मैं सिर्फ व्यावसायिक सिनेमा के इतिहास को ले रहा था। (यानी सत्यजित राय का सिनेमा व्यावसायिक नहीं है!) इसलिए राय के सिनेमा केलिए कोई जगह नहीं थी। कृष्ण शाह ने राय को 8 : सिनेमा : कल, आज, कल

एक महान फिल्मकार भी माना (अगर न मानें, तो पश्चिम में रहेंगे कैसे!) फिल्म समीक्षकों केसाथ बातचीत में एक समीक्षक ने शाह से सवाल किया कि क्‍या आपको नहीं लगता कि राय की फिल्मों ने बाद में मुंबइया फिल्मों के थोड़े बेहतर रूप को प्रभावित किया (उन्होंने 'रजनीगंधा” आदि कुछ नाम लिए जो दरअसल राय से प्रभावित फिल्में नहीं हैं) और इस अर्थ में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यहाँ हम कृष्ण शाह के जबाव को महत्त्व नहीं देना चाहते लेकिन इस सवाल का हमारी यहाँ की बहस में महत्त्व जरूर है। यह जानकारी बहुत नई या बहुत पते की नहीं है किकला की उपलब्धियाँ और नुस्खे बाद में व्यावसायिक स्तर पर 'एक्सप्लॉयट' किए जा सकते हैं। इसी तरह से महान फिल्मकारों नेजिन तकनीकी-गैरतकनीकी चीजों का प्रभावशाली इस्तेमाल अपनी फिल्मों में किया है उन चीजों का इस्तेमाल कोई भी औसत या घटिया फिल्मकार बड़े मजे में कर सकता है (दूसरे किसी माध्यम में शायद इतने

सतही इस्तेमाल की गुंजाइश भी नहीं है)। मिसाल के लिए स्टैनली क्युबरिक जैसे फिल्मकारों ने जब शुरू-शुरू में 'फिश आई लैंस” या दूसरे विशिष्ट प्रकार के लैंसों का इस्तेमाल किया, तो बहुत जल्दी ही अनेक मुंबइया फिल्मों में इस प्रकार के तकनीकी चमत्कार बेवजह दिखाई दिए थे। लेकिन फिल्म माध्यम की खास समस्या को अगर इस व्यावसायिक बनाम गैर-व्यावसायिक रूप में देखा जाएगा, तो इसके नतीजे न तो संतोषप्रद होंगे और न ही उनसे अच्छी फिल्मों केलिए जगह बन पाएगी। व्यापक ढाँचे में देखें तो शायद कोई फिल्म गैर-व्यावसायिक नहीं होती (जिस तरह से एक पत्रिका याअखबार हो सकता है!')। जब हम फिल्म को गैर-व्यावसायिक मान लें तो इसका फायदा व्यावसायिक फिल्मकार खूब उठाते हैं। वे गैर-व्यावसायिक फिल्म को साँस भी नहीं

लेने देते। पत्रिका तोआप किसी तरह से कुछ लोगों को पोस्ट कर देते हैं पर फिल्म के साथ आप क्या करेंगे? फिल्म माध्यम बुनियादी रूप से चूँकि ग्लैमर-प्रधान माध्यम भी है इसलिए इसमें कोई शक नहीं किआपकी फिल्‍म डिब्बे में बंद रहकर भी सिर्फ एक-दो महत्त्वपूर्ण दिखने वाले प्रदर्शनों केमाध्यम से अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन सकती है। फिल्म के साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार इतनी तेजी और इतने

पैसे के साथ जुड़ा हुआ है कि चित्रकार भी इस क्षेत्र में पिछड़ गए हैं (हुसेन ने एक भेंटवार्ता में मुझसे कुछ हँसते हुए कहा था कि मैं घोड़े बेचता हूँऔर फिल्में बनाता हूँ!)। प्रतिष्ठित इंटरनेशनल फोडर गाइड ने अपने ताजा वार्षिक अंक में श्याम बेनेगल को वर्ष के पाँच फिल्मकारों में चुना है। मुखपृष्ठ पर रंगीन छवि है और अंदर फिल्मों की विवेचना है...यहाँ कुछ विषयांतर-सा हो रहा है पर बात यह है कि फिल्म माध्यम के तमाम ग्लैमर के बावजूद एक फिल्मकार के लिए अपने दर्शक दूसरी श्रेणी के नहीं होसकते। उसे अपने दर्शकों की परवाह करनी बिरकुट की खोज में... : 9

ही होगी और जब तक अश्लील किस्म के सैटों से चमत्कृत करने वाला सिनेमा भी उतने ही पैसे में उपलब्ध है तब तक दर्शक-फिल्मकार संबंध में और भी पेचीदगियाँ आएँगी ही। फिल्म माध्यम के साथ निस्संदेह पश्चिम में हर तरह का