Kundalini - An Untold Story (Hindi) 9789386348968

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विषय-सूची
यह पुस्तक क्यों?
कुंडलिनी ध्यान की उत्पत्ति
कुंडलिनी — आरंभ
पहला साधक
जागरण
तीन ग्रंथियाँ
शिव व शक्ति का संयोग
देवी का जागरण : वास्तविक साधना
सात चक्रों पर आधिपत्य
मूलाधार चक्र
स्वाधिष्ठान चक्र
मणिपुर चक्र
अनाहत चक्र
विशुदि्ध चक्र
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Kundalini - An Untold Story (Hindi)
 9789386348968

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कुंड लनी एक अनकही कथा

KUNDALINI

ओम वामी

जयको प ल शग हाउस अहमदाबाद बगलोर भोपाल भुबने वर चे ई द ली हैदराबाद कोलकाता लखनऊ मु बई

Published by Jaico Publishing House A-2 Jash Chambers, 7-A Sir Phirozshah Mehta Road Fort, Mumbai - 400 001 [email protected] www.jaicobooks.com © Om Swami KUNDALINI - AN UNTOLD STORY कुंड लनी – एक अनकही कथा ISBN 978-93-86348-96-8 First Jaico Impression: 2017 Translator: Rachana Bhola ‘Yamini’ No part of this book may be reproduced or utilized in any form or by any means, electronic or mechanical including photocopying, recording or by any information storage and retrieval system, without permission in writing from the publishers.

।। ओम ी मा यैः नमः ।। आपके भीतर बसी द ता को सम पत

ात त्थाय साया ं सायाहनात् ातएव तु, य ् ओ म जग मात तद्एव तव पूजनम्. हे जग माता, सुबह के पहले ण से अं तम ण तक और सं या से ात तक म जो भी करता ँ। वह सब आप ही क आराधना है।

वषय सूची यह पु तक य ? कुंड लनी यान क उ प कुं डिलनी — आरं भ पहला साधक जागरण तीन ंिथयाँ िशव व शि का संयोग देवी का जागरण : वा तिवक साधना सात च पर आ धप य मूलाधार च वािध ान च मिणपुर च अनाहत च िवशु द्ध च आ ाच सह ार च शद पा रभािषक श दावली

यह पु तक य ?



क म हला आ म म मुझसे भट करने आ । वे च के वषय म पूरी जानकारी रखती थ । उनका वा तु, फग शुई और टै रो म पूरा व ास था। वा तव म, यह भी कह सकते ह क यही उनके ापार के साधन भी थे। उस दन वे थोड़ी च तत थ य क एक स ‘च वशेष ’ ने उनसे कहा था क उनके च सही ढं ग से घूम नह रहे और इसी वजह से उनके काम पर बुरा असर पड़ रहा था। “जी, या कहा आपने? फर से क हए!” मने कहा, “आपके च का या सही नह है?” “ पन यानी वे सही तरह से नह घूम रहे, मेरे च का पन सही नह है।” उ ह ने उ र दया। “आप या है?” मने दबी हँसी के बीच कहा, “आप कोई मोटरकार ह जो आउट ऑफ पन हो गई है?” वे समझ नह पा क म गंभीर था या मज़ाक कर रहा था, वे थोड़ा असहज भाव से मु कुरा । म मज़ाक नह कर रहा था, हालाँ क कुछ सैकड के लए म चुपचाप हँसा। दरअसल, मुझे उनक अ ानता पर अफ़सोस भी आ, क उन जैसे सभी साधक के साथ ऐसा ही होता है, जो अ सर ‘च वशेष ’ क बात के जाल म आ जाते ह। “तो, इसके अलावा उ ह ने और या बताया?” मने पूछा “उ ह ने कहा है क मुझे च वाला लॉकेट गले म पहनना चा हए और एक ख़ास तरह क धूप-अगरब ी जलानी चा हए।” “ठ क, उससे या होगा?” “ फर मेरे च का संतुलन बन जाएगा।” फर उ ह ने मुझे दखाने के लए लॉकेट बाहर नकाला। जो क काफ़ महँगा दख रहा था। सफ़ेद रंग के सोने से बनी चार कमल पंखु ड़य के बीच एक बड़ा सा नग जड़ा था और पंखु ड़य पर प े, मा ण य, धया प थर व पुखराज़ जड़े ए थे। “उनके अनुसार इसे मेरे दय को पश करना चा हए।” “यह आपके दय को पश तो कर रहा है, पर यह इससे यादा आपके लए कुछ नह कर रहा। या म ठ क कह रहा ँ?” उनके चेहरे से सारे भाव कह खो गए और आँख कुछ नम हो ग । उनके ह ठ कुछ तरछे से हो आए।

“ऐसा य है, वामी जी? मने तो इस चीज़ पर इतना पैसा लगाया है।” “वीना! ये सब नराधार बात ह!” वे थोड़ी मायूस और नाराज़ दखाई द , मानो कसी ने उ ह हीरे के दाम म चमकता आ प थर थमा दया हो। “पर मुझे तो लगता था क च वा तव म होते ह।” “बेशक! च तो वा तव म होते ह, वीना!” “ फर?” “म केवल यह कहना चाहता था क ये च का संतुलन और ज टल भाषा का जाल तो केवल लोग को मूख बनाने के लए है। कुंड लनी को जा त करने का एकमा उपाय यही है क आप लंबी अव ध तक यान साधना कर, एकमा यही स य है।” “तो या च पडट मेरे लए इस साधना क ग त को नह बढ़ा सकता?” मने कहा “अगर आप नौ म हला को एक साथ गभ धारण करवा द और पहले ही माह म सव भी, तब शायद संभव है क आप इतनी ही तेजी से अपनी कुंड लनी भी जागृत कर सकती ह।” “ वामी जी! या ऐसा करना संभव है?” म खल खला कर हँस पड़ा। म मन ही मन सोचने लगा, कतनी हैरानी क बात है, हम लोग भी ना जाने कैसी-कैसी बात पर व ास करने के लए राजी हो जाते ह। केवल वीना का ही मामला ऐसा नह है। मेरी ऐसे कई साधक से भट होती है जो अपने लए तुरत-फुरत समाधान पाना चाहते ह। मुझे तब ं यमय लगता है जब लोग कसी ब त ही साफ-सुथरी जगह पर जाते ह, जहाँ पर धीमी सी रोशनी म कोई छोट सी परंतु महंगी शव या बु तमा कोने म रखी है। उसके आगे एक छोटा सा द या टम टमा रहा होता है। वातावरण म भीनी-भीनी सुगंध होती है और ह का सौ य संगीत बज रहा होता है और वे मुझसे कहते ह, “ओह, वामी जी, या आप इस थान क ऊजा को अनुभव कर पा रहे ह?” म मु कुरा कर उनक बात टाल दे ता ँ, पर वे कस ऊजा क बात कर रहे ह, मुझे इसका ज़रा सा भी अंदाज़ा नह हो पाता। हाँ, आप बेहतर महसूस करते ह, आपको अ छा लगता है, पर इसका आपके च या ऊजा से कोई लेन-दे न नह है। यह तो उस थान का नजी प रवेश है, इससे तो बेहतर होगा क आप कसी आयुव दक पा म अपना समय बताएँ, कम से कम आपको अपने पैस का मोल तो मलेगा, वहाँ वे आपसे एक ाहक क तरह पेश आएँगे और आपको कसी ऐसी बेचारी, अनजान गाय समझ कर हा नह जाएगा, जो शायद कसी सरे के खेत से भटक कर, आपके यहाँ आ गई है। च ेसलेट, लॉकेट, अगरब याँ, मैट, कालीन, व , द वार पर लटकाने वाली त वीर, च संगीत, व अ य ऐसे साधन व साम ी का, च क वा त वक साधना से कोई संबंध नह है। जो भी कोई, आपको या आपके माथे को (या जहाँ भी) छू कर, आपक कुंड लनी जा त करने का दावा करता है, वह झूठ बोल रहा है, भले ही वह दखने और सुनने म कतना भी असली और क़ र माई य न हो।

इसके बाद ऐसे लोग आते ह, जो आपके च को दे खने या पढ़ने का दावा करते ह। वे भी आपको मूख बनाना चाह रहे ह। कसी के च दे खने का सू म से कोई संबंध नह है। जब च क बात आती है, तो इसम दे खने या पढ़ने वाली कोई बात ही नह है। आपके च कसी पु तक के पृ नह ह, ज ह कोई भी पढ़ सकता है। लोग तो च के खुलने या बंद होने क बात इस तरह करते ह मानो वह कसी ब कुट के जार का ढ कन है, जसे कभी भी, आसानी से खोला या बंद कया जा सकता है। आपक रीढ़ क हड् डी म ऊपर क ओर जाने वाली सरसराहट के एहसास का कुंड लनी के जागरण से कोई संबंध नह । य द ऐसा लगातार होता रहे तो कसी नायु वशेष को दखाएँ! आपने भी सुना होगा क कस कार येक च के लए सु न त पंखु ड़याँ, वशेष वण, व भ कार के इ दे व, अनेक सहायक इ , व भ आकार आ द होते ह। म आपको बताना चाहता ,ँ ये सब अनाव यक ज टलताएँ ह। च के वा त वक स य क समझ तो पूरी तरह से अलग बात है। “न पम् अ येह तथोपल यते ना तो न चा दर् न च स तस्त्हा अ थम् एनम् सु व ढमूलम् असत गश न्अ ढ ् े न छ वा ततह् पदम् तत् प रमा गत म् य मन् गता न नवत त भूयह् तम् एव चा म् पु स्अम् प े यतह् व् ह ता ् पुरानई” (भगवद् गीता : 15, 3, 4) “इस संसार पी वृ के वा त वक प का अनुभव इस जगत म नह कया जा सकता य क न तो इसका कोई आ द है, न तो कोई अंत और न ही कोई आधार है, अ यंत ढ़ता से थत इस वृ को केवल वैरा य पी ह थयार से ही काटा जा सकता है।” वैरा य पी ह थयार से काटने के बाद मनु य को उस परम ल य के माग क खोज करनी चा हए, जस माग पर प ँचा आ मनु य फर इस संसार म कभी वा पस नह लौटता, फर मनु य को उस परमा मा के शरणागत हो जाना चा हए, जस परमा मा से इस आ द र हत संसार पी वृ क उ प और व तार होता है।” यही कुंड लनी का पूरा स य व च क वा त वकता है। आपने अब तक जो भी सुना, दे खा या पढ़ा होगा, वह सच नह है, कम से कम पूरा सच तो नह है। जस ण म आप च को बेधने का अनुभव या कुंड लनी के जागरण के बारे म जान लगे, तो आप परमानंद क उस अव था म आ जाएँगे, जस ब से कोई वापसी नह है। म खन के प म मथे गए ध को, फर से ध म नह बदला जा सकता। ठ क उसी तरह, जब आप स ची कृ त को जान लेते ह, तो भले जो भी हो जाए, आपक पुरानी वृ याँ व नकारा मक भाव आपको सदा के लए छोड़ दे ते ह। सभी जीव के क याण के त आपके दय म वयं ही नः वाथ भाव उ प हो जाता है। आप वयं से ही बाहर हो जाते ह। ऐसा नह क उस समय अगर कोई आपको मारेगा तो आपको चोट नह लगेगी। बेशक़, आपको क होगा, पर अब आप पहले क तरह, उस पर ो धत नह

ह गे, जसने आपको क दया। कुंड लनी के जागने का अथ है क अब आप अपने भीतर बसे परमानंद और सहजता क अव था तक जा रहे ह। यह अव था दस परत से ढक है — इ छा, ोध, लोभ, मोह, अहं, जुनून, ई या, घृणा, भय तथा वाथ। जब आप आ या मक प से उ त होते ह तो इन परत से उबरने लगते है। इन आवरण को भेदने के बाद ही भीतर से आपका असली प सामने आता है। आपके भीतर का सच, क और ःख, अ छे -बुरे और नै तक-अनै तक के ै त से परे है। जागृ त, कुंड लनी साधना के पथ पर एक धीमी और थर या है। यह कोई ऐसा आ मबोध नह , जो एक ण म कट हो जाए। यह उ प होता है और फर धीरे-धीरे आपके भीतर वक सत होता है। जागृ त के येक तर के साथ, आप अपने भीतर के प रवतन को पहचानते ह और अपने भीतर क वृ य का याग कर पाते ह। कुंड लनी व ान एक ाचीन व ा है, जसे सुयो य साधक को, कड़े अनुशासन के बीच, मौ खक वधा के साथ स पा गया। यह व ान आज भी पूरी तरह से बरकरार है। केवल ऐसा चा हए जो कड़े समपण और ढ़ता के साथ इस पथ पर चल सके। आइऐ, म आपको ोत क ओर ले चलता ँ, जो ान जड़ म पाया जाता हो, उसे आप प य के मा यम से कभी नह समझ सकते। आप शाखा से मत न ह । फल को दे ख कर पथ न ह । आपको केवल जड़ को स चना है, और पूरा वृ आपका होगा।

े वतमान अ त व धारण करने से ब त समय पूव, धरती एक सुंदर ह मे रेथाऔरजसआपक पर वन , वन प तय , पशु जगत तथा हज़ार क सं या म झील व न दय

क ब तायत थी। लगभग नौ सौ करोड़ काश वष क री पर, तार के बीच, एक समानांतर जगत था, जसम धरती जैसा एक ह भी था, जो क पृ वी से पाँच गुना वशाल व कह अ धक सुंदर था। धरती जैसे दखने वाले इस ह के सौर मंडल का सूय, हमारे सूय से आकार म गुना था। दन और रात लंबे थे। इसके वन म वशालकाय हसक जानवर मु भाव से वचरते थे, जो हमारे सागर से भी कह व तृत थे। हमारे हमालय से लगभग आठ गुना वशाल हमालय पूरी तरह से हमा छा दत था। उस हमालय पर, सबसे वशाल, व तृत तथा ऊँची पवत शृंखला कैलाश कहलाती थी। कैलाश ही वह थान था, जहाँ शव अपनी वामांगी सती के साथ वास करते थे व यान म थत रहते। कुछ ऋ षय का कहना था क उनका ज म सृ क रचना के समय, व तथा तूफान से आ, जब क कुछ का कहना था क वे कसी सरे ह्मा ड से थे और उ ह ने कैलाश को अपना धाम बना लया था। शव अपनी यौ गक श य के बल पर ही सदै व युवा, आकषक तथा मनमोहक बने रहते। एक बार सती के पता, स राजा द ने ऐसा भ और महान य रचाया क तीन युग म कसी ने नह सुना था। इस महा यसा य य म ह्मा, व णु, इं , वसु, आ द य तथा अ य असं य दे व को भी आमं त कया गया। वयं महान बृह प त य के मुख ऋ वक थे, वे मं के उ चत उ चारण से ले कर, वहाँ बनाए गए एक लाख य कुंड म डाली जाने वाली य साम ी आ द तक, सभी प का नरी ण वयं कर रहे थे। सारा वातावरण शंख तथा सं कृत मं क सुमधुर व नय से गुंजायमान था, जो द वै धनवंत र ारा तैयार कए गए अमृत से अ धक फू तदायक तथा इं लोक म परोसी जाने वाली म दरा से कह अ धक मदो म कर दे ने वाले थे। अ त थय को हर कार क सुख-सु वधा दान करने के लए वशाल ढाँचे तथा भवन तैयार कए गए थे जनम वला सता क हर साम ी मौजूद थी। य शाला भी अपने-आप म कसी अतुलनीय महल से कम नह थी, जसम बैठने के लए अनेक खुले तथा छतदार थान थे। व तृत माग पर, ेत व अ ेत अ असं य रथ को लाने-ले जाने म जुटे थे ता क अ त थ आसानी से आवागमन कर सक। य द हमारे वतमान समय के अनुसार गणना क जाए तो कहते ह क पहले य कुंड से अं तम य कुंड तक जाने म ही सात दन का समय लग जाता था। जहाँ सभी दे वगण, द के यहाँ द आनंद म म न थे। शव कैलाश पर मौन भाव से यान रमाए बैठे थे। यह सती को अ छा नह लगा। सती ने त नक संकोच से पूछा, “मेरे भु! या हम मेरे पता के य म शा मल होने नह जाना चा हए?” हालां क वे जानती थ क शव हर बात को गहराई से जानते थे। “नह सती!” शव ने अपने एक गंभीर वर म कहा जैसे क गंगा उनक उलझी

जटा से हो कर बह रही हो, “एक स मा नत को कह भी बना आमं ण के नह जाना चा हए।” “परंतु, वे तो मेरे पता ह, भु!” उ ह ने धीरे से कहा। “वे हम आमं त करना भूल गए ह गे।” शव ने नेह से कहा, “हे भ े , तु हारे पता शव को पसंद नह करते य क शव सव े ह तथा कसी भी परंपरा से परे ह।” सती ने एक बार फर से जोर दे कर कहा, “कृपया, या हम जा सकते ह, मुझे अपने प रवार से भट कए कई स दयाँ बीत गई ह।” “सती, य द तुम जाना चाहती हो तो जाओ, शव नह जाएँग।े ” इस कार उ ह ने अपने ने मूँदे और पुनः यानम न हो गए। सती अपनी इस इ छा को दबा नह सक , उ ह ने जाने के लए अपने सबसे सुंदर रेशमी व धारण कए और सबसे ब मू य आभूषण पहन कर, शव के गण को बुलाया, ज ह ने तुरंत उनके लए उड़ने वाले रथ क व था कर द । कई मील क री से भी सती वायु म ा त सुगं ध को अनुभव कर सकती थ । उ ह मं जाप, शंख, वीणा तथा मृदंग के वर सुनाई दे रहे थे। उ ह अभी से शव क याद सताने लगी थी परंतु वे यह भी जानती थ क शव ने वही कया, जो उ ह करना चा हए था। जब वे य शाला के नकट प ँच तो भ ता क सराहना कए बना नह रह पा । ऐसा य तो जैसे उ ह ने पहले कभी दे खा ही नह था। जब वे रथ से उतर तो, सकड़ दा सयाँ उनक ओर लपक , उनक सती आई थी, जो एक समय पर उनक राजकुमारी थी। उ ह ने सती को ऐसे पु प क मालाएँ पहना , जो कभी म लन नह होती थी। उ ह ने सती के माग म गुलाब क पंखु ड़य तथा कमल क वषा क । कुछ हमालय के राजहंस के पंख से बने चवर डु लाने लग , कुछ दा सय ने उ ह पान-सुपारी पेश कया, कुछ इ छड़कने लग । जब सती आगे बढ़ तो बड़े-बड़े शंख फूँके गए और गंधव ने उनके वागत म गायन तुत कया। सती अपनी माता और बहन को खोजते ए यहाँ-वहाँ घूमने लग । उ ह ने दे खा क दे व व तथा उनक प नय के लए ब त आलीशान आसन रखे गए थे। वे बड़ी ता तथा कौतूहल के साथ शव के आसन क खोज करने लग कतु वहाँ शव के लए थान ही नह था। उनका दय ःख से डू ब गया। उ ह ने सोचा, “ या ऐसा अनजाने म आ होगा?” उ ह इस बात से सां वना मली क शव उनके साथ नह थे अ यथा उनके रोष से सब कुछ ण भर म न हो जाता। इस दौरान, रानी सू त ने सती को दे ख लया और वे अपनी पु ी क ओर दौड़ । उ ह अपनी चौबीस पु य म से, सती से सबसे अ धक नेह था य क वे जानती थ क सती कोई और नह , वयं आ द श का अवतार थ । द ने सू त को बीच राह म ही रोक लया तथा सती का वागत करने से मना कर दया। सती अपने पता के ऐसे वहार को दे ख त ध हो उठ , फर भी वे उनके चरण पश करने के लए झुक । परंतु वे पीछे हट गए।

अचानक संगीत बजना बंद हो गया और वहाँ पर उप थत सभी लोग द क ओर दे खने लगे जो क ब त कठोर अहं भाव से, भुजा को पीछे करके और पैर को थोड़ा खोल कर खड़ा था। कुछ ण के लए, वे मौन रहे। जब सती को लगा क उनके पता बोलने क पहल नह करगे, तो वे बोल : “ पता जी, मुझे कहाँ थान हण करना है? मुझे शव तथा अपने लए कोई थान या आसन दखाई नह दे रहा।” द उपहास करते ए बोले, “उस भ ुक के लए थान? यह एक शाही उ सव है, भखा रय और साधु के लए भोज का आयोजन नह कया गया।” “ पता जी” सती तेज़ वर म बोल । “तुमने यह सोचा भी कैसे क म शव जैसे अघोरी को यहाँ आने का यौता ँ गा?” द ने वषवमन करना जारी रखा, “ जस दन तुमने उस न न, भ म म लपटे व च से ववाह कया था, मने उसी दन तु हारा प र याग कर दया था। केवल उसके जैसा रंक ही अपनी प नी को बना आमं ण के, कसी के यहाँ भेज सकता था।” “ पता जी!” सती च ला । “ शव दे व के भी दे व ह।” “मेरी बला से,” द च लाए, “वह तो अपने जंग खाए शूल के साथ मेरे अ तबल का हरी बनने के यो य भी नह है। वह वकृत, अधनंगे, भूत, ेत तथा शमशानवा सय का ही चहेता है।” सती ने अपने गुलाबी व कोमल हाथ से, आभूषणमं डत कान ढाँप लए। उनका चं मा के समान गौरमुख र म हो उठा और आँख से अ ु धारा वा हत होने लगी। सती ने एक स ची प त ता क तरह, केवल एक ही से ेम कया था, और वे शव थे। आ द श क अवतार, वयं परम ऊजा, सती अ छ तरह जानती थ क शव लोक के वामी थे, एक शा त आ द योगी, जो वनाश और न रता से परे थे। शव के लए ऐसे कठोर वचन सुन कर वे अपराध बोध से भर ग , उ ह लगा क उनके हाथ उनका प त त धम खं डत हो गया है। उसी एक ण म सती को एहसास आ क सव ानी शव ने उ ह य म शा मल होने से य रोका था। शव के साथ अपने वातालाप को मरण करते ए, उ ह प त क बात न मानने का प ाताप होने लगा। उ ह लगा क उ ह ने शव का अपमान कया था और उनके दल को ठे स दे ने के बाद, सती को जी वत रहने का कोई अ धकार नह रह गया था। “द !” सती क आँख अंगारे उगल रही थ । वै दक मं जाप बंद हो गए थे और सती क पुकार से सारा ह थरथरा उठा। “ कसी भी लोक म आज तक, कसी ने भी शव के लए इस तरह बात करने का साहस नह कया। मुझ पर ध कार है क मने उनके बारे म ऐसे अपमानजनक श द सुने। द , तु ह इसका दं ड भुगतना होगा।” और उसी एक ण म, सती ने अपनी योग श के बल पर, अपने शरीर को भ म के ढे र म बदल दया। दे वगण काँप उठे । दं भी द भी भयभीत तो आ परंतु उसने अपना भय कट नह होने दया।

बृह प त बोले, “द ! आज तक तुमने जो भी जाना, अब उस सबका अंत हो जाएगा।” “ ँह! एक क सेना मेरा या बगाड़ लेगी? म तो—।” बृह प त ने अपने हाथ के संकेत से द को सावधान रहने को कहा य क वे शव के वषय म एक भी नदाजनक वा य नह सुनना चाहते थे, वे शव क अनुकंपा से ही तो सबसे बु मान, बृह प त के पद तक प ँचे थे। सती के साथ जो गण आए थे, वे झट काश क ग त से कैलाश रवाना हो गए और भगवान महादे व क तु त करके उ ह यानाव था से बाहर ले आए। शव ने कोमलता से अपने वशाल ने खोले। गण ने उ ह दं डवत णाम कया और भय से थराते ए, द के य थल पर ई घटना का वणन कया। शव ोध से अपने थान से उठ खड़े ए। उनका दाँया हाथ अपने शीश तक गया, उ ह ने अपनी जटा से एक लट उखाड़ कर, उसे धरती पर पटक दया। य ही लट धरती पर गरी, उससे एक वशालकाय जीव सामने आ खड़ा आ। वह शव का एक भयंकर गण, वीरभ था। कोयले के समान काले वीरभ क आठ भुजाएँ थ , जनम से येक म श पकड़ा आ था। शव ने उसी भाव म, अपनी एक और लट उखाड़ कर धरती पर फक । इस बार भ काली कट ई, जो दे वी का भयंकर और आतंक प माना जाता है। अमाव या क रा के समान काली, भ काली क अठारह भुजाएँ थ जनम शंख, च , कमल, गदा, शूल, भाला, कृपाण, खड् ग, व , रा स का कटा शीश, याला, अंकुश, जलपा , बड़ा चाकू, ढाल, धनुष और बाण थामे ए थे। शव ने द के य थल क दशा क ओर संकेत करते ए आदे श दया, “सवनाश!” उ ह ने अपना डम उठाया और उसे ज़ोर-ज़ोर से बजाने लगे। प ी घ सल म जा छपे, ब ख तथा गौ के गभ गर गए, वृ उखड गए, सागर का जल उमड़ पड़ा और डम क येक थाप के साथ असं य ऊजाएँ कट होने लग । भ काली के अठ् ठहास से पवत के खंड हो गए और ले शयर टू ट गए। महा दे वी क आठ सहायक श याँ यु म उनका साथ दे ने आ ग । वे थ — काली, का यायनी, चामुंडई, ईशानी, मुंडम दनी, भ ा, वै णवी व व रता। भगवान शव ने नटराज व प धारण कर वनाश का तांडव नृ य करना आरंभ कर दया, और ज द ही, असं य गण ने भयंकर और वनाशकारी प धर लए। “हर हर महादे व!” वे एक साथ गरजे। वीरभ तथा भ काली, गण स हत, द के य थल पर जा प ँचे और अपने माग म आने वाली हर व तु तथा का नाश कर दया। अनेक दे व भाग खड़े ए और कईय ने छप कर अपनी ाण र ा क । कुछ ने संघष करना चाहा परंतु वे एक ण के करोड़व ह से तक भी, उन गण का सामना नह कर सके। शेष दे वगण जानते थे क यह नरथक था, शव का सामना करना कसी के वश म नह था, भले ही वे जाप त द का साथ दे ना चाह पर वे कुछ नह कर सकते थे। शव के गण व ेत ने सवनाश को इस तरह जारी रखा जैसे जंगली हाथी, ब गया म लगे पु प को र द कर न कर दे ते ह। वे

दे व को नह , द को मारना चाहते थे। द के अपमानजनक वहार ने ही शव और सती को कु पत कर दया था। द के अहंकार ने उनसे उनक पूजनीया दे वी को छ न लया था। वीरभ ने द को खोज नकाला, जो अपनी सेना को आ मण करने का आदे श दे रहा था। एक लंबी छलांग म, वीरभ उस तक जा प ँचा। उसके सामने जाते ही, मुँह से एक श द कहे बना या कसी चेतावनी के बना ही, शव के आदे श का पालन करते ए, एक ही झटके म द का संहार कर दया। परंतु गण ने सवनाश जारी रखा। दे व भयभीत थे क कह यह समय का अंत तो नह था, वे अपने प रजन स हत शव के पास गए और उनक क णा और दयालुता का गुणगान करने लगे। इसी बीच कुछ ही ण बाद, धरती के कुछ हज़ार वष तीत होने वाले थे, शव शांत हो गए परंतु उ ह ने कसी से बात नह क । वीरभ , भ काली, अ य दे वयाँ व गण शव म आ कर लीन हो गए और वे वहाँ शांत भाव से बैठे रहे। दे व जानते थे क केवल शव ही कृ त म संतुलन पैदा कर सकते थे और उ ह यान क अव था म जाने से पहले यह करना ही होगा य क शव का यान कई हज़ार वष तक चल सकता था। उ ह ने उनसे आ ह कया क वे द को मा कर द। उनके कहने पर, शव य थल पर प ँच।े वह थल एक र नात यु े म बदल गया था। असं य दे व, उनके प रचारक, अ , हाथी आ द मृतक हो चुके थे। रानी सू त शव के चरण म गर कर मायाचना करने लग क उनके प त को जीवनदान दया जाए। शव ने उ ह उठा लया, जो भी हो, वे सती क माता थ । उ ह ने यहाँ-वहाँ दे खा तो एक थान पर द का कुचला व कटा आ शीश दखा; वीरभ ने उसे पैर से कुचल दया था। केवल उसके समीप पड़े मुकुट से ही पता चल रहा था क वह द का शीश था। शव ने एक ब लकम के लए यु बकरे का सर लया और उसे द के धड़ पर लगा कर, उसे जीवनदान दया। उ ह ने अपनी दे ह पर हाथ मल कर थोड़ी भ म उतारी और उसे हवा म उड़ा दया। सती को छोड़ कर, सभी मृतक पुनः जी वत हो उठे । शव जानते थे क सती उनके लए पुनः शु होना चाहती थ य क उ ह लगा था क प त से बहस करके, उ ह ने सव शव के त अपने प त त धम का पालन नह कया था। वे जानते थे क अभी सती को पावती के प म पुनः ज म लेने के लए कुछ हज़ार वष का समय लगेगा और गहन तप या के बाद ही सती फर से उनक प नी बन सकगी। शव कैलाश पर लौट गए, अपनी यौ गक मु ा म आने के बाद, वे गहन यान म खो गए। वे अपनी यानम न अव था को उस ब तक ले गए, जहाँ से कोई वापसी नह होती।

पावती का ज म समय बीतने लगा, तारकासुर नामक रा स ने दे वलोक को जीता तथा अ य सभी लोक को भी अपने अ धकार म ले लया। तारकासुर ब त ही श शाली तथा अजेय था। उसने हज़ार वष तक ऐसी कड़ी तप या क थी क ा को उसके आगे कट होना ही पड़ा।

द के य का व वंस हो चुका था। तारकासुर जानता था क सती अपने ाण दे चुक थ और शव उनके अ त र कसी को अपनी प नी के प म वीकार नह करगे। उसने ा जी से वरदान माँगा क उसक मृ यु शव जी के पु के अ त र कसी के हाथ न हो सके। महादे वी का सती का ज म, हमालय के राजा हमवान तथा उनक रानी व वग य अ सरा मेना के यहाँ पावती के प म आ। पावती ने गहन तप या के बाद शव को प त के प म पाया। हमवान द क तरह नह थे, वे ब त ही वनीत और यायी शासक थे। उ ह ने पूरे दय से अपनी पु ी के चुनाव को वीकारा। जब शव ने पावती को अपनी प नी के प म वीकारा, तो योगी पुनः अपनी यानाव था म लौट गए। दे व ब त ास म थे। वे चाहते थे क शव और पावती के संयोग से उ प पु , तारकासुर का वध कर, उनके ख का अंत करे। परंतु शव को उनके यान से कौन जगा सकता था? वे घुटन के बल जा कर बैठे और पावती से आ ह कया क शव के यान को भंग करते ए, उ ह सहज व सामा य अव था म ले कर आएँ। जब पावती ने इसका कारण जाना तो वे लजा कर बोल क कोई भी प त ता ी, संभोग के लए अपने प त का यान नह भंग करेगी। इसके अ त र , उ ह यह भी पता था क य द शव को यह उ चत लगता तो उ ह ने ब त पहले ही ऐसा कर लया होता। उ ह ने परामश दया, “उनक आराधना कर। वही आपके मन म वजयी होने के लए समु चत वचार उ प करगे।” दे व ने ऐसा ही कया, परंतु कुछ समय बाद उनके मन म एक वचार आया। उ ह ने ेम के दे वता म मथ को शव के पास भेजा जसने शव म इ छा जागृत करने के लए, उन पर पाँच ेम बाण चलाए। जब वे बाण शव को लगे तो वे अ स हो उठे । उ ह ने अपना तीसरा ने खोला और म मथ वह भ म हो गया। अचानक, सारे संसार म नजनता छा गई। ेम नीरव हो उठा य क कोई भी ी या पु ष एक- सरे को छू ना ही नह चाहता था। प य तथा पशु क संतान उ प होनी बंद हो ग य क म मथ के अभाव म, उनके भीतर से वासना और इ छा ही समा त हो गई थी। दे वगण म मथ क प नी र त के साथ शव के पास गए और उनसे आ ह कया क वे उसे पुनः जी वत कर द। म मथ तो भ म हो चुका था। शव जी ने वरदान दया क म मथ को पुनः जी वत नह कया जा सकता था इस लए, अब वह सभी सजीव ा णय के भीतर, बना दे ह के वास करेगा और अनगं कहलाएगा। इस तरह वह उनके भीतर इ छा को जी वत रखेगा। र त ने शव से आ ह क वे म मथ क दे ह भ म पर कम से कम एक यौ गक तो डाल ता क उसे वहाँ से ले जाया जा सके। शव ऐसा करना नह चाहते थे पर र त अपने हठ पर अड़ी रही। य ही उ ह ने राख के ढे र पर नज़र डाली, उसम एक आकार पैदा हो गया। वह भांडासुर नामक रा स था जसने शो णतपुर को अपना आवास बनाया। उसने दे व पर अ याचार करना आरंभ कर दया। दे व ा ह- ा ह कर उठे और नारद मु न क शरण ली जसने उ ह य करने का परामश दया। मु न बोले, “यह सब एक य से ही आरंभ आ था और यह वह समा त होगा। अब

केवल परम दे वी ही सहायक हो सकती ह।” दे व ने एक भ य का आयोजन कया और य क अ न से महा पुर सुंदरी के प म दे वी कट । वह एक अद्भुत प था: गौर वण, चारभुजाधारी, सुगं धयु , सुंदर, मनमोहक तथा क णामयी, य प उनके हाथ म म मथ के पाँच शर, एक अंकुश, धनुष व एक बाण भी था। दे व नह जानते थे क उ ह स कैसे करना है। उ ह ने अपनी अ ानता वीकार करते ए, दे वी से आ ह कया क वे ही अपने वागत का तरीका बताएँ। दे वी माता ने अपनी आठ सखी ऊजा को बुलाया ज ह वा दे वयाँ कहा जाता था। वे वही थ जो भ काली के समय म भी कट ई थ । वे दे वी के व वध व प क सा ी रही थ । वा दे वयाँ, दे वी को उनके एक हज़ार नाम के साथ संबो धत करते ए, उनक तु त करने लग । ज ह ल लता सह नाम के नाम से जाना जाता है। उ ह ने सुमधुर वर म, आदर भाव के साथ अपनी तु त आरंभ क : “ओम् ीमाता ीमहारा ी ीम स हासन्ए री, चद नकु डस भूता द्एवकाय समुदयता.” (ल लता सह नाम, 1) हे दे वी, प व माता, आप ही अनंत शरण थली ह, जनसे आ य पाने क हम कामना करते ह। आप सारे जगत क महारानी ह, जो पूरी भ ता के साथ अपने सहासन पर वराजमान ह। हे माता, आप के म त क क शुदधता ् पी अ न से उ प क याणकारी इ छा क पू त के लए ही कट ई ह। आठ वा दे वयाँ दे वी क तु त करती रह । और यह , ल लता सह नाम म, पहली बार कुंड लनी तथा च का वणन आता है। सभी ंथ , ट का व सं हता से पूव, यह सबसे पहले कुंड लनी क चचा करते ए, उसे मूल ऊजा, दे वी के सौ य नराकार प के प म कट कया गया है। म अपने श द को पराग क तरह यहाँ-वहाँ बखरने नह ँ गा, और न ही मेरे वा य दशाहीन खरपतवार क तरह उगगे। मने पूरी सावधानी, सजगता व सतकता के साथ, आपको कुंड लनी क पृ भू म क कथा से अवगत कराया य क द के य से ले कर दे वी के कट होने के बीच ही, च क साधना का रह य छपा है। च पर ऐसी कोई साम ी नह बची, जसका मने अ ययन न कया हो। य द आप केवल श द क ा या म च रखते ह, तो आप उ ह पढ़ कर ब त सारी जानकारी बटोर सकते ह। इस कार समकालीन पाठ् य तथा सैदधां ् तक जानकारी दे ने वाले ान क उपे ा करते ए, मने इस पूरे ंथ को केवल ल लता सह नाम पर ही आधा रत कया है य क इस उपा यान म कुंड लनी साधना क सभी बाधाएँ तथा मील के प थर उसी तरह समाए ह, जस तरह ध म म खन छपा रहता है। इस पु तक म मेरे श द, केवल उनके लए ह, जो केवल पढ़ने म च नह रखते परंतु

वा तव म, वयं कुंड लनी का अनुभव पाना चाहते ह। जहाँ तक मेरा है, मने दो दशक से भी अ धक समय तक, दे वी के साकार और नराकार प को पूजा है। मने वै दक और तां क प से उनका मरण कया है। मने उ ह दे खा है, म उनसे एक प आ ँ, उ ह अपने अ त व के रोम-रोम म पाया है। हमालय के वन म, शमशान घाट म, गुफा-कंदरा म, वृ के नीचे तथा नजन थान पर, म उनक ममतामयी गोद म खेला ँ, मने उनके युवा प के साथ मनोरंजन कया है। य द आपको ऐसा होने म संदेह है तो म आपको परामश ँ गा क आप इस पु तक को पढ़ना छोड़ और कुछ ऐसा पढ़ जस पर आप व ास कर सक, हो सकता है क आज का समाचार प या फर कुछ ऐसा जसे आपका सजग मन वीकार कर सके, समझ सके। यह काय मेरे य अनुभव पर आधा रत है और म आपके आगे च का स य य का य रख रहा ँ, इसम कह कोई अ त यो नह है। व णु के एक प, अ के शीश वाले ह्य ीव भगवान ने ल लता सह नाम का ान मु न अग य को स पा ता क इस ह पर तथा अ य समानांतर ह पर मानव जा त का क याण हो सके। तो, आपको इस पु तक म जो भी मलेगा, वह सीधा अ के मुख से आप तक आया है, आप मेरा भावाथ समझ रहे ह, न? दे वी क म हमा अ ु ण रहे!

उ साह व आदर भाव स हत, भगवान ह्य ीव ने, ल लता सह मान के प म अ सीम दे वी क म हमा का वणन आरंभ कया। महान ऋ ष अग य भ भाव से

वग लत होते ए, अपने ही अ ु से भीग गए। उ ह ने भु का आशीवाद चाहा ता क वे गहन तप या करते ए, दे वी के द व प को अनंत काल तक अपनी मृ त म बनाए रख सक। “तथा तु!” ह्य ीव बोले तथा उ ह दे वी के सह नाम को जपने का वशेष अ धकार दान कया। ऋ ष अग य को सव थम ल लता सह नाम जप के लए द ा दान क गई। वे जानते थे क द ा के अभाव म, वे एक बीजर हत फल के समान थे — संपूण कतु भावी वकास से र हत! अग य ने पूरी न ा व आभार स हत अपने गु ह्य ीव के आगे म तक टे का। “परंतु,” ह्य ीव ने चेतावनी दे ते ए कहा, “दे वी क साधना तं के बना अपूण है और केवल शव ही तु ह इस गु त व ा का ान दे सकते ह।” उ ह ने अग य को नदश दए क वे परम दे वी के एक हज़ार नाम पर यान रमाएँ, हर नाम पर छह माह, एक अयान तक यान कर और इस कार पाँच हज़ार वष क अव ध म उनक साधना पूरी होगी। उ ह ने कहा क इतनी गहन साधना के बाद ही, शव उ ह दे वी क पूण साधना करने का अवसर दान करगे। अग य उ सुक तो थे परंतु वे यह भी जानते थे क कृ त क हर व तु के समान, साधना भी एक जै वक या है। यह अपने ही समय पर प रप व होती है। इसे पूरा करने के लए शी ता नह करनी चा हए। उ ह ने भु क पदधू ल ली; उसम से कुछ को अपनी जटा पर छड़कते ए, शेष को माथे पर मल लया। अग य पूरी एका ता के साथ दे वी क साधना करने लगे। जब भी उ ह दे वी के नाम क स यता का अनुभव मलता, तो उनके ने से अ ु क धारा वा हत हो उठती। कई बार वे, व त क तरह हँसने लगते, और कई बार, वे व य पशु व वृ को आ लगन म भर लेते य क उ ह हर थान व हर व तु म दे वी ही दखाई दे ती थ । वे दे वी के द नाम पर जतना तप कर रहे थे, उतना ही उनके दय म दे वी के लए आदर भाव बढ़ता जा रहा था। जाने कतनी ऋतुएँ आ व चली ग , न हे बीज वशाल वृ म बदल गए, सूय ने पाँच हज़ार बार उ रायण से द णायन क या ा कर ली। अग य ने दे वी के सह नाम क साधना पूरी क और गहन मनन म डू ब गए। वीणा क माधुरी के बाद, कसी ने सुरीले कंठ से पुकारा, “हे स पु ष, “ वा मानंद-लवीभूता- ह्माद्यान दा-संत त,” अग य ने बड़े ही भ भाव से दे वी के एक नाम का जप करते ए ने खोले, वे द नेह से आपू रत थ “हे नारद! अपनी आ मा के भीतर दे वी को पा लेने का परमानंद तो ा भी कभी नह पा सकते। सूय के आगे सारे आनंद तो जुगनू के समान ह।” फर उ ह ने दोन हाथ जोड़ कर वचरण करने वाले संत को णाम कया और बोले, “मुझे साधना के अंत म, आपके दशन करने का सौभा य मला। म ध य हो गया।”

नारद बोले, “नारायण! नारायण। मु न! अभी आपक साधना पूरी नह ई। यह तो अभी केवल आरंभ ई है।” अग य बोले, “हे े संत! यह पा अब छ - भ हो गया है। अब म इसे अ न के मा यम से दे वी को अ पत कर दे ना चाहता ँ।” नारद हँसे और उ ह भगवान ह्य ीव के नदश का मरण करवाते ए बोले, “नारायण! नारायण!” ह्य ीव के कहे अनुसार ही, अग य शव के पास गए और दं डवत कया। शव के उ वल और दै द यमान मुख, थर ने , हमालय के नाल क तरह वा हत हो रही जटा को दे खते ही अग य अपने बूढ़े शरीर के बारे म सब भूल गए। वे एक नए जोश, ऊजा व भ -भाव से संप हो उठे । गौरवणा पावती शव के नकट आ वराज । अग य पुकार उठे , “दे वी, हे दे वी, अपने अग य को आशीवाद द जए, दे वी।” जब वे अपने ही अ ु क धार म नहाए, कसी बालक क तरह फूट-फूट कर रोते ए दे वी के चरण पश करने के लए आगे गए तो उसी ण म दे वी शव म अंत यान हो ग । अग य अवाक् रह गए। उ ह ने भाव से पूछा, “महादे व! मेरे भ -भाव म या कमी रह गई? दे वी अलोप य हो ग ?” शव अपने गहन-गंभीर वर म बोले, मानो कसी हमालय क सुरंग म कोई वायु वा हत हो रही हो, “दे वी तो लोप अलोप से परे ह, हे मु न। तुमने अब तक दे वी के सार को नह पहचाना, परंतु तु हारी न ा व एका ता से म स आ। अब समय आ गया है क म तु ह वे रह य स प ँ ।” शव ने तं के वाम व द ण भाग म, दे वी पूजन के साकार व नराकार प का सारा रह यमय ान उ ह स प दया। “आज से कुछ हज़ार वष बाद, धरती पर एक अटल व संक पब मु न धरती पर दे वी क साधना पूण करेगा।” शव ने और कुछ कहे बना, अपने रह यमयी अंदाज़ म कहा। अग य ने हज़ार वष तक गहन तप या क कतु द णी पंथ के अ यास को ही पूरा कर सके। वे पुनः शव के पास गए। “म आपक तरह नह , महादे व! मेरा शरीर कृ त के नयम के अधीन है। म इस दे ह को याग कर नई दे ह धारण कर सकता ँ कतु वह समय के धम के व होगा। हे भु! मेरे लए या आदे श है?” “जाओ, यह सारा ान धरती पर द ा ेय को स प दो और वे इसे परशुराम और व श को दगे।” अग य के मन म संदेह का छ टा आ गया। शव ऐसी भूल कैसे कर सकते थे। उ ह ने तो वयं कहा था क दे वी क साधना कुछ हज़ार वष म पूरी होगी जब क अभी तो हज़ार वष ही ए थे। वे जानते थे क तीन — द ा ेय, परशुराम और व श साधना को पूरा कर सकते थे।

शव मु कुराए कतु कुछ नह कहा। अग य ने नदश के अनुसार यह गु त ान द ा ेय व व श को स प दया और अपनी दे ह को दे वी भाव म याग दया। द ा ेय का ज म, ह्मा, व णु तथा शव के तीन अंश से, महा मु न अ तथा उनक प नी अनुसूया के यहाँ आ, जो अपने प त त धम के लए जानी जाती थ । द ा ेय ने अपना सारा ान परशुराम को दया परंतु य ही साधना पूरी ई, उनके मन म महान वैरा य उ प हो गया और उ ह ने ववाह नह कया। परशुराम अपने गु के त सम पत रहे और कभी कसी ी को सं गनी नह बनाया। सं गनी के साथ तां क पूजन कए बना, साधना पूरी नह हो सकती थी। द ा ेय जानते थे क परशुराम केवल एक ऋ ष नह ब क वयं एक द अवतार थे। उ ह ने उ ह दे वी क साधना पूरी करने के भार से मु कर दया। परशुराम, धरती पर व णु के अवतार थे, ज ह ने धरती से अ याचारी य का समूल नाश करने का संक प लया था। श के गु त व ान के अ त र , जो परशुराम कुछ हज़ार वष बाद ोण, भी म और कण को दे ने वाले थे, उ ह ने दे वी क यह गु त व ा कसी को नह द । व श ही एकमा आस थे। यह कोई रह य नह क शव वयं को कभी नह दोहराते और न ही कसी व ा को सरी बार दे ते ह। द ा ेय इसे अपने कसी श य को नह दे ने वाले थे और य द व श भी इसे न दे त,े तो जगत सदा के लए दे वी क कृपा से वं चत रह जाता। महान ऋ ष व श उतने ही ाचीन माने जाते थे, जतना धरती के सौर मंडल म सूय पुराना था। उ ह ने राजा का उ थान व पतन दे खा था। उ ह ने युग को बदलते ए दे खा था। वे तीन लोक तथा अ त व के चौदह तल क या ा कर चुके थे। उ ह ने व ा म को ष बनते दे खा था। वे अधीर और उ सुक वृ त के नह थे। महान व श ने अपनी द से दे खा क अभी धरती पर, उनके स हत, कसी के लए भी सही समय नह आया था क वह दे वी क साधना करे, जसे शव द्वारा दान कया गया था। उ ह ने यह दे खा क वह साधना कतनी समथवान थी और गलत हाथ म जाने से उसका कैसे पयोग हो सकता था। यहाँ तक क उनका अपना पु , श मु न भी दे वी क साधना करने के यो य नह था। उ ह ने दे वी क साधना को अपने दय म छपाए रखा और उसे सबसे पहले, अपने पौ ऋ ष पराशर को स पा, जो सभी इ छा से परे थे। य ही व श उ ह साधना दे ने के बाद नवृत ए तो मृ भाषी ऋ ष पराशर के भीतर सांसा रक जगत क थता के त जाग कता उ प ई। इस अनुभवातीत ान से संप होने के बाद, ऋ ष पराशर संसार से वर होने लगे। वे अपने पता, पतामह या उस युग के अ य मु नय क तरह नह थे; उ ह ने न तो कभी ववाह कया और न ही कभी कसी सं गनी का साथ पाया। वे दे वी क साधना का ान पाने के बाद, अपना अ धकतर समय हमालय म ही तीत करने लगे। हालां क महा दे वी क साधना को सं गनी के अभाव म पूरा नह कया जा सकता था। दे वी भाव म वलीन ऋ ष पराशर कसी भी ी क ओर अनुर नह हो पाते थे। वे इस वषय का ान रखते थे क उ ह अपना ान कसी उ रा धकारी को स पना ही होगा कतु इसके बावजूद वे कसी सुयो य पा क ती ा कए बना, अपना अ धकतर समय

यान म ही बताते रहे। इसी तरह कुछ दशक बीते और ऋ ष पराशर को लगा क अब उ रा धकार के इस वषय को और अ धक थ गत नह कया जा सकता था। मन म यह सोच आते ही, वे हमालय से नीचे उतर आए। एक दन, उ ह यमुना नद के पार जाना था और केवट अपना भोजन कर रहा था। उसने अपनी पु ी म यगंधी से कहा क वह ऋ ष को उस पार छोड़ आए। जब वह ऋ ष पराशर को सरी ओर ले जा रही थी तो मु न ने उसे दे ख कर ने मूँद लए। उ ह ने अपनी द के बल पर दे खा क चार हज़ार वष से भी अ धक समय के बाद, ह और न क ऐसी थ त उ प ई थी, जो न केवल आकाशगंगा, हमारे तारामंडल ब क अनेक ा ड के लए अनुकूल थी। यही उ चत समय था क वे कसी कोख म अपना बीज डाल द ता क संसार को एक ऐसा मल सके, जो कुंड लनी व ा को नवजीवन दे सके। उ ह ने हौले से ने खोले और सोलह वष से भी कम आयु क युवती को इ छा पू त के ने से दे खा। वह अपनी छहरी दे ह के बल पर नाव खे रही थी। उसका साँवला वण आबनूस क तरह दमक रहा था। इससे वृ ऋ ष को कोई अंतर नह पड़ता था क उसक दे ह से मछली जैसी गंध आ रही थी। वह सदा से ही ऐसी थी, उसे म यगंधी कहा जाता था। ऐसी युवती जसक दे ह से मछ लय क गंध आती हो। पाराशर ने अपना गाँठदार हाथ उस युवती पर रख दया। सूय दय और सूया त कभी नह मलते परंतु करण तो सुनहरी होती ह। अनजान और त ध, म यगंधी ने पहले ऋ ष के हाथ और फर उनके ने म दे खा। वे पाराशर थे। उनका स मोहन, तो धरती के गु वाकषण से भी कह अ धक था। युवती ने वह समपण कर दया, हालां क वह थोड़ी सकुचाई ई थी य क वह न केवल कुँवारी और अ ववा हता थी ब क उस समय दन का खर काश भी फैला आ था। उसके वचार को भांप कर पाराशर ने एक मं पढ़ा व हवा म फूँक मारी। पास ही कसी प पर वृ से प ा गरा परंतु उसके नीचे गरने से पहले ही, जाने कहाँ से बादल आ गए और उ ह ने सूय को अपनी ओट म ले लया। चार ओर मोट धुँध छा गई और कनारा दखाई दे ना बंद हो गया। उसी थान पर महान ऋ ष पाराशर, महान व पारौ णक वेद ास जी के पता बने। उ ह ने म यगंधी से वदा लेते ए कहा, “अब तु हारी दे ह से कसी मछु आ रन क नह , कमल पु प क गंध आएगी। तुम अ ता यो न रहोगी और तु हारा पु ऐसा महान क व होगा, जैसा आज तक इस संसार म नह ज मा।” नाव अभी पानी के बीच ही थी परंतु ऋ ष पानी पर तैर कर, सरी ओर चले गए। नय त ने अपनी योजना पूरी कर द थी और पाराशर और म यगंधी क पुनः कभी भट नह होने वाली थी। कुछ वष बाद, उ ह ने ास से संपक कया ता क उ ह उनके जीवन के महान ल य से प र चत करवा सक।

ास क द न हे



ास क आयु मु कल से सात बरस रही होगी, जब उनके पता ऋ ष पराशर ने

उ ह द के य , दे वी के कट होने, अग य के तप तथा शव के नदशानुसार व ा दान करने क कथा कह सुनाई। पाराशर ने सावधानी से चार ओर दे खा और एक गु त मु ा के साथ, चार ओर धुंध का आवरण बना दया, जैसा उ ह ने म यगंधी के साथ समागम के समय कया था। प य ने चहचहाना बंद कर दया और सु र थान पर चले गए; हरण वहाँ से भाग खड़े ए। झ गुर ने झंकारना बंद कर दया और अ धकतर छोटे जीव भी वयं ही अलोप हो गए य क मु न ने अपने भाव से तापमान को कई ड ी तक घटा दया था। पाराशर बोले, “यह व ा कसी सरे के कान म नह पड़नी चा हए।” और उ ह ने न हे व ववेक-बु संप ास को संपूण व ा का ान स पा, जसम दे वी का कुंड लनी प भी शा मल था। उ ह ने कहा, “तु ह दे वी क साधना पूरी करनी होगी, उनक कृपा से तुम, इस गु त व ा को, मानवजा त के क याण के लए ल पब कर सकोगे। वे वाणी क श , वा वा दनी कहलाती ह। वे तु हारे मा यम से बोलगी। तु ह चौथे वेद क रचना करते ए, उसम उनके पूजन को शा मल करना चा हए। पूरी एका ता, न ा, भ -भाव, अनुशासन, धैय तथा ा के साथ उनका आवाह्न करो और सब कुछ संभव हो जाएगा।” ास ने अपने पता को दं डवत णाम कया और दे वी साधना को पूण करने का संक प लया। उ ह ने कहा, “ पता ी! आपके वचन का पालन करना ही मेरे जीवन का एकमा ल य होगा।” पाराशर ने गव से घोषणा क , “मेरे पु ! यह संसार सदै व तु हारी क त का गुणगान करेगा और तुम वेद ास के नाम से जाने जाओगे।” ास ने आनंद के अ तरेक म जयघोष कया, “मेरे पता क जय हो! दे वी क जय हो!” पाराशर पु के म तक को छू कर बोले, “तुम इस धरती पर सव थम हो, जसे दे वी क कुंड लनी साधना क द ा दान क गई है।” वेद ास ने बारह वष तक जग माता के साकार प पर यान कया और फर अगले बारह वष म उ ह कुंड लनी के प म, अपने भीतर छपी सु त श के प म जा त करने का आमं ण दया। जब वे ं थय को खोलते ए, च का भेदन करते ए, उनके भीतर उठ , तो ास ान व काश से संप हो उठे । अपने भीतर असीम श , अबा धत ऊजा व द ता स हत उ ह ने मानवजा त के लए महाका क रचना क । उ ह ने एक चौथे वेद, अथव वेद क रचना करते ए तं पर काश डाला, जसम गु त ोक म दे वी क म हमा व पूजन भी व णत है। ववेक तथा ऊजा से संपूण ास ने नंद पुराण क रचना क जसम ल लता सह नाम का पहला ल खत माण मलता है। दे वी अब भी उनके भीतर काम कर रही

थ और ऐसा कुछ नह था जो पौरा णक ास को कुछ करने से रोक पाता। एक के बाद एक, उ ह ने साधारण से ले कर वशेष वषय को समा हत करते ए, ान के सभी प को ले कर अठारह पुराण क रचना क । इनम यो तष से ले कर गौ पालन तक सब कुछ शा मल था। पर दे वी यह नह थम । अंततः, उ ह ने अपने समय के सबसे महानतम ंथ — महाका महाभारत के लए अपना योगदान दया। उनक परम व ा का का ा मक तो इतने वेग से फूट रहा था क यहाँ तक क ास वयं उसक ग त क बराबरी नह कर पा रहे थे। जो भी उनके श द को लखने क चे ा करता, शी ही थक जाता। उ ह ने शव के पु गणेश से आ ह कया क वे उनके लए महाभारत का लेखन कर। जस कार वषा के दन म, हमालय से हज़ार झरने पूरे वेग से नीचे क ओर आने लगते ह, उसी कार सृजनशीलता के असं य वचार ास क चेतना म उ प हो रहे थे। हालां क इसम कोई आ य नह था, य क दे वी अपने साधक के लए बु तथा अनुकंपा के प म ही वा हत होती ह। अथक/भ व य क ओर अ सर वेद ास ने भागवद् पुराण लखा, यह वही अमर कथा थी, जो एक बार भगवान शव ने पावती को सुनाई थी। दे वी ने ास के स मुख आ कर कहा, “मेरे पु ! तु हारा काय पूण आ। केवल तुम ही इन पुराण का लेखन कर सकते थे। जाओ, अब मेरे धाम म शा त काल तक वास करो।” इस कार महा दे वी ास जी म समा हत हो ग और ास पुनः कभी नह दखे। कुंड लनी साधना म, ास धरती पर स चे पहले साधक थे, और यह हमारा महान सौभा य है क हमारे पास ल लता सह नाम है, जहाँ च क संपूण साधना, दे वी के कंठ म सुशो भत म णय क माला क तरह है। कह न कह , म आशा करता ँ क दे वी को आमं त करते ए, मौ लक नयम को जा त करते ए, आप भी ास क तभा का कुछ अंश पा सकते ह, आप भी उनक तरह रचना के सागर बन सकते ह और कह न कह आप भी ास जैसा ही पद पा सकते ह। याद रख, कभी इन ऋ षय का ऐसा ही अ त व था, जैसा क आपका और मेरा है। गो वामी तुलसीदास जी ने ब त सुंदर श द म रामच रतमानस म कहा है : “ज न् आचरजु क मन मा ह, सुत तप त्ए रलभ कछु ना ह. तपबल त्ए जग ज य बधाता, तपबल ब णु भय्ए प र ाता. तपबल स भु कर ह स हारा, तप त्ए अगम न ह कछु स सारा.” (रामच रतमानस, 1, 162.1–3) य! मन म आ य मत करो। तप के साथ कुछ भी असंभव नह है। तप के बल पर

ही ा रचते ह। व णु पालन करते ह और शव संहार करते ह। तीन लोक म ऐसा कुछ भी नह , जसे तप के बल पर ा त नह कया जा सकता। यह भले ही आपको क ठन लगे, परंतु कुंड लनी जागरण के बाद, जब आपको यह अनुभव होता है क आप वा तव म या ह, तो आपको यह एहसास होगा क आप सबसे बड़े है और छोटा या बड़ा कुछ नह होता। अगर आप इस पथ पर चलने को राजी ह, तो आपको बाधा को उसी तरह काटना होगा, जस तरह जल पाषाण को काट दे ता है। आपक बाधाएँ उसी तरह गायब हो जाएँगी जैसे सूय उदय होते ही ओस क बूँद अलोप हो जाती ह। यही दे वी के अ त व क पहचान है।

केसरी और पूव ज म क अ सरा दे वी अंजना ने संतान ा त के लए घोर म हाराज तप आरंभ कया। सूय क धूप से उनके शरीर जजर और म लन हो गए, हम ने उ ह जमा दया, तेज़ हवा ने उ ह डगाना चाहा, व य जीव-जंतु ने भी ब त सताया परंतु अनेक वष तक वे अपनी तप या से पीछे नह हटे और शव के तेज वी प पर यान लगाए बैठे रहे। उनक भ और तप या से स हो कर, शव सामने कट ए और वरदान माँगने को कहा। शव ने आशीवाद दे ते ए कहा, “तु हारे यहाँ एक महान पु उ प होगा। वह बृह प त से भी बु मान वायु से भी बलशाली व सूय से भी अ धक तेज वी होगा। उसे न तो जल डु बो सकेगा और न ही आग जला सकेगी, उसे इस लोक या परलोक का कोई भी श मार नह सकेगा। आठ स याँ उसक दासी ह गी।” केसरी और उनक प नी मं मु ध भाव से खड़े रह गए। उनके लए तो इस कार का वरदान पाना कसी व से कम नह था — अपनी पूरी आभा के साथ तुत शव उ ह एक लभ वरदान दे रहे थे। शव बोले, “हे भ राजन! सबसे बड़ी बात यह होगी क तु हारी संतान अमर होगी।” प त-प नी आनंद से जयघोष करने लगे, “नमो पावती प येः, हर-हर महादे व।” वे उनके चरण म गर पड़े। शव ने आशीवाद दे ते ए हाथ उठाया और अलोप हो गए। तब अद्भुत आंजनेय का ज म आ। असीम श और बल के वामी, अपनी आयु के बालक से कह अ धक बु मान थे। वे एक से सरे वृ पर छलांग भरते ए, एकएक छलांग म कई मील लांघ लेत।े सरे ब च से खेलते समय, अ सर वे पवत क तरह वशाल प धारण कर, सा थय को भयभीत करते और फर च ट से भी छोटे आकार म आ कर छप जाते। एक बार, वे सूय के गोले को संतरा समझ कर नगल गए थे; तब दे व को ह त ेप कर सूय के ाण क र ा करनी पड़ी। कोई भी उनक असीम ऊजा के आगे टक नह सकता था। वे वशालकाय वृ को जड़ से उखाड़ कर, इस तरह उछाल दे ते मानो वे कुशा के तनके ह । शी ही यह एक सम या बन गई, वे अपनी बालसुलभ चंचलता के साथ महान ऋ षय के आ म और उनके य म बाधा दे ने लगे। जब हनुमान को रोकना क ठन हो गया तो उ ह ने उ ह शाप दया क वे अपनी सारी श य को भुला दगे। वे उ ह तभी पुनः पा सकगे, जब कोई उ ह उनक स य का मरण करवाएगा। धीरे-धीरे, हनुमान एक सामा य वानर क तरह जीने लगे — चतुर, बु मान और साहसी कतु एक सामा य वानर। सबने चैन क साँस ली। अनेक वष बीत गए। राम का ज म आ, उनका ववाह सीता से आ, उ ह वनवास भेजा गया, सीता का रावण ने हरण कया और हनुमान क राम व ल मण से भट ई। राम क एक झलक पाते ही हनुमान सदा के लए उनके भ हो गए। धरती के समान ाचीन, वृ रीछ जा बवंत ने अपनी र से दे खा क सीता, एक प पर अशोक वा टका म खी मन से बैठ ह

और वह वा टका, रावण के भ महल के सुंदर उ ान म थत है। प तक जाने के लए सागर को लांघना आव यक था। कोई भी नाव वहाँ तक नह जा सकती थी। वे सभी त ध थे और हनुमान को यह काज स पा गया क वे राम क मु का सीता तक ले कर जाएँगे और उ ह संदेश दगे क सभी पु ष म े , पुराषो म राम आ कर उ ह मु करगे। हनुमान ने जा बवंत तथा राम क सेना के अ य वानर से कहा, “म तो एक साधारण वानर ।ँ म उस प तक कैसे जा सकता ँ? म तो अ छ तरह से तैरना भी नह जानता।” सभी उस अथाह सागर को दे ख रहे थे और हनुमान क दयनीय दशा का अनुमान लगा सकते थे। “पर तुम छलांग भर सकते हो।” जा बवंत धीमे से बोले। “छलांग!” हनुमान ने आ य से कहा, “भला सागर को छलांग म कौन लांघ सकता है? जा बवंत यह कोई नाला नह , वशाल सागर है।” जा बवंत ढ़ता के साथ बोले, “केवल तुम ही ऐसा कर सकते हो। हनुमान, या तुम भूल गए क तुम कौन हो?” हनुमान ने मत हो कर जा बवंत को दे खा। उनक आँख के आगे बचपन क कुछ भूली- बसरी याद नाच उठ । हालां क अभी उन बात का कोई सार समझ नह आ रहा था। जा बवंत ने सबके बीच ऐलान करते ए कहा, “हनुमान! तु हारा ज म शव के वरदान से आ था,।” हनुमान को उनक श य का मरण करवा कर, जा बवंत ने उ ह ऋ ष के शाप से मु करते ए कहा, “तुम कोई साधारण वानर नह हो। जल तु ह डु बो नह सकता, अ न तु ह जला नह सकती, आंजनेय! हे हनुमान, अपनी उन श य को मरण करो, जो तु ह ज म के साथ ही द गई थ । तुम हमालय क तरह वशालकाय और कसी राई के दाने जैसा छोटा आकार धारण कर सकते हो। तुम इस धरती से भी भारी और पंख से भी ह के हो सकते हो। तुम वायु से भी अ धक तेज़ी से उड़ सकते हो, तुम सागर को अपनी छलांग से लांघ सकते हो।” हनुमान के भीतर एक व च सी खलबली मच गई और उनके बचपन क याद मानो और सजीव हो उठ । उ ह ने दे खा क वे कस तरह आसानी से उड़ते ए सूय को फल समझ कर खाने के लए आगे चल दए थे, या वे कैसे पुराने से पुराने वृ को जड़ से उखाड़ दया करते थे। उ ह याद आया क कस तरह वे एक ही छलांग म मील क री तय कर लेते थे। हनुमान ने जयघोष कया, “जय ीराम!” इतना कहते ही पेड़ गरने लगे और भूकंप सा आ गया। उनका शरीर वशाल प धारण कर रहा था। सरे वानर अचानक उनक कमर तक आ गए और फर घुटन तक आते ए, अंततः उनके पैर के अंगूठे जतने छोटे दखाई दे ने लगे। हनुमान वह नह के, वे अपना आकार

बढ़ाते गए, और बढ़ाते चले गए। ज द ही उ ह ने नीचे दे खा तो उ ह वानर क वह वशाल सेना रेत के कण जैसी दखने लगी, उनम जा बवंत, कसी छोटे काले तल या ब जैसे दख रहे थे। सभी ने पूरे बल के साथ जयघोष कया, “जय बजरंग बली, जय बजरंग बली!” “जय ी राम!” हनुमान क गजना ऐसी थी मानो ह आपस म टकरा गए ह और वे एक ही बड़ी छलांग से सारा सागर लांघ गए। हम सभी हनुमान ह — असीम श व संभावना से भरपूर। यह केवल एक कहावत नह है। हमारी वै ा नक ग त से इसका माण मलता है। हनुमान क तरह, हमारी तभा भी हमारे भीतर सु त अव था म पड़ी है; हमारी संभावना साकार होने क ती ा म है। हम एक वरदान के साथ ज मे ह और उसके वषय म भूल गए ह, प रणाम व प, हमने जीवन के साधारण प को ही अपनी नय त मान लया है। जब हम अपनी वा त वकता, अपनी स ची कृ त के संपक म आते ह, जब कोई जा बवंत हम हमारे स चे व प का मरण करवाता है, तो हम अपनी बु ववेक और पूण व ास के साथ वक सत होने लगते ह। तब हम चं मा पर जा उतरते ह और पाते ह क हम असीम और अनंत ह। यही कुंड लनी का सं त प है। यह आपक आ द ऊजा है, वह रचना मक बल, जो आपको आपके उ चतम तर तक ले जाने का काम करती है, जस कार सागर के तल म मोती रहते ह, उसी तरह यह भी आपके मे दं ड म कुंडली मारे पड़ी है। कुंड लनी आपके भीतर आपका ुव है। जब यह जा त होती है, तो आपको एहसास होता है क आप पहले से ही कतने असीम बलशाली ह। आपको अनुभव होता है कस तरह सारा ा ड आपके भीतर है। य द आप एक पु ष ह तो यह आपक ैण ऊजा है और अगर आप एक ी ह तो यह आपक पु षो चत ऊजा है। यही आपका माग है, आपके भीतर शा त संपूणता तक जाने का माग!

हमारे भीतर क उस सव े ऊजा क पहचान कुंड लनी हमारे भीतर सु ताव था म है य क हम ज म से ही, हमारी क मय व अधूरेपन का एहसास दलाया जाने लगता है। सदा हमारी तुलना सर से क जाती है और हम सर क तरह बनने का उदाहरण दया जाता है। कोई हम नह कहता क हम अपने-आप म ब त अ छे ह; वे सदा हमारे भीतर कोई खूबी या कोई गुण वक सत करना चाहते ह। यही बंधन हमारे भीतर सदा के लए एक अधूरेपन के भाव को ज म दे ता है। इससे उबरने के लए, हम बाहरी तौर पर अपनी खोज आरंभ कर दे ते ह। हम उन सरे लोग क तलाश करने लगते ह, जो हम अपनी मंजूरी दे सक, जो हम सराह सक, हमारी पीठ थपथपा सक। ऐसा करने म, हम लगातार अपनी ही श य से र होते चले जाते ह, जनके साथ हम धरती पर भेजा गया था। ऐसा य है, पु ष व ी ायः संभोग के बाद वयं को पूण य अनुभव करते ह,

भले ही ऐसा थोडी दे र के लए हो, परंतु उनके मन म यह भाव य आता है? उन ण म अपने-आप ही सुर ा, ेम व सहजता का एक भाव उ दत होता है। हम जो भी करते ह, हर काम को न ु र ढं ग से, यहाँ तक क अवचेतन प से भी, वयं को पूरा अनुभव करने क दशा म जुटे रहते ह। हम यास लगने पर पानी पीते ह; भूख लगने पर भोजन करते ह। हम अपने भीतर जस अभाव को अनुभव करते ह, कृ त हम ऐसा करने काम करने को ववश करती है ता क उस अभाव को पूरा कया जा सके। हमम से कुछ उस पूरेपन के भाव को महसूस करने के लए पद, स ा, नाम, यश व धन आ द के पीछे भागते ह। लोग अ सर टू टे संबंध क भरपाई के लए एक के बाद एक संबंध बनाते चले जाते ह। ऐसा य है? य क हम इसी तरह बनाया गया है — हम लगता है क हमारे पास कोई या कुछ ऐसा होना चा हए जो हम पूरेपन का एहसास दे सके। हमारी स ची कृ त अपने-आप म संपूण व वशु है; यही परमानंद है। हालां क, हमारी सोच और इस संसार क माँग हम लगातार हमारे अधूरेपन का एहसास दलाती रहती ह, मानो हम अपने जीवन म स ता पाने के लए कोई व तु या का साथ न त प से चा हए। एक जैसी व तुएँ एक सरे क ओर आक षत करती ह, वे एक- सरे क पूरक नह होत , केवल वपरीत ही पर पर पूरक हो सकते ह। उ र, उ र को नह , द ण को अपनी ओर ख चता है। इस दौड़ तथा पूरा महसूस करने के संघष म, हम अपनी ज़ रत के अनुसार वपरीत को आक षत करते रहते ह, जो सही मायन म हम भरपूर करेगा। ऐसा करने म, हम गलत सा थय , गलत नौक रय , गलत बॉस आ द को अपनी ओर आक षत कर लेते ह। कुंड लनी जागरण के साथ ही हमारे जीवन म, वपरीत को अपनी ओर आक षत करने क या पर रोक लग जाती है। यह हमारे भीतर संपूणता और पूरेपन क भावना के साथ आरंभ होता है। ‘म अपने-आप म संपूण ँ’ तथा ‘मेरे पास अपने भीतर से भरापूरा होने तथा स बने रहने के लए सब कुछ है।’ यह सब सही मायन म कुंड लनी क समझ के साथ ही आरंभ होता है। ‘ तभा’ को हम ‘सु त’ का ही सरा श द मान सकते ह। हमारी तभा हमारे भीतर सु त अव था म है, उ ह साकार करने के लए हम उ ह आगे लाना होगा। ठ क इसी तरह, हम सबके भीतर, कुंड लनी क मौ लक ऊजा सु त अव था म है। कुंड लनी जागरण का पथ हम भीतर क ओर ले जाता है और हम अपने भाव , वचार तथा भीतर छपी तभा के संसार पर यान दे पाते ह। यह अपने ही अ त व पी सागर म गहरी छलांग भरने जैसा है ता क च र व वद्वता पी मो तय को सतह पर लाया जा सके। कुल मला कर यही कह सकते ह क कुंड लनी कोई भौ तक वा त वकता नह है। भौ तक शरीर के साथ कुंड लनी का कोई भी संबंध, सबसे बेहतर प से अ ानी तथा बदतर प म व च है। कुंड लनी जागरण के समय, आपके मे दं ड म कोई सप कुंडली नह खोलता। ये च आपके शरीर म भौ तक प से उप थत नह ह। ये यादा से यादा साइको यूरॉ टक नायुजाल ह। इ ह पूरी योजना के साथ उन थान पर रखा गया है, जहाँ नायु का जाल है। इसक वजह से कुंड लनी को कोई मथक य अवधारणा

नह माना जा सकता। यह आपका यथाथ है, भले ही यह भौ तक न हो परंतु यह य है। आ मा को मा णत नह कया जा सकता, यहाँ तक क चेतना का भी कोई भौ तक अ त व नह , पर फर भी इसके अभाव म, हम कतने ही बु नयाद काय तक नह कर सकते। ठ क इसी कार, कुंड लनी जागरण या च का भेदन भी सूय, चं व तार जतना ही स य व यथाथ है। कुंड लनी जागरण के दौरान होने वाली संवेदना या च साधना के दौरान होने वाले अनुभव म या या अवा त वक नह ह। वे वा त वक ह, परंतु वे चेतना से जुड़े ह। वे कसी और के लए नह केवल आपके लए अथ रखते ह। यही वजह है क कुंड लनी जागरण म सरे के अनुभव को अपने पर लेने क भूल नह करनी चा हए। तब आपके मन म उस अनुभव को पाने का ल य आ जाता है, आप सोचने लगते ह, “ओह, मुझे भी अपनी रीढ़ क हड् डी म वैसी ही सनसनाहट महसूस होनी चा हए ता क मुझे पता लग सके क म सही तरह से यान कर रहा ँ या नह ।” इससे आपका यान भंग होगा और आप च पर यान लगाने के पथ से भटक जाएँग।े जब आप एक गम कमरे म होते ह तो आपको गम दखाई नह दे ती, आप उसे महसूस करते ह। ठ क इसी तरह, जब आप च पर यान लगाना आरंभ करते ह, तो आप अपने अनुभव तथा नई ा त यो यता के बल पर ही जान पाते ह क आपके भीतर पांतरण हो रहा है। कुंड लनी जागरण का सबसे बड़ा पांतरण यह नह है क आपको चकाच ध करने वाला काश अव य दखेगा (हालां क ऐसा हो सकता है और मेरे साथ असं य अवसर पर हो चुका है।) या आप पंख के समान ह के या ब त ही ऊजा वत महसूस नह करगे। ये सब उपो पाद ह। यह असली उ पाद नह , यह असली म खन क बजाए, उससे बनी छाछ है। कुंड लनी जागरण पर वा त वक पांतरण वह होगा, जब आप अपनी पुरानी वृ य और नकारा मकता को उसी तरह याग दगे जैसे कोई सप अपनी कचुली छोड़ दे ता है। अब आप पहले क तरह गु सा नह होते और छोट -छोट बात पर अपनी खीझ नह उतारते। अब आपके भाव और सोच, आपको अपने बस म ले कर कुचल नह सकते। आप अपने को काबू म रखना सीख लेते ह। जागरण के साथ ही आपके भीतर रचनाशीलता का असाधारण वार उमड़ पड़ता है और आप अपने भीतर छपी तभा को दे ख, आ यच कत हो जाते ह, जनके बारे म आपने कभी सोचा तक नह था। इस श द क दो और ा याएँ हो सकती ह :

1. कुंड + लीन + ई ‘कुंड’ का अथ है, छे द, धरती म एक गोल छ जो क अ न या जल के सरं ण के लए कया जाता है। य करने वाले य कुंड भी ‘कुंड’ कहलाते ह। ‘लीन’ का अथ है, समा हत हो जाना या जुड़ना और ‘ई’ का अथ है, ऊजा सभी मनु य के भीतर एक कार क ऊजा सु त अव था म, एक कार के नायु जाल म अपने-आप म समा हत पड़ी है। कहते ह क ई के अभाव म शव भी शव ह। ई

ऊजा का त न ध व करती है। ऊजा के अभाव म न तो कसी चीज का अ त व हो सकता है और न ही कोई चीज काम कर सकती है। आपक रचना मक ऊजा सतह म पड़ी है य क आप अपनी स ची कृ त से र हो गए ह। जब आप भीतर क ओर मुड़ते ए, अपनी ही स ची कृ त पर यान दे ने लगते ह, तो यह आ म-अवशो षत, सु त ऊजा उ दत होने लगती है और हर बाधा को पार करते ए, आप वयं को पहले से कह अ धक श शाली अनुभव करने लगते ह।

2. कुंडल का

ी लग

कुंडल का अथ है, अंगूठ या र सी क कुंडली। कुंड लनी, आपक सु त अव था का ैण प है, जो कुंडली मारे पड़ा है। आप क पना कर सकते ह क पानी सीधे पाइप से जाने क बजाए गोलाकार मुड़े ए पाइप से जा रहा है। हमारे अपने बारे म, हमारी नकारा मक सोच, हमारे भाव और मोह, कुंड लनी के पथ को मोड़ दे ते ह। इसम ठन आ जाती है। जस तरह जब आप ब चे को फटकारते ह तो वह अपने ब तर पर सकुड़ कर लेट जाता है, कुंड लनी भी इसी तरह आपके मूलाधार च म समट है। ऐसा इस लए भी है य क हम अ सर अपने-आप से ही भयभीत होने का सं कार दया जाता है। हम भूल करने और नणय लेने से डरते ह। हम उ चत काय करने से डरते ह और चाहते ह क जब हम कुछ कर तो सरा हमारे काय क पु करे। भय के मारे, आप अपनी टाँग पसार कर नह सोते, आप हमेशा थोड़े सकुड़े रहते ह। कुंड लनी का वाभा वक धाम तो वा ध ान च म है पर ये नीचे उतर कर मूलाधार च म पड़ी है। ये दो च काम के क ह और लोग के जीवन म सबसे बड़ा अपराधबोध, उनके यौन संबंधी वचार और काम से ही जुड़ा होता है। जब आप अपनेआप को पूरी तरह से वीकार लेते ह और अपने साथ सहज होने लगते ह तो वह से कुंड लनी का जागरण आरंभ होता है। तब आप उसे यान और मनन के साथ आगे ले जाते ह। आप इसे इसक सकुड़ी और मुड़ी ई अव था से बाहर नकालते ह और यह पूरी तरह से नभ क और वीकाय भाव म आ जाती है। यह सु त नह रहती। यह जा त और साथक हो उठती, यह न केवल आपके सपन को साकार करने का मा यम बनती है। ब क आपको संपूणता का एहसास भी दलाती है। यही कारण है क इसे दे वी का नराकार प कहा जाता है जो वयं दै वीय माता से कम दै वीय, कम श शाली और कम संपूण नह है।

श य म से एक, आनंद दशक से उनक सेवा करते आ रहे थे। वे बु उनकाके बधानत आदर करते थे, उनक हर आ ा का पालन करते, उनसे ेम करते और

उ ह ने, सबसे परे जाते ए, अपना पूरा जीवन ही तथागत को सम पत कर दया था। एक दन उ ह ने बु से कहा, “हे भ े ! आपने ब त से लोग को बु होने म सहायता क है। ऐसा य है क म ही अब तक उस गहन समा ध का अनुभव नह पा सका, जसके बारे म आप बात करते ह?” बु मु कुरा कर बोले, “आनंद, ऐसा इस लए है य क तुम अब तक मुझसे ही बंधे ए हो। अगर तुम स चे जागरण का अनुभव पाना चाहते हो, तो सारे बंधन, सारी ं थय से मु हो जाओ।” आनंद बु क त या से मत हो उठे । वे बोले, “तथागत! आप या कह रहे ह, य द म आपके पीछे चलते ए सरे कनारे तक नह जा सका तो वयं कैसे जा सकूँगा? एक बछड़ा अपनी माँ के पीछे चल कर ही तो सही-सलामत अपने घर प ँचता है।” “आनंद, तुम तो पहले से ही अपने घर म हो। केवल तु ह इसका अनुभव नह हे। अपने सारे बंधन खोलो और अपने मन के उन अ ात कोन म झाँक कर दे खो क वहाँ या रखा है।” आनंद बु क त या सुन कर नराश हो गए। उ ह लगा क उ ह ने आजीवन इसी सोच के साथ समय न कया क बु का पालन करने का अथ होगा, जागरण, पर तथागत तो इससे वपरीत ही कह रहे थे। तीन माह प ात्, बयासी वष क आयु म बु ने महासमा ध हण क और आनंद के शोक क सीमा न रही। उसी वयोग और गहन शोक क अव था म, वे यान करने बैठे। कुछ ही ण म, वे गहरी भावदशा म चले गए। उसी जागरण क अव था म, उ ह गहन आ मबोध ा त आ : शृंखला चाहे सुवण क हो अथवा लौह क , वह शृंखला ही कहलाती है। जब तक आप कसी भी चीज़ से बंधे रहगे, तब तक आप स ची वतं ता का आनंद नह उठा सकते। जागरण के पथ पर, सभी बंधन को खोल दे ना चा हए। य द आप अपनी पहचान पाना चाहते ह तो गभ नाल को काटना ही होगा। जब तक हम कसी चीज़ से वयं को र नह करते, तब तक हम अनुमान नह होगा क हम उससे कतना गहरा मोह रखते ह। जब तक हम, हम बांधने वाली तीन ं थय क गहन जानकारी नह पा लेत,े तब तक कुंड लनी जागरण व इसक समझ हमारे लए अधूरी ही रहेगी। हर गाँठ या ं थ के साथ र सी क कोमलता जाती रहती है। हमारी गाँठ भी हमसे हमारी कोमलता छ न कर, असमतल बना दे ती ह। जस कार हर गाँठ र सी को छोटा करती है, हमारी गाँठ हमारे च र और बल को ीण करती ह। यह मा संयोग नह , ल लता सह नाम म, कुंड लनी क ा या च से नह , ब क तीन ं थय से होती है। तो म 182 ोक ह, जनम से 15 च से संबंध रखते ह। इनम साधना, गु त प , च क कृ त, उनके प, रंग तथा वण के बारे म

बताया गया है। परंतु, पहले तीन ोक अपने-आप म पूण ह। उनम केवल यही बताया गया है क तीन ं थय को भेदने के बाद, कुंड लनी कैसे जा त होती है। इसके बाद जा कर ही च का ववरण आता है। इन ं थय को अपने-आप म खोलना ही, एक कार क साधना है, और कसी भी अ य साधना क तरह, इसके साथ भी बाहरी और आंत रक, दोन कार क बाधाएँ शा मल ह।

बाधा

से मु

पाना

कसी भी कार क साधना म दो कार क बाधाएँ पाई जाती ह : बाहरी व आंत रक। बाहरी बाधा का संबंध अनुकूल प रवेश से है जसम ाकृ तक आपदा, असुर त थान, सामा जक सहयोग का अभाव, उ चत भोजन व साधन का न मलना आ द आता है। बाहरी चुनौ तयाँ दो कार क होती ह : आ द-भौ तक, ये बाधाएँ साधन के अभाव म आपक ग त म बाधा बनती ह, और आ द-दै वक, कृ त क ओर से उ प होने वाली बाधाएँ जैसे तूफान, व य पशु आ द। बाहरी बाधा से पार पाना क ठन नह होता, आप अपनी ज़ रत के अनुसार जगह बदल सकते ह और ये चुनौ तयाँ र हो जाएँगी। बाहरी चुनौ तय के बारे म यह भी कह सकते ह : आप जतना भीतर क ओर क त ह गे, इनक अह मयत घटती जाएगी। वन म मेरी अपनी साधना के दौरान, म अपने अ यास को जतना गहन करता गया, बाहरी कारक उतने ही मह वहीन होते चले गए। कुछ समय बाद, चूह से ले कर लंगूर तक, कोई भी मुझे परेशान नह कर सकता था। वे वह थे, पर मानो मेरे लए वे अ त वहीन हो गए थे। जब भीतरी तूफान, लंगूर और चूहे शांत हो जाते ह, तो बाहरी कारक भी अपना बल खो दे ते ह। भले ही आप वन म ह या फर वातानुकू लत घर म, आपके लए बाहरी बाधा क कमी नह होगी। हम उ ह रोक भी नह सकते। इसके अलावा, य द इनक तुलना अपने भीतर क भयावह चुनौ तय से क जाए तो ये बयार का एक झ का या केक के एक टु कड़े के समान लगती ह। आंत रक बाधाएँ भी दो कार क हो सकती ह : आ द-दै हक, ऐसी बाधाएँ जो शरीर के भौ तक रोग से उपजती ह, तथा आ या मक, ये चुनौ तयाँ भाव , वचार व इ छा के कारण आपक ग त म रोड़ा अटकाती ह। आ द-दै हक म दमा, ग ठया, जुकाम या फर कसी अ य रोग को शा मल कर सकते ह। ऐसा कुछ भी जो आपके शरीर के भीतर से उठता है और आपके यान और क म व न दे ता है, वही आंत रक बाधा है। हालां क एक साधक के लए सरी कार क बाधा यानी आ या मक बाधा ही सबसे बड़ी चुनौती होती है। यह तीन ं थय क भू मका सामने आती है। इ ह ं थ, व णु ं थ तथा ं थ कहते ह। कुंड लनी जागरण के पथ पर कसी साधक को जन आंत रक बाधा का सामाना करना पड़ सकता है, वे तीन ही इन ं थय के दायरे म आ जाती ह। हमारा अ धकतर जीवन अपने-आप से संघष करने म ही बीत जाता है। हम कुछ भाव , वचार व इ छा को अपनी ओर से रोकने का भरसक यास करते ह और कुछ वां छत भाव व वचार को वक सत करना चाहते ह। हम कुछ न त लोग को मा

करना चाहते ह, परंतु अपराध बोध का अनुभव करते ह य क हम उनके कारण अपने दल पर लगी ठे स को भुला नह पाते। हम स होना चाहते ह, कसी के त कोई वासना या घृणा नह रखना चाहते, परंतु फर भी ऐसा जान पड़ता है मानो हमारे भाव तथा वचार का अपना ही एक जीवन हो। हम अपनी भावना व सोच को बहलाने क को शश कर रहे ह, हम उनके साथ मै ीपूण वहार रखना चाहते ह परंतु वे कोई च नह रखते। ऐसा होने पर, उ ह समझने क बजाए, हम उनका वरोध करने लगते ह, उनसे कतराने लगते ह। यही वरोध हमारे भीतर गाँठ को ज म दे ता है और हमारे जीवन को ज टल बना दे ता है। हमारी गाँठ या बंधन, वे हम बांधते ह, हम उलझाते ह और छोटा बना दे ते ह। “मूलाधारैक नलया थ वभे दनी, म णपूरा त दता व णु थ वभे दनी. आ ाच ा तराल था थ वभे दनी, सह ारा बुजा ढा सुधासारा भव षणी. त ड लतासम चःषट् च ोप रसं थता, महाश ः कु ड लनी बसत तुतनीयसी.” (ल लता सह नाम, 38–40) मूलाधार से उठते ए, कुंड लनी वा ध ान च म ं थ को भेदती है, म णपुर च से होते ए, अनाहत च म व णु ं थ को भेदती है और कंठ व भौह से होते ए, यह सर म ं थ को भेदती है। यह वह शतदल कमल से भट करते ए, परमानंद और द मादकता का पान करती है। कुंड लनी क कृ त काश क बैट रय के समान है, यह छह च से पार होते ए जगमगाती है। अमृत के मद से प रपूण, इसका आकार, कमल के तने से छ ले गए तंतु के अरबव ह से के अंश मा से भी गूढ़ है। जब आप सकारा मकता व काश से भर उठते ह, जब आप अपने भीतर क वा त वकता को दे खने लगते ह, तो आप वयं ही खल उठते ह, यह सब यासहीन होता है। और जब आप खल कर खुलते ह, तो गाँठ ढ ली पड़ कर, गायब हो जाती ह। जब आप आ या मक प से उ त हो कर, पथ पर अ सर होते ह, तो ये ं थयाँ अपने-आप उसी कार खुलने लगती ह जस तरह कमल के फूल क पंखु ड़याँ सूय क करण का पश पा कर खुलने लगती ह। कुंड लनी जागरण क वा त वक या म, आपको ऐसी कसी ं थ पर क त नह रहना और न ही इ ह खोलने का मान सक च ण करना है। जब आपके शरीर म माँसपेशी क कोई गांठ बन जाती है, तो आप उसका कोई इलाज नह करते; उसक ह के हाथ से मा लश करते ही गाँठ अपने-आप ठ क हो जाती है। ठ क इसी तरह, जब आप हौले से अपनी आ मा को सहलाते ह, तो यह सहज व व ांत होने लगती है, आप अपने साथ ब त आरामदे ह महसूस करते ह, आपके लए

यह जानना सरल होने लगता है क आप जीवन क इस या ा म कौन, कहाँ, कैसे, कब व य ह — यही कुंड लनी जागरण के आरंभ क या है। ह परंपरा म, ा सृ करते ह, व णु सबका पालन करते ह और शव संहार का काय करते ह। यही तीन नयम हम भी बांधते ह। सृजन करने क इ छा ही ं थ है, पालन करने क इ छा व णु ं थ तथा जो आपको पसंद नह है, उससे छु टकारा पाना ही ं थ कहलाता है। इस तरह, यही तीन मनु य के जीवन के तीन मुख त व का त न ध व भी करते ह : काम से जुड़े भाव (सकारा मक व नकारा मक) तथा वनाशक वचार। म आपको इनके बारे म और गहराई से बताना चा ँगा।

ह्म ं थ ा सृजन का त न ध व करते ह और वे ही वंश वृ का प भी रखते ह। इस कार यह कोई संयोग नह , ं थ आपके वा ध ान च , जनन अंग म पाई जाती है। कुंड लनी रीढ़ क हड् डी के आधार से, मूलाधार च से आरंभ होती है — जहाँ सबसे अ धक नायु जाल पाया जाता है। कसी भी मनु य म कुछ रचने क इ छा ही सव प र और बलशाली इ छा होती है, य क इस इ छा का सीधा संबंध, आपके भीतर छपी रचना मक ऊजा को मु करने से जुड़ा है। आप इसे से स या काम वासना का नाम दे सकते ह। काम केवल आपक वासना को शांत करने का सरा नाम नह है, यह आपका सबसे रचना मक प भी है। कृ त आपको ववश करती है, आपको बारंबार उन माग क खोज के लए उकसाती है, जहाँ आप अपनी रचना मक ऊजा का योग कर सकते ह। कृ त का एकमा धम है, वकास और इस सृ के येक जीव को इसके अनुसार ही रचा गया है। कसी भी साधक के लए सबसे पहली चुनौती यही होती है क उसे काम संबंधी वचार व इ छा से उबरना होता है। इस बात से मेरा यह ता पय नह क आप आजीवन हमचय साध ल। हो सकता है क आपको आरं भक चरण म इसका अ यास करना पड़े। आपके वचार को एक उ चत दशा दे ने के लए ही संयम का अ यास कया जाता है। जब आप जानते ह क आप एक न त समय के लए कसी ख़ास चीज़ को नह पा सकते, तो ऐसे म आपके लए अपने मन को नयं त करना सरल हो जाता है। मान ली जए आप कोई मह वपूण प या लेख लख रहे ह और अचानक आपके न पर कसी ई-मेल के आने का संकेत आ जाए। आपके म ने आपको एक लक भेजा है और उस लक पर लक करते ही आपके सामने एक यूज़ वेबसाइट खुल जाती है। आप लेख को पढ़ कर ख़ म करते ह तो नीचे ही, उससे संबं धत लेख के लक दए गए ह। आप उनम से एक को लक कर पढ़ने लगते ह। उस लेख म एक और लक है, आप उसे लक करते ही, सरी वेबसाइट पर चले जाते ह। इससे पहले क आप जान सक, तीन घंटे बरबाद हो गए ह और अपने अभी तक उस मह वपूण प को पूरा नह कया, जसे आप सबसे पहले लखने बैठे थे। क पना कर क अगर उस प लेखन के दौरान आपका सब कुछ बंद होता तो आपके सामने अ य कोई कावट न आती। संयम भी कुछ ऐसा ही है। मानो आप कुछ समय के लए अपना मोबाइल इ या द बंद कर रहे

ह, ता क उस काम पर एका हो सक, जसे आप करने जा रहे ह। म आजीवन ह्मचय रखने को नह कहता य क मेरे अनुसार यह अनाव यक और अ ाकृ तक है। म असं य ह्मचा रय से मला ँ और उनम से एक भी अपनी अव था से स नह था, वे सभी इससे जूझ रहे ह। तो जब म से स से ऊपर उठने क बात करता ँ तो मेरे कहने का ता पय यह है क आपको अपने साथ पूरी तरह से सहज होना होगा, अपनी काम संबंधी इ छा व काम के मूल को समझना होगा। साधना के दौरान, आपके भीतर वचार का वार उमड़ पड़ेगा — काम संबंधी, उ ेजना, वजना संबंधी और काम वकृ त संबंधी। उ ह बाहर आने द, कसी तरह क त या न द; अपने वतमान क के च पर अपना यान रमाए रख। आपने अपने काम संबंधी अनुकूलन या वचार को नह चुना। आपके उनके साथ ही ज मे थे। आप अपने वचार को जतना रोकने या उनसे र जाने का यास करगे, वे उतना अ धक सताएँगे। मुझे अपने बचपन क एक घटना याद है, एक बूढ़ा आदमी था और ब चे अ सर उसे चढ़ाते थे य क वह ब त बुरी तरह से चढ़ता था। वह अपनी छड़ी उठा कर, उनके पीछे भागता। वे उसका मज़ाक उड़ाते (जानता ँ क यह सब ग़लत था)। वे उसे इस लए ही चढ़ाते थे ता क वह खीझ कर उनके पीछे भागे। एक बार वह कसी तीथया ा पर गया और कुछ माह बाद वा पस आया। ज द ही, उसने त या दे ना और खीझना बंद कर दया और कुछ समय बाद ही ब च ने भी उसक ख ली उड़ाना बंद कर दया। जब आप त या नह दे त,े तो आपके भीतर से एक सहजता का भाव पैदा होता है। वरोध कह तरो हत हो जाता है। जब आप कसी चीज़ का वरोध करते ह, तो आपको अपने बल को गना करना पड़ता है, इससे आप थक कर न सा हत हो जाते ह। संयम को कसी उपवास क तरह ल, जब आपका मन जानता है, मुझे नौ दन तक भूखा रहना होगा,। मान लेते ह, पहले दन, आप ब कुल ठ क रहते ह। सरे दन आपके लए यह थोड़ा क ठन होगा और आने वाले चार दन म तो यह और भी क ठन हो जाएगा। आपके दमाग म लगातार भोजन से जुड़े वचार ही आते रहगे। ‘बस, कुछ ही दन रह गए।’ आ द-आ द। नव दन के अंत म, जब आपको भोजन करने का अवसर मलेगा, तो इस बात क संभावना अ धक है, क आप सामा य भोजन से कह अ धक मा ा म भोजन कर ल, से स भी मन और शरीर के लए भोजन का काम करता है। एक बार मेरे पास एक आए। उनक आयु स र के म य रही होगी। उ ह इस बात से ब त परेशानी थी क उनके मन म अब भी कामवासना आती थी और वे यौन प से स य थे। वे इस बारे म ब त ल जत अनुभव करते थे। उ ह ने कहा, “म कई वष पूव सेवा नवृ हो चुका ँ पर अब भी मन म यौन संबधी वचार आते ह।” मने कहा, “इसम कोई हज़ नह , आपके शरीर और जनन अंग को तो नह पता क आप रटायर हो गए ह।” मने आगे कहा, “से स भी भोजन क तरह है, जब तक आप भोजन करते रहगे, आपका शरीर से स क माँग भी करता रहेगा। मन कभी रटायर नह होता।”

“तो, इस तरह म एक बुरा सा बत नह होता?” “इसके वपरीत, आप तो एक सामा य ह। आपको कसी ऐसी चीज़ के बारे म श मदा होने क ज़ रत नह , जसे आपने अपने लए नह चुना।” मन को इससे कोई अंतर नह पड़ता क आप काम से रटायर हो गए ह या आप व र नाग रक बन गए ह; यह तो हमेशा क तरह जीवंत रहता है। जस तरह आपके मन म कोई अ छ चीज़ खाने या ब ढ़या कपड़ा पहनने क इ छा हो सकती है या कह बाहर जाने का मन हो सकता है। आपके मन म इसी तरह यौन संबंध बनाने क इ छा आ सकती है। अगर आप इ ह अनाव यक मह व नह दे ते, तो ये भी अ य वचार क तरह ही ह — वे सामने आते ह, एक ण के लए ठहरते ह और ओझल हो जाते ह। कुल मला कर कहा जा सकता है क ं थ केवल काम संबंधी ं थ नह है, ा केवल जनन का नह ब क सृजन का भी त न ध व करते ह। अगर हमारी रचना मक ऊजा को नखारने के लए केवल से स ही पया त होता, तो आज हम ऐसी चूहा दौड़ का ह सा न होते। भले ही कोई धनी हो या नधन, करोड़प त हो या अरबप त, एक थानीय मं ी हो या धानमं ी, येक अपने लए यथासंभव बड़े से बड़ा ह सा पाने क को शश म जुटा है। वे कुछ रचना चाहते ह, जो कर चुके ह, उससे कह अ धक, कुछ करना चाहते ह। और यही इस ं थ का सरा प है : कुछ रचना। ं थ सृजन, व तार व गुणन का त न ध व करती है। इसम कोई संदेह नह क लाख लोग को त दन कड़ा प र म करना पड़ता है ता क वे अपना पेट भर सक। इसके साथ ही, ऐसे लाख लोग मौजूद ह, जो नरंतर धन का सं ह कर रहे ह, पदो तय , बड़े घर , बड़ी कार आ द क आस लगाए बैठे ह। वे और अ धक अजन करने के लए कड़ा प र म करते ह और फर वे और अ धक य करते ह, फर वे और अ धक कमाते ह ता क अपने सारे य पूरे कर सक। यही इ क सव सद क बु मता और जीवनशैली हो गई है। म यह नह कह रहा क यह सही या ग़लत है; यह आपका नजी चुनाव है। जब हम च साधना करते ह, तो आपको और अ धक पाने क इ छा के लोभ से मु होना होगा। आभार और सजगता चीनी काँट क तरह ह। आपको भोजन के लोभ को रोकने के लए दोन चा हए। जब एक साधक उ त करते ए यौन व सृजन संबंधी वचार से ऊपर उठता है, तो उसका मन शांत व थर होने लगता है, ाकुलता के बवंडर शांत हो जाते ह और भीतर से ाकृ तक प से अहोभा य सामने आता है। “सही मायन म, मेरे पास सब कुछ है। जस कार पूरी तरह से खला आ फूल मधुम खी को वयं ही आक षत करता है, सृजन और जनन से परे से गया आ मन भी अलग तरह के वचार को अपनी ओर ख चता है।” अब सरी ं थ म उलझी, अलग कार क इ छाएँ मन म उपजती ह।

व णु ं थ कह न कह , हमारे भीतर था य व पाने क गहरी इ छा ही क का मूल है। हम इस जगत के अ थर वभाव के साथ आरामदे ह महसूस नह करते। हम अपने आनंद, सुख

व उपल धय को शा त बना दे ना चाहते ह। हम यह व ास करने म क ठनाई होती है क सब कुछ अ थायी है। हम अपने यजन को कभी खोना नह चाहते और य द हम उ ह अपने साथ रख पाते, तो शायद उ ह हमेशा अपने साथ ही रखना चाहते। कसी चीज़ को थामे रहने, और हमारे पास जो भी है, उसे संभाले रखना ही हमारी हा दक इ छा म से एक है। ऐसी इ छा ही हम सी मत करती है, यह हम बांधती है। यही सरी ं थ है — व णु ं थ। व णु का थान दय च म है। सदै व स रहने क हमारी इ छा के आधार पर, हम लगातार काम करते रहते ह और ऐसे काम करते रहते ह क हमारी पराजय न हो। यही आस ही सारे भाव का मूल है और भाव ही, कसी भी साधक के लए सरी बड़ी बाधा है। जब आप यान के दौरान अपने मन को शांत करते ह, तभी आप अपने भाव के त सबसे अ धक सजग होते ह। वे केवल सकारा मक या नकारा मक भाव नह ब क दोन का ही म ण ह, य क ये वे वचार ह ज ह आपने नह छोड़ा और अब उ ह ने आपके दय म थान बना लया है। आपको प ाताप, अपराध बोध, गु से, जलन, ई या, बैर, आनंद, शां त व आ द से हो कर गुज़रना पड़ता है। जब आप अपने वचार को बाहर नह आने दे ते और वे भीतर ही भीतर कुलबुलाते ह, तो वे इ छाएँ या भाव म बदल जाते ह। व णु सृ के पालक ह। आपक इ छाएँ और भाव ही जीवन का आधार ह। एक पल के लए इस बारे म सोच — हमम से अ धकतर लोग केवल उस दशा म काम कर रहे ह जसे हम पाना चाहते ह या हम जसक परवाह है। इ छा तथा भाव क ं थयाँ कसी भी गंभीर साधक के लए सरी बाधा बन जाती है। या आपको इ छा का याग कर, भाव से र हत हो जाना चा हए? सच तो यही है क इ छा और भाव हम मनु य बनाते ह, वे हम वह बनाते ह, जो हम ह। इ छा और भाव से पूरी तरह मु पाना इतना सरल नह है। हो सकता है क आपके मन म धनी या स बनने क लालसा न हो पर इसका अथ यह नह क आप इ छा से मु हो गए ह। आज कुछ अलग खाने क इ छा, अपने यजन से बात करने क इ छा, कोई फ़ म दे खने क इ छा, अपना मनोरंजन करने क इ छा — ये सब इ छाएँ ही तो ह। आपको अपनी कसी इ छा को पूरी करने म जतना म करना पड़ता है, वह उतना ही आनंद दे ती है, संतु का अनुभव दे ती है। इसका अथ यह नह क आपका वह अनुभव लंबे समय तक बना रहेगा। इसका सीधा सा अथ यही है क जब आपको इससे अ धक प र म करना होगा और कसी चीज़ को पाने से अ धक संतु मलेगी, तो वह आनंद का अनुभव और अ धक हो जाएगा। हमारे पास जो भी आता है, उसे हम कैसे वीकारते ह, उसी से हमारी भावा मक अव था प रभा षत होती है और यही अव था, इन प र थ तय के बदले म हमारी त या को भा वत करती है। कोई आपक आलोचना करता है तो आप उसे वीकार या अ वीकार नह कर सकते। इससे आपके भीतर नकारा मक भाव पैदा होगा। हो सकता है क इससे आपको नीचा महसूस हो या आप आलोचक क नदा कर। इस

मान सक अव था म, हो सकता है क आप कुछ ऐसा कह या कर जो आप सामा य अव था म न करते। अगर आप चुपचाप अपनी नदा को वीकार करते ए, अपने मन से बाहर जाने द तो आपके भीतर नकारा मकता नह उपज सकती। कसी भँवर क बजाए शांत ताल म तैरना यादा आसान है। जब आप इस बात को समझ लेते ह क च पर यान दे ते ए आपको भाव और वचार पर त या दे ने क आव यकता नह है, तो वे आपके लए थोड़े कम गहन हो जाते ह। जब उनक गहनता घट जाती है, तो वे कोई भँवर नह ब क एक शांत ताल बन जाते ह और तब आप दे ख सकते ह क तल म या पड़ा। सब कुछ पारदश तरीके से प हो उठता है। आपके भाव से णक तरंग तो उठगी कतु वे बड़े भँवर नह बनगे। जब आप अपने काम संबंधी वचार से ऊपर उठते ए, भाव से वलग ह गे, तो आपको अवशेष दखाई दे ने लगगे। वचार क एक अं तम और तीसरी ृंखला आ कर आपके यान को भंग करती है।

ंथ गंभीर साधक के जीवन म एक ऐसी अव था भी आती है, जब वे अपने काम संबंधी वचार से नह जूझते, जब उनके मन म कसी के भी त नकारा मक भाव नह होते। यह एक ऐसा चरण है, जब वे सही मायन म कृत हो उठते ह। जस तरह मन थरता का अनुभव पाने लगता है, ठ क उस समय जब वे चट् टान के तल को दे खने यो य होते ह, उसी समय वे वचार क एक और ृंखला म फँस जाते ह। नह , ये वचार कुछ अ धक पाने या कुछ अ धक बनाने से नह जुड़े, ये कसी को नुकसान प ँचाने से भी नह जुड़े, ये तो उनसे भी बदतर ह। ये आ म- वनाशक भाव ह, जो साधक को ब त ही संवेदनशील बना दे ते ह। ये आपको अधूरेपन का एहसास दलाते ह और आपको लगने लगता है क आप कभी भी इस अधूरेपन से उबर नह सकगे। आपके मन क आँख के सामने आपके बल ण, असफलताएँ और अतीत नाच उठता है और आप अपने भीतर छपी समृ क बजाए उन बात पर क त होने लगते ह जो आपके पास नह ह। तीसरी ं थ ं थ कहलाती है। यह आ ा च के ठ क बाद है। शव क भू मका संहारक क है, यह संहार अ नवाय तौर पर वनाश नह ब क समापन के प म भी होता है। इस ं थ को खोलने के लए दोहरी या को अपनाना होगा। पहले, आपको अपनी वनाशक सोच से उबरना होगा, आपको एहसास हो जाए क आपको अपने अतीत को थामे रहने क आव यकता नह है, आप समझ सक क आप अपने बीते ए कल को, आने वाले कल पर हावी नह होने दे ना चाहते। जब आप उस सजगता और वचनब ता के साथ यान लगाते ह, तो वनाशक वचार उसी तरह ओझल हो जाते ह, जैसे ताली क तेज़ आवाज़ से प ी डर कर उड़ जाते ह। सरी अव था इस बोध से जुड़ी है क सारे वचार अपने-आप म ख़ाली होते ह। इनम कोई सार नह होता और अगर म उ ह मह व नह दे ता तो वे अपने-आप कुछ नह कर सकते। अगर आप यान से दे ख, तो आप पाएँगे क हर दखाई दे ने वाली व तु का एक मूल, एक न त जीवन अव ध तथा समापन का एक ब है। यह ं थ आपके म त क म है य क वे कहते भी ह क यह

सब आपके दमाग के भीतर है। आप कुछ न त भाव को अनुभव कर सकते ह, आपके मन म इ छाएँ हो सकती ह, आप शारी रक आ मीयता क इ छा रख सकते ह। अगर आप अपने म त क से उस सोच को नकाल सके, तो इ छा या भाव इस तरह तरो हत हो जाएँगे मानो उनका कभी कोई अ त व था ही नह । इसी ं थ को खोलना सबसे क ठन होता है। यही आपके लए सबसे क ठन राह है। ं थ को खोलने से आप च यान के समय उठने वाले वचार को भी समा त करते ह। यही कुंड लनी जागरण क अं तम अव था है और सबसे गहन भी है। ढ़ समपण, लगन और एका ता के साथ साधक को शव क तरह योगी बनना पड़ता है ता क इस ं थ को खोला जा सके। जब आप ग त करने लगते ह, तो आप बना कसी यास के अपनी सोच के लए सजग होने लगते ह। जस तरह एक प ी वाभा वक तौर पर उड़ सकता है और एक मछली ाकृ तक तौर पर तैर सकती है, उसी तरह आप भी ाकृ तक तौर पर सजग हो जाते ह। भले ही कोई ं थ कतनी कठोर या उलझी ई य न हो, आप इसे ख चे बना नह खोल सकते। कुंड लनी यान म कुंठा या अधैय का कोई काम नह है। एक गंभीर साधक जानता है क उसे कतना धीरज रखना होगा। हम ं थ क पड़ताल के बाद, ढ़ कतु सहज भाव से उसे खोलना होगा। इस तरह आपको ा, व णु और ं थ को दे खना चा हए। थोड़ी पड़ताल, थोड़ा नरी ण, ब त सारा धैय और यास; इन सबके मेल से आप इस ं थ को खोल सकगे। तब कोई ं थ इतनी कठोर नह रह जाती। अगर आप इस पथ पर चलते ए, धैय न हार, तो आप वही नतीजे पा सकते ह, जो आप पाना चाहते थे। यही कारण है क म इसे कोई दशन नह ब क च व ान कहता ।ँ इसम एक सु न त कारण तथा भाव का संबंध है। इस द लीला म कुछ भी कारण तथा भाव के बना नह घटता। सब कुछ ब त ही सुंदरता के साथ आपस म जुड़ी ई, अंतः नभर तथा प पात से परे है।

वष पूव, जब धरती के महा प को सागर ने अलग नह कया था और कु छसारीकरोड़ धरती एक महा प के प म थी, तब एक वीर और बलशाली राजा सुसेन का

शासन था। अपने सा ा य को र- र तक फैलाने और वयं को एक च वत स ाट के प म था पत करने के लए, उनके राजक य सलाहकार ने परामश दया क उ ह अ मेध य रचाना चा हए। अ मेध य केवल ब त ही बलशाली और महान राजा ही कर सकते थे। इस तरह वे सरे रा य व शासक पर अपनी भुस ा लागू कर सकते थे। सबको अपने अधीन बना सकते थे। एक राजक य अ को वचरण करने के लए छोड़ दया जाता और राजा का सै य दल व सेनाप त अ के पीछे चलते। वह जस भी े म जाता, उसे राजा के अधीन मान लया जाता। अगर कोई शासक इस नई स ा को चुनौती दे ता और अ को बंद बनाता तो उसे र रं जत सं ाम म ाण दे ने पड़ते। सुसेन का अ सु र ांत तक जा प ँचा। कसी भी राजा म इतना साहस नह था क उसे चुनौती दे ता। कई स ताह बीत गए और उनके रा य ने अनेक नए रा य को अपने म मला लया। एक दन, अ सरोवर के पास पानी पीने के लए खड़ा आ। वह थान वन म थत शांत आ म के नकट था और उसके नकट ही गंड नामक एक वशाल पवत था। सरोवर से कुछ ही री पर, बरगद का पुराना वृ था और वह ब त र- र तक फैला आ था। उस वृ तले एक दै द यमान ऋ ष न ल भाव से समा ध म न थे, उनका नाम गण था। अपने प रवेश से अनजान, गण कसी चट् टान क तरह अडोल थे, उनक कुंडली सह ार म थत थी और वे उसी तरह अमृतपान कर रहे थे जस कार कोई बालक माता का तनपान करता है। राजा के अनेक मं ी सै य दल के साथ थे, उ ह ने उसी सरोवर के नकट डेरा डाल दया और ऋ ष के त स मान भी नह कट कया। वे म दरापान करते ए, आपस म बात करने लगे। सपा हय ने ही कुछ ही री पर खेमे गाड़ दए। गण के पु , वयं एक महान तप वी तथा ऋ ष थे, उ ह ने इस अनाव यक घुसपैठ और दं भ को दे खा। वे अपने पता के त अस मान के भाव को सह नह सके। वे गरजे, “मूख ! तुम भी अपने राजा क तरह मदम हो। जाओ, उसे जा कर कह दो क मने अ को बंद बना लया है।” मं य ने इस चेतावनी को गंभीरता से नह लया और सपा हय को आदे श दया गया क उस तप वी को उसी समय बंद बना लया जाए। युवा तप वी ने दे वी जया का रह यमयी मं जाप कया और अपनी ओर बढ़ रहे सपा हय को ण भर म भ मीभूत कर दया। यह सब ब त तेज़ी से आ, अभी कुछ मं ी तो अपने अ पर सवार भी नह ए थे। वे भय से काँपते ए, तप वी के पैर पर गर पड़े और उससे मा याचना करने लगे। उसने एक भी श द नह कहा। वह अ को ले कर पवत क ओर गया और दे खते ही दे खते ऐसे अलोप हो गया जैसे मृ यु के समय, दे ह से आ मा अलोप हो जाती है। उ ह ने गण के आगे णाम कया, जो अब भी अपनी समा ध म म न थे, और वे राजा के पास लौट गए।

सुसेन ने सारी बात सुनी और अपनी बु व बल के लए व यात छोटे भाई महासेन से कहा क वह ऋ ष के पास जा कर, वन भाव से मा याचना करे। उ ह ने कहा, “ कसी सै य दल को साथ मत ले जाना। उनके पास कसी साधक क तरह जाओ।” महासेन शी ही आ म के लए रवाना हो गए और कुछ स ताह क या ा के बाद वहाँ जा प ँच,े ऋ ष अब भी समा धलीन थे। उनका पु कोने म खड़ा हो कर इस तरह र ा कर रहा था, जैसे पलक आँख क र ा करती है। महासेन ने ऋ ष को सा ांग दं डवत कया और सुगं धत पु प , मेव , म ा तथा रेशमी शाले से सजी टोकरी उनके चरण म रख द । इसके बाद वे दोन हाथ जोड़ कर बैठ गए और ती ा करने लगे। गण के पु को महासेन का यह वनीत वभाव ब त भाया। “हे स जन पु ष! आप या चाहते ह? म इनका पु ँ।” महासेन ने उ ह भी णाम नवे दत कया और मंद वर म बोले, “य द आप आ ा द तो या म आपके पता से बात कर सकता ँ?” “म भी आपक मनोकामना पूरी कर सकता ँ। आप जो चाहगे, वही मलेगा। म वचन दे ता ँ।” महासेन ने उ र दया, “म आपका आभारी ।ँ कृपया मुझे अपने पता से बात करने का अवसर दान कर।” “मेरे पता इस केवल न वक प समा ध म लीन ह, सभी च का भेदन करते ए, उनक कुडं लनी सह ार तक जा प ँची है और वे सभी भौ तक त व तथा अपने शरीर क सभी माँग से परे और ऊपर जाते ए बैठे ह। वे बारह वष तक अव था से बाहर नह आएँगे। लगभग पाँच वष बीत गए ह और अभी सात वष का समय शेष है।” उ ह ने आगे कहा, “चूँ क मने आपको अपना वचन दे दया है इस लए म वचार का थानांतरण क ँ गा ता क उनक महाचेतना क अव था म तरंग पैदा हो सके।” युवा ऋ ष आलथी-पालथी लगा कर बैठ गए और गहन यान म डू ब गए। एक मु त, अड़तालीस मनट बाद, उ ह ने महासेन को दे ख कर कहा, “अब मेरे पता ी अपने मन के लए सजग हो गए ह, वे कसी भी ण अपने ने खोल दगे।” उनका वा य पूरा भी नह आ था क गण का वर सुनाई दया, “महासेन! द घायु भव!” महासेन ने ऋ ष के चरण थाम लए और अपने रा य क ओर से मा माँगने लगे। गण ने अपने पु को उसके बताव के लए फटकारा और कहा क वह अ को शी ही मु कर दे । अपने पता के स मुख मायाचना और प ाताप करने के बाद, युवा तप वी पवत क ओर गया। फर वह दे खते ही दे खते उसम गायब हो गया और जब वा पस आया तो य का अ उसके साथ था। महासेन ने वयं को चुटक काट और आँख मल , वे अपनी आँख पर यक न नह कर पा रहे थे मानो कोई सपना दे ख रहे ह । अ व ास का कोई कारण ही नह था, अ उनके सामने खड़ा था। उ ह ने युवा ऋ ष से पूछा, “हे महान तप वी! मने अभी आपको

पवत के बीच अलोप होते दे खा और फर जाने कहाँ से अचानक कट भी हो गए।” गण ने कसी नटखट बालक क तरह मु कुराते ए कहा, “इ ह भी अपना पवत दखाओ। इनक आयु ब त लंबी है।” अ को र सी से बाँध कर, युवा तप वी महासेन को पवत के नकट ले गए। महोसन अवाक् खड़े थे। उ ह ने कहा, “आइए! हम भीतर वेश कर।” “ वेश! कैसे?” वे सोचने लगे। वहाँ तो कोई ार ही नह था। उनके मन क बात जानने के बाद तप वी बोले, “यह मेरी रचना है और मेरे संसार का अनुभव पाने के लए आपको मेरी चेतना क अव था म आना होगा।” यह कह कर, वे महासेन के मन म वेश कर गए और चेतना का व तार कर दया। ज द ही, महासेन को अपना शरीर एक ठोस के प म नह ब क अरब -खरब न ही ईकाईय के प म दखने लगा, जनम से येक ऊजा का माग भर था; दरअसल उनम से येक ऊजा था। वे अनायास ही तप वी के पीछे चल दए और दोन ने पवत म एक साथ वेश कया। महासेन तो दं ग रह गए, उनके आ य श द म भी कट नह हो सकता था। वह भीतर से कोई पवत नह था, वह तो अपने-आप म पूरा ह्मा ड था। उसम अरब चमचम करते तारे, चं मा, न दयाँ, पवत, वृ , प ी, मछ लयाँ, तनपायी जीव तथा सरीसृप का वास था, उसम सब कुछ था। वह एक वशाल रचना थी। वे एक से सरे थान पर, काश क ग त से या ा करते रहे। रात के बाद दन नकला और सूय क र मय म, ऋ ष क रचना का स दय गना हो उठा। महासेन इतने व तार को दे ख भयभीत हो उठे । वे उन असं य सागर व अंतहीन वन क या ा के दौरान ऋ ष का हाथ थामे रहे। उ ह भय था क वे कह खो ही न जाएँ। इसी तरह पूरा दन बीत गया, महासेन को न तो भूख लगी और न ही थकान महसूस ई। “अब हम चलना चा हए।” ऋ ष बोले। “यह सब कतना अद्भुत है, यह तो एक अनूठा ह्मा ड है। कृपया, या हम यहाँ एक और दन नह ठहर सकते?” महासेन ने आ ह कया। ऋ ष हँस दए और बोले, “महासेन, मेरा व ास कर, हम वा पस जाना ही होगा।” उनक आ ा का पालन करते ए, महासेन पीछे चल दए और ज द ही वे दोन पवत से बाहर थे। बाहर तो सब कुछ अलग दखाई दे रहा था। केवल पुराना वृ वह था और गण उसी तरह साधना म लीन थे, जैसा वे उ ह छोड़ गए थे। उसके अ त र वहाँ कोई सरोवर नह था, एक बड़ी सी नद वेग से बह रही थी। अ का कोई अता-पता नह था। वृ भी अलग दखाई दे रहे थे, कुछ तो ब त ही बूढ़े हो गए थे। पशु और वानर आ द भी वैसे नह दख रहे थे, जैसे वे एक दन पूव थे। महासेन ने पूछा, “हम कहाँ ह? म महान ऋ षवर को तो दे ख सकता ँ कतु यह थान इतना अनजाना सा य दख रहा है?” “यह तो वही थान है।” ऋ ष ने उ र दया।

“यह केवल एक ही दन म इतना कैसे बदल सकता है?” महासेन ने अ व ास से पूछा। उ ह संदेह था क कह ऋ ष यहाँ भी अपनी कोई लीला तो नह दखा रहे थे! गण के पु हँसे और फर गंभीर होते ए बोले, “महासेन, समय तो सापे होता है। मेरा संसार, तु हारे संसार के कालच से अलग चलता है।” महासेन इस तरह तं भत दखे मानो कोई बालक मेले म खो गया हो। उ ह युवा ऋ ष क बात पर व ास नह हो रहा था। तप वी ने उनक वधा को भांपते ए प कया, “महासेन, धरती पर बारह हज़ार वष का समय बीत चुका है।” “बारह हज़ार वष!” “ह म! मेरे ा ड का एक दन, यहाँ के बारह हज़ार वष के समान है।” “मेरे भाई, मेरी प नी, मेरे ब च और रा य का या आ?” महासेन ने इस तरह पूछा मानो अभी-अभी सपने से जगे ह , यह भावना पूरी तरह से ग़लत भी नह थी। “महासेन! वे सब तो चले गए,” ऋ ष बोले। “समय का प हया कभी कसी के लए नह कता।” महासेन वह ढह गए मानो कसी लता से वृ का अवलंब छ न लया गया हो, उ ह ने अपना सर दोन हाथ म थाम लया, वे कसी बालक क तरह रो रहे थे। “सुनो, महासेन! तुम कौन व कसके लए रो रहे हो, यहाँ तो कुछ भी थायी नह है। महासेन! यह धरती, सतारे, सूय, ा ड तु हारे भाई, प रवार, तु हारी दे ह या ऐसा कुछ भी जसे तुम छू सकते हो, दे ख सकते हो, सूंघ सकते हो, सुन सकते हो या महसूस कर सकते हो; इनम से कुछ भी तो शा त नह है।” “यहाँ कोई भी मर नह रहा और न ही जी वत है। यह सब एक बड़ा म है। या तु ह दखता नह ? तु ह तो मेरा वह संसार भी असली लगा था, वह मेरी चेतना से सरजा गया था। ठ क इसी तरह, यह संसार भी सामू हक चेतना का ही सृजन है। मेरे पता को दे खो, वे अब भी वह उप थत ह, हज़ार वष बाद भी, य क उ ह ने ऊजा के ोत को पा लया है। उनके शरीर म कोई ग त व ध नह थी इस लए कोई प रवतन या य भी नह आ।” उनके श द ने, महासेन के खी दय के लए मलहम का काम कया और उ ह ने रोना बंद कर दया। वे उस तरह शांत हो गए, जस तरह कसी यासे राही को, रे ग तान म शु जल पी कर शां त मल जाती है। ऋ ष आगे बोले, “मन थर होने पर शा त हो जाता है। ग त व ध के अभाव म प रवतन हो ही नह सकता। स य थर है, तभी तो वह शा त है।” “हे ऋ ष! कृपा कर, मुझे उस स य को दे खने म सहायता दान कर।” महासेन युवा तप वी के चरण म लोट गए। उ ह ने उ र दया, “हे े बु ! आप जन व तु को अपनी इं य के मा यम से अनुभव करत ह, वह स य नह है। स य को दे खा नह जा सकता, इसे अनुभव करना पड़ता है। यह धरती पर सूय दय क तरह कट होता है।”

“मुझे उस स य का अनुभव पाने के लए या करना चा हए?” “जाओ, जा कर यान करो। अपने भीतर छपी ऊजा को जा त करो ता क तु ह आ मबोध हो सके और तुम अपने ही ा ड के वामी बन सको।” महासेन ऋ ष के चरण म बैठे और ऋ ष ने उ ह ा ड के सभी रह य से अवगत कराते ए चेतना क तीन अव था — जागृ त, व तथा न ा के वषय म व तार से बताया। ऋ ष के बु मतापूण वचन से सश व स य को जानने क ती लालसा के साथ, महासेन वन म जा कर, घोर तप करने लगे। उ ह ने तब तक तप कया जब तक उ ह आ मबोध नह हो गया। वे कुंड लनी के सह ार तक प ँचने क ती ा म थर भाव से बैठे रहे। महासेन ने अपनी ही अनंत बु मता को पा कर, अपने लए बोध अ जत कया। कुंड लनी का जागरण, आपक अपनी वशु अमूत बु मता का बोध है, यह आपके भय, भाव तथा चता से परे होती है। यह आपक सौ य कृ त है। जब आप ऊजा के इस सु त ोत को पाने के यो य हो जाते ह, तो आप सही मायन म अपने संसार के वामी हो जाते ह। आप अपने जीवन म मनचाहे प रणाम ला सकते ह य क अब आपक चेतना का दायरा, केवल आपक दे ह तक सी मत नह रहा; यह सारे संसार पर ा त हो गया है। य द आप यान द, तो आप पाएँगे क भले ही कसी दन कतनी भी गम य न हो, सूरज क उजली और गम करण कसी को जलाती नह ह। व तुएँ गम हो सकती ह, पघल सकती ह पर उनम आग नह लगती। वह सरी ओर, य द आप सूय के काश को एक लस से गुज़ार तो आप एक मनट के भीतर ही चगारी पैदा कर सकते ह। कसी भी बाधा से र हत यह क , उसी सूय के काश को एक गहरी करण म बदल दे ता है। आपक कुंड लनी भी जा त होते समय, ऐसी ही गहन हो उठती है। आपके मे दं ड म थत सु त ऊ मा के बादल से ले कर, यह एक करण के प म बदलने लगती है और फर सबसे अ धक श शाली हो जाती है। जब तक यह आपके सह ार तक आती है, यह एक वशाल श के ोत से जा मलती है। वचार , इ छा , भाव , भय व फो बया से मु पाते ही, यह आपको एक साधक, एक पारंगत और एक स म बदल दे ती है, जसके आदे श से सब कुछ संभव हो सकता है। कुंड लनी क सु त ऊजा हम सबके भीतर उसी तरह समाई है जैसे लकड़ी म अ न छपी रहती है। हमारे भय तथा सं कार हम पीछे रोके रखते ह। वे हमारी रचना मक ऊजा को सबसे नचले च क ओर धकेल दे ते ह और हम अपने जीवन का ह सा, छोट बात क पू त के लए ही इस श का उपयोग करते रह जाते ह। हम जतने समय तक जी वत रहते ह, उसम से अ धकतर समय अपने-आप से या सर से लड़ते ए ही बीत जाता है। संसार से लड़ने और अपने मन म नकारा मकता को भरने क कोई तुक नह बनती। हमारे पास यह चुनाव रहता है क हम उसी पथ पर चल जो हमारे लए रचना मकता और ऊजा को लाने मा यम बन सके।

पु षो चत व

ैण ऊजा

पर नपुणता पाना

शव क उलझी ई जटा क येक लट, हमारी सोच क श क ओर संकेत करती है और सह ार उनक जटाएँ ह। योगी अपने सर के हर बाल से, वीरभ , भ काली तथा ैण व पु षो चत ऊजा को कट कर सकता है, जो आपक ओर से, आपके ल य क पू त म सहायक ह गी। सती का व वंस, कुंड लनी क श , आपके सु त बल का सूचक है, जो इतना श शाली है जो आपको भी जला सकता है, आपके भीतर के म या भाव को जला सकता है। आप सोच सकते ह क आपके भीतर म या या है? हमारे अ धकतर लेबल जैसे बहन, भाई, बेट , बेटा, माता, पता, प त, प नी आ द हम गढ़ते ह, और हमारे वहार को नद शत करते ह। परंतु, इन भू मका से परे, एक ी या पु ष होने से परे, आपके अपने शरीर से भी परे, हमारी वशु ऊजा है, यही ऊजा हमारे अ त व और मता का आधार है। योगी अपने-आप म अधूरा है य क वह केवल अपने संकट और बाक सबको ही जला सकता है। शव ने म मथ को भ म कर दया था। परंतु यह द घकालीन हल नह य क हमारे संकट या क भी संभा वत ऊजा ह। केवल वे दशाहीन ह। उ ह सही दशा दे ना, उ चत माग दखाना और नय मत करना ही बेहतर होगा। और ऐसा करने के लए, हम अपने भीतर बसी तकूलता के त सहज होना चा हए। शव और श का संयोग दे व क र ा के लए आ, यह आपक उन श य का सूचक है, जो कुंड लनी और सह ार क भट के समय कट होती ह, जब आपके वपरीत ुव भीतर ही भीतर अपने ोत से मल जाते ह, य क दे व आपके सद्भाव ह। वे इं के अधीन ह। इं का अथ है इं य और आपका मन इं य पर शासन करता है। यह आसानी से डर जाता है, यह अपना बचाव करने लगता है। यही वजह है क जब भी कोई गहन तप या करने लगता है तो इं भयभीत हो उठते ह। गहन तप से वाचाल मन पूरी तरह से शांत हो जाता है। दानव या रा स हमारे वाथ प का त न ध व करते ह, हमारे आव यकता से अ धक आ म- चतन, हमारे नकारा मक भाव और हमारे भाव है। इनके कारण मन भटकता है, य क दानव दे व को कुचल दे ते ह, परंतु जब शव जैसे योगी का श से संयोग होता है, तो उस संयोग से चेतना क एक अव था उभरती है, जो दानव कोवा म कर लेती है। धम अधम को परा त कर दे ता है। च का भेदन तथा कुंड लनी जागरण इतना दा य वपूण कृ य है, जसे कोई भी, केवल इसी कारण से अपना सकता है क एक योगी अपने भाव तथा भावना के लए संसार को दोषी नह ठहराता। ऐसा करने से कोई भी अपनी संभावना के शखर तक नह जा सकता। एक योगी अपने ही भीतर सारे उ र क तलाश करता है य क य द म सही मायन म अपने ा ड का वामी ँ तो मुझे एक स ाट क तरह ही सोचना चा हए, काम करना चा हए और पेश आना चा हए। ल लता सह नाम म पहला श द है, ीमाता, द माता ही मेरी अं तम शरण थली ह। और कुंड लनी क तरह, वे आपके भी भीतर ह। योगी कहते ह, “मुझे वयं अपना

आ य खोजना चा हए।” अगला श द है, ‘ ीमहारा ी’। जस ण म, म वयं को अपने वामी के प म दे खता और अनुभव करता ँ, कुंड लनी का सह ार से मेल करती है, वह स ा ी हो जाती है। तब आप अपने ही संसार के वामी हो जाते ह। ल लता सह नाम म तीसरा नाम है, ी-मत- सहासने री, और फर आप पूरी अनुकंपा, संक प तथा भ ता के साथ अपने ही सहासन पर वराजते ह। चौथा नाम है, ‘ चद्-अ न-कुंड-स भूता-दे व-काय-समुदयता।’ ् तब आप वशु के ऐसे तर पर आ जाते ह, जहाँ केवल आपक वचार श मा से आप महान काय कर सकते ह। वह श आपके वशु मन के अ न कुंड से कसी चगारी क तरह कट होती है। जब सब कुछ आपके भीतर है, तो आपके पास या नह है? जब ा ड का ोत आपके भीतर कुंड लनी के प म छपा है और सह ार तक जाने क ती ा म है, तो ऐसा या है जसे आप ा त नह कर सकते? आप वयं ही चुनाव कर क आप द क तरह दं भी और ोधी बनना चाहते ह या सती के समान न ावान, शव के समान योगी या फर महासेन के समान साधक, गण और उनके पु के समान ऋ ष बनना चाहते ह। ये आपके अपने चुनाव ह। अपने-आप को भीतर से उठने द और आप इनम से कुछ भी हो सकते ह। ‘उदय-भानु-सह -आभा-चतु-बा -सम वता’, पाँचव नाम का अथ है क अपने जीवन के चार पु षाथ (धम, अथ, काम, मो ) पूरे करने से आप बु मता, ववेक व स य से इस कार का शत हो उठगे, मानो हज़ार सूय एक साथ चमक उठे ह। जाइए! अपनी मता का जागरण क जए ता क आपको बोध हो सके क आप कौन ह। कैसे, आपने पूछा? अब आप च तथा कुंड लनी के शा दक, वा त वक और गुहय ् अथ जान गए ह, म आपको दखाता ँ क इस द ऊजा को कैसे जा त कर सकते ह।

अ छ तरह याद है, बाहर ब त ज़ोर से हमपात हो रहा था। कोई प ी नह मु झेचहचहा रहे थे, मेरी कु टया के बाहर से सूअर के गुराने का वर सुनाई नह दे रहा

था, हरण का वर भी नह सुनाई दे रहा था। वृ नह झूम रहे थे, वायु नह बह रही थी। मेरी कु टया क छत और बाहर धरती पर चुपचाप ई के फाह सी बफ पड़ रही थी और नीरव स ाटे के सवा कुछ नह था। गहन स ाटे को, गहन यान के लए उपयु प रवेश माना जा सकता है। परंतु उस उपयु प रवेश के बावजूद, उस एकांत और गहन मौन के बीच भी, मेरा मन अशांत था, वह ब त था। कई माह बीत गए थे और कई हज़ार घंट तक यान लगाने के बावजूद, मने अपने च पर कसी भी तरह क संवेदना अनुभव नह क थी। मेरे भीतर कुंड लनी जागरण का कोई संकेत नह था। उस दन तक, केवल लंबे समय तक बैठने के कारण शरीर म होने वाली ठन और पीड़ा का ही उपहार मला था और इसके अ त र व य ाणी मेरे चरंतन सखा हो गए थे। म थर था पर ने से अ ु क धारा वा हत हो रही थी। पहली कुछ बूँद तो बढ़ ई दाढ़ म ही खो कर रह ग पर जब उनका वाह नह थमा, तो वे मेरी छाती पर गरने लग । वे पहले तो गम लगत और फर ठं डी हो जात । वे मेरे यान म बाधा बन रही थ पर म उ ह रोक नह पा रह था। हथे लयाँ गोद म टक थ और पास ही जंगली चूहे धमाचौकड़ी मचा रहे थे। वे आसपास ऐसे च कर लगा रहे थे मानो मेरी द णा कर रहे ह । इसम मेरा कोई मनोरंजन नह हो रहा था। मेरी आँख से उसी तरह आँसु क झड़ी लगी रही, जैसे आकाश से वषा क बूँद गरती रहती ह। ये ा या परमानंद के अ ु नह थे। म रो रहा था य क म बुरी तरह से नराश हो कर, थक चुका था। इस समय म जस नराशा से गुज़र रहा था, उसके आगे तो वह क और पीड़ा कुछ भी नह थी जब मने अपने ही काम को छोड़ कर, पाँच व वध समय अंतराल म काम करने का अनुभव पाया था। यह कोई आम थकान नह थी, म उदास था य क म अपनी ओर से हर संभव यास कर चुका था और फर भी वह खड़ा था, जहाँ से पहले दन चला था। जब से म हमालय पर गया था, तभी से पूरे अनुशासन के साथ यान क कड़ी दनचया का पालन करता आ रहा था; इसम एक बार भी वधान नह आने दया था। चौबीस घंट म नाममा का भोजन लेता था ता क शरीर म आल य न आए। अ धकतर शू य से नीचे के तापमान म रहते ए भी, त दन बफ ले जल से नान करता। म थोड़ीथोड़ी दे र क झप कयाँ लेता ता क अपना अ धकतर समय गहन तप यचा को दे सकूँ। म फ़श पर ही बैठता और सोता था, कसी भी आरामदायक बछौने के अभाव म, मेरे लए नरंतर सजगता को बनाए रखना आसान हो जाता। म भूल ही गया था क कुस पर बैठना कैसा लगता है। महीन बीत गए थे, मने न तो भरपेट भोजन कया था और न ही ब तर पर सोया था। मेरी कु टया जीण-शीण अव था म, स यता से ब त र बनी थी। बफ ली हवा, मेरी ह ड् डय से उसी तरह नकलती जैसे कसी पंज से पानी नकलता है। वहाँ बजली, समु चत शौचालय या नल के पानी क सु वधा नह थी। वह एक ाचीन काल जैसा वातावरण था, वैसा जसम कभी महान ऋ ष-मु न रहते ह गे।

बाहरी जगत से पूरी तरह संपक तोड़ कर, कसी भी मनु य के संपक से र, म कड़े मौन और एकांत के बीच साधना कर रहा था। मने यथासंभव, हर चीज़ का प र याग कर दया था, केवल मेरा अपना जीवन एक अपवाद था और फर भी, कह से कोई काश करण नह दख रही थी। मुझे यह नह लगा क ाकृ तक बल मेरी परी ा ले रहे थे। मुझे लगा क वे मेरा अपमान कर रहे थे। जी हाँ, मने वयं को अपमा नत अनुभव कया यो क सभी तक व कारण से परे, म अपने मन क पुकार को पूरा करने के लए, सब कुछ पीछे छोड़ आया था। हो सकता है, मने ही ग़लत नंबर मला दया था या फर शायद मेरी तड़प ही झूठ रही होगी। और म नह जानता था क इनम से कौन सी बात अ धक अपमानजनक थी — यह मान कर वष क साधना को याग दे ना क वह मेरी अंधभ थी और मने एक थ काज के लए जीवन न कया या यह जाने बना, अपनी साधना को जारी रखना क उसम कोई स यता थी भी या नह । परंतु, म एक बात जानता था। अगर मुझे अपने ही स य के अ वेषण का एक भी अवसर मल सकता था, तो वह इस तरह सब कुछ छोड़ने से तो कभी नह मल सकता था। एक बार फर से, पूरे संक प के साथ, मने अ ु प छे , अपने संक प को दोहराया और गहरी लगन और व ास के साथ यानम न हो गया। आप यह न मान ल क मनोबल बनाए रखने के बारे म सोचते ही, मेरा पथ आसान हो गया। इसके वपरीत, मेरा संक प जतना प का होता गया, भीतर के आलोचक का वर भी उतना ही मुखर होता गया। मेरे पास व ास था, पर मेरे पास एक संदेही मन भी था जो सदै व तक और कारण क तलाश म रहता था। मेरे करने वाले मन क बजाए संदेही मन से अ धक परेशानी थी। हम सबके पास दो मन होते ह, आप जानते ह। हमारा सकारा मक मन सुंदर क तूरी हरण क तरह है। यह भाव तथा वचार के वन म अपनी सुगं ध फैलाते ए दौड़ता है। यह ब त ही फुत ला, तेज़ ग त वाला और आ म व ास से भरपूर होता है। यह कसी से नह टकराता। यह अपनी राह वयं बनाता है। भा य से, हमारा नकारा मक मन, आ म-संदेह और नकारा मकता के दो लंबे स ग वाले बदसूरत तलचट् टे जैसा है। यह हमारी आशा के सुंदर ंजन और हमारे सपन के सुंदर घर म घूमता रहता है। यह ब त तेज़ी से पनपता है। यह आपको लगातार याद दलाता रहता है क आप यह काम नह कर सकते या आप कुछ भी पाने के अ धकारी नह ह। आप आशा और सपन के महल संजोते ह, पर आ मसंदेह क एक लहर या अपराध बोध का एक झटका आते ही सब रेत के ढे र म बदल जाता है। इसे आप तट से अलग करके भी नह दे ख पाते। और आप वयं को रेत के एक कण क तरह दे खने लगते ह, जैसे समंदर के कनारे, इस संसार म सभी दे खते ह। आपको लगने लगता है क आपके भीतर कोई खूबी नह है, आप कोई महल नह बना सकते या उसम नह रह सकते। मेरे लए साधना का पथ भी कुछ ऐसा ही था। कभी-कभी लगता क म ग त कर रहा था और कई बार सब कुछ नरथक लगने लगता। एक दन, म अपने-आप को महान योगी मानने लगता तो हमालय क कठोर जलवायु को भी जीत सकता था, कोई ऐसा

योगी जसे हसक पशु का भय नह था, एक योगी जो चूह , कुतरने वाले जीव , ब छु और सप के बीच फ़श पर सो सकता था। अगले ही दन, ऐसा लगने लगता मानो मेरा उपहास कया जा रहा था, मुझे ऐसे मूख क तरह दे खा जा रहा था जो अपना सब कुछ याग कर, जीवन क सारी सुख-सु वधा से परे, कसी जंगली गुहामानव क तरह स यता से र आ गया था। “तुम कर या रहे हो? या पाने क आस रखते हो? या तु ह सचमुच लगता है क तुम इस युग और समय म कुंड लनी जगा सकते हो? या तु ह लगता है क ई र य प से दशन दगे? तुमने मुझे बुरी तरह से तोड़ दया है, तुमने! म तुम पर भरोसा नह कर सकता। इतनी श ा और ान पाने के बाद भी ऐसी मूखतापूण बात पर भरोसा रखते हो!” अ सर मेरा मन साधना के बारे म ऐसे ही संदेह और सवाल क झड़ी लगा दे ता। यह मेरे भरोसे को तोड़ने और मनोबल को कमजोर करना चाहता था। यह कई बार सफल भी आ पर वह णक और अ थायी ही रहा। धीरे-धीरे, मने जाना क यह कोलाहल के अ त र कुछ नह था। यह मेरे मन का आधारहीन लाप था जो मेरी पसंद या नापसंद पर आधा रत नह था। यह कसी व त क तरह, लगातार बड़-बड़ करता रहता और इसे चुप कराने का एकमा उपाय यही था क इसक ओर यान ही नह दया जाए। मने तय कया क अपने संदेहवाद से लड़ने क बजाए उसे उपे त करना होगा। मने अपना पूरा यान पलटा और सारी चेतना को साधना के लए क त कर दया। मने आ म-संदेह पर व ास को य दया। मने थगन क बजाए अनुशासन को चुना। मने नराशा के थान पर आशा का चुनाव कया। म उसी तरह यान करता रहा, जैसे गंगा अंतहीन प से वा हत रहती है। इसी दौरान, मानूसन आ कर चला गया। पतझड़ के आने से हरे-भरे पवत उजाड़ दखने लगे। शु कता और भयंकर शीत ऋतु आ रही थी। दन ब त छोटे हो गए थे। शीत ऋतु के आने क सूचना मल चुक थी। अ धकतर दन तक हमपात होता रहता। परंतु, अंततः, सभी मौसम क तरह, वे दन भी बीत गए। सूरज अब लंबे समय तक धरती पर टकने लगा था, दन पहले से कह यादा धूप से चमकने लगे थे। वृ पर सुंदर लाल, सफेद और जामुनी रंग क छटा दखने लगी। न हे फूल ने सारी धरती को ढांप दया। पुराने वृ पर नई प े उग रही थ । कृ त को दे ख कर ऐसा लगता था मानो वह अपने जीवन के सबसे मह वपूण ण के लए सज रही हो। चार ओर गलह रयाँ, सप, हरण, जंगली सूअर, लंगूर, नेवले, खरगोश और व छु दखने लगे। यह कसी वशाल उ सव जैसा दखता था। बसंत आ प ँचा था। पर मेरा अपना दय अब भी उसी तरह बंजर था जैसे शीत ऋतु म हम से ढका कोई बाग — हमशीतल और शु । मेरे अ त व म कोई समरसता, धुन या ताल नह थी। म अब भी एक संघषशील साधक था, जो अपने यान क लां तकर दनचया से चपका आ था। म अब भी अपने पूरे साहस और बल को संजोते ए यान लगा रहा था। बसंत ने भी अपनी या ा समा त क और फर से अपनी दै वीय माता क गोद म लौट

गया, और अब पुनः वषा होने लगी थी। कृ त क हर चीज़ अपना प बदल कर, आगे बढ़ चुक थी। सब कुछ और हर चीज़, बस एक म ही अपवाद था। म अब भी वह था, जहाँ से चला था — कुछ समझ नह आ रहा था। समय-समय पर कुछ अनुभव और झल कयाँ तो सामने आते पर इनम से कुछ भी ऐसा नह था जो नरंतर व अटल हो। तब तक, म अपने सारे च व सह ार तक असाधारण व गहन संवेदना को अनुभव कर चुका था, परंतु वे मेरा यान स समा त होते ही ओझल हो जाते। मुझे यह वीकार नह था। मानो आपने प र म से लाख डॉलर अ जत कए ह परंतु आप उ ह केवल तब तक ही य कर सकते ह , जब तक आप बक म ह । जस ण आप भवन से पैर बाहर नकालगे, आपके खाते का शेष शू य पर आ जाएगा। म उस महाचेतना, उस असाधारण सजगता क अव था का अनुभव पाने के लए मरा जा रहा था, जब आप अपने आसपास क हर व तु के साथ एकाकार अनुभव करने लगते ह, वह महा संयोग, जो सदा आपके साथ बना रहता है। मेरे अनुसार, यही स ची समा ध का शा त परमानंद था। यह मेरी आ या मक संपदा, मेरी दे वी, कुंड लनी जागरण था। मने इस थायी परमानंद को पाने के लए। अ थायी भौ तक जगत को याग दया था और अगर यह भी एक अ थायी भाव था, तो मुझे भी गाँजा चढ़ा कर स रहना चा हए था। छटपुट अनुभव तथा मली-जुली गहन संवेदना के अ त र मेरे पास कोई पूँजी नह थी। और एक दन! मेरी टू ट झ पड़ी क तरपाल पर बा रश क बूँद ऐसे गर रही थ जैसे ाकुल मन म वचार तरंग उठ रही ह । सौ य हमालयी जल के ये मोती, छत पर गरते और फर आपस म वलय होते ए, पुनः जल बन जाते। उनम से कुछ जल दरार से रस कर झ पड़ी म आ रहा था और मेरे आसन से कुछ इंच क री पर जमा होता जा रहा था। म पूरी तरह से सजग, कतु अपने ही भाव म म न थर बैठा था। उस दन क सजगता कुछ अलग ही थी; मने ऐसा अनुभव पहले कभी नह पाया था। म धरती पर गरने वाली एक-एक बूँद को सुन सकता था। म सरी बूँद से उसके मेल को भी महसूस कर सकता था। म उ ह आपस म मलते और झ पड़ी म छोट खड् डे बनाने वाली दरार के भीतर रसने से पहले छोट ना लय म बदलते भी दे ख सकता था। ने तो अब भी बंद थे, मने झ पड़ी क सरी ओर अपना यान लगाया। अब वषा सुनाई नह दे रही थी, जब क तरपाल पर गरती बूँद का वर कान को बहरा कर रहा था। इसक बजाए, मने एक द वार पर रगते मकड़े को सुना। म भांप सकता था क वह पतली टाँग से कैसे सावधानी से चल रहा था। मानो उसक आठ झबरी टाँग म न ह ससर लगे ह य क वे पूरी लय और ताल के साथ उठ रही थ । वे टाँग आसपास के प रवेश का ऐसा जायज़ा ले रही थ मानो उनका भी अपना दमाग हो। म सुन सकता था क मकड़ा कस तरह वायु म ा त खतर को सूंघते ए आगे जा रहा था। म यह सब अपने मन क आँख से इसी तरह साफ़-साफ़ दे ख रहा था जैसे कोई खुली आँख से वशाल पवत को दे ख।े म मकड़े क हर ग त व ध को सुन सकता था। तभी मन म एक

संदेह उठा। या यह सब असल म घट रहा था या मेरी क पना मा थी? मने अचानक अपने ने खोल दए और मकड़े क दशा म दे खा। वह वह थी और ठ क उसी तरह चल रहा था, जैसे मने दे खा था। मने बाहर क ओर यान दया तो पाया क वषा का कानफोडू वर फर से सुनाई दे ने लगा था, मानो वषा क हर बूँद उसी तरह अपनी हा ज़री भर रही हो जैसे क ा म छा करते ह। चार ओर ा त इस सजगता के बीच, आप एक ऐसे संयोग को अनुभव करते ह, जो श द से कह परे है। म अपने आसपास क हर चीज़ को केवल सुन ही नह रहा था, म इसे महसूस कर रहा था। जो ऊजा पानी को चलायमान करती है, वही आपको भी चलाती है। वही जीवनी ऊजा जो एक मकड़े के दल को धड़काती है, वही आपके दल को भी धड़काती है। यह एक सामा य सेतु है, ऊजा का अखंड वाह, जस पर ा डीय अ त व के मोती संजोए जाते ह। अ त व व सजगता के अ य आयाम धीरे-धीरे इस तरह खुलते जा रहे थे मानो सूय दय होते समय कमल क पंखु ड़याँ खुल जाती ह। लगभग पचह र लाख काश वष क री पर, मुझे एक ह के अ त व का पता चला, जो हमारी पृ वी के आकार से ढाई गुना बड़ा था। पानी, ह रयाली और सजीव से भरपूर था। मने एक और ह दे खा, जो हमारे ब त नकट, लगभग 500 काश वष क री पर था। कई माह बाद, जब म हमालय से उतरा, तो यह पता चला क नासा ने, कैपलर-22 नामक एक ह होने क पु क है, जो पृ वी से लगभग 600 काश वष क री पर है। मुझे आ य नह आ था। वे गहन संवेदनाएँ, वह जागरण, मेरे मन क थायी अव था बन चुके थे। अब मेरे जीवन क नाव, परमानंद और समरसता के महासागर म ब त ही आनंद से तैर रही थी। मने चलते ए, बोलते ए, खाते ए, बात करते ए, बैठे रहने के दौरान और कोई भी काम करते समय, इस नए परमानंद का अनुभव पाने लगा। अब मने अपना भंडार पा लया था, मेरी संपदा मेरे भीतर थी। मुझे बोध आ क कुंड लनी वा तव म होती है और इसका जागरण, दे वी का बोध होने से कम नह है। जब आप जागरण के पथ पर चलते ह, तो आप दे खने लगते ह क हमारे ा डम हर चीज़ कस तरह अंतः नभर व अंतःसंबंध रखती है और इसका कोई अपवाद नह है। आपक चेतना व आपक अंत का दायरा नरंतर व तार पाने लगता है। जस तरह न हे मकड़े क वह छोट सी हलचल भी, मेरी चेतना म वेश कर गई थी, आपको भी एहसास होने लगता है क आपसे लाख मील क री पर थत, कोई छोटा सा भी कम भी, कैसे आपको भा वत कर सकता है या इसके वपरीत आप उसे भा वत कर सकते ह। यह अंत ही मु का बीज है। तब आप वयं को एक वतं स ा के प म नह दे खते, जो अ त व के लए संघष कर रहा हो। यह अपने-आप म मु कर दे ने वाली भावना है और एक थायी कार क गहन शां त व अवशोषण क ओर ले जाती है। इससे भी यादा ख़ूबसूरत बात यह है क जो भी कोई अपनी ओर से यास करना चाहे, वह इस अनुभव को पा सकता है। कुल मला कर : य द आप भी वही करते ह, जो मने कया, तो आप वही पाएँगे, जो

मने पाया। यही साधना का साधारण व ान है। म आपको दखाता ँ क वा त वक अ यास कहाँ से आरंभ करना चा हए।





थत

कुंड लनी साधना आरंभ करने से पहले, आपको अपने शरीर म च क उ चत थ त के बारे म जानना होगा। छह च और सह ार एक ही पं म ह और उनके बीच का अंतर कुछ सट मीटर से अलग हो सकता है, जो आपके शरीर क लंबाई, गठन और ढाँचे पर नभर करता है। च क सट क थ त का पता होना ब त मायने रखता है। ऐसा करने से, आपके लए सफलता पाने के अवसर बढ़ जाते ह य क जब आप सही ब पर यान रमाते ह, तो छह माह के भीतर वहाँ गहन संवेदना उ प होने लगती है। आपको सखाया जा रहा है क आप अपने शरीर म च के उ चत थान का पता कैसे लगा सकते ह। य द आप दाएँ हाथ से काम करते ह तो दाएँ हाथ का योग कर और अगर आप बाएँ हाथ से काम करते ह तो बाएँ हाथ का योग कर। 1. अपने हाथ क सबसे छोट अंगुली ना भ पर रख। आपक ना भ, ना भ क या म णपुर च है। 2. अपने हाथ को पूरी तरह से ऊपर क ओर ख च और दे ख क अंगूठे क नोक कहाँ पश करती है। यह आपका दय क व अनाहत च है। 3. अब अपनी छोट अंगुली ठ क उसी जगह रख, जहाँ आपके अंगूठे ने दय क को पश कया था और एक बार फर से अपने हाथ को पूरा फैलाते ए यह दे ख क अंगूठा कस ब को छू रहा है। यह आपका वशु च है। 4. एक बार फर अपनी छोट अंगुली ठ क उसी जगह रख, जहाँ आपके अंगूठे ने कंठ क को पश कया था और एक बार फर से अपने हाथ को पूरा फैलाते ए यह दे ख क अंगूठा कस ब को छू रहा है। यह आपका आ ा च है। 5. अपनी छोट अंगुली ठ क उसी जगह रख, जहाँ आपके अंगूठे ने भ ह के म य क को पश कया था और एक बार फर से अपने हाथ को पूरा फैलाते ए यह दे ख क अंगूठा कस ब को छू रहा है। यह आपका सह ार है। 6. अब ना भ पर वा पस जाएँ। अपने अंगूठे को ना भ पर रख, अपने हाथ को नीचे क ओर फैलाएँ और अब आप अपने वा ध ान च को पश कर रहे ह। 7. उस थान पर छोट अंगुली रख, जहाँ अभी आपका अंगूठा था और अपने हाथ को पूरी तरह से नीचे क ओर फैलाएँ। अब आपक छोट अंगुली जसे छू रही है, वह आपका मूलाधार च है। यह यान द क अंगुली से ले कर अंगूठे तक मापते समय आपके हाथ क गरह पूरी तरह से खुली होनी चा हए। जस तरह आप अपनी बाँह फैलाते ह, तो आपके हाथ क म यमा अंगुली के पोर से ले कर सरे हाथ क म यमा के पोर तक क लंबाई, आपके शरीर क लंबाई जतनी होती है। एक से सरे च के बीच भी एक गरह का अंतर होता है। केवल आपका हाथ ही आपके शरीर म थत च क वा त वक थ त का अनुमान

लगा सकता है।



यान के पाँच त व

इस ब से, हम उन सभी बात से आपको परे ले जाना चाहगे, जो आपने आज तक, कसी भी पाठ् य म, च के बारे म पढ़ ह। स ची च साधना म, पंखु ड़य क सं या, संबं धत इ तथा हर पंखुड़ी पर लखे व वध वण क कोई भू मका नह है। एका ता क गुणव ा, गहनता व अव ध ही एकमा कारक ह। ऐसा कुछ भी जो आपको एका ता बढ़ाने म सहायक हो, वह आपक कुंड लनी जागरण म सहायक हो सकती है। य द आप योग आसन (मु ा ), बंध तथा मु ा का अ यास करते ह, तो उ ह करना जारी रख। वे आपके शरीर क फ़टनेस से संबंध रखते ह और वे लंबे समय तक शरीर के बैठने क यो यता म सुधार करगे। य द आप ाणायाम, ास नयमन या फर कोई और ायाम करते ह तो उ ह भी करते रह। ये सभी सहायक अ यास ह, जो यान म सहायक ह गे। हालां क च साधना के दौरान इनका योगदान या मह व नाममा का ही है। येक च के लए, पाँच मह वपूण त व ऐसे ह जो आपक सफलता के अवसर को भा वत कर सकते ह :

1. मान सक च ण च पर लखे येक अ याय म, मने येक च से जुड़े रंग के बारे म बताया है। केवल मान सक च ण ही मह व रखता है। आपको संबं धत इ और अ य उपादान से उलझने क आव यकता नह है। अगर आप पंखु ड़य क सं या गनते ए, यान का अ यास करना चाहगे तो एका होने म क ठनाई होगी। आपका मान सक च ण जतना सादा होगा, यान उतना ही भावी होता जाएगा। हर च के लए केवल उसके रंग का मान सक च ण कर और उस च के थान पर यान लगाएँ।

2. मं येक च का प व वण, ऊजा का एक स म बीज है। जब आप म यम अव था म आ जाएँग,े तो आपको एहसास होगा क येक च वा तव म अपने बीज वण के साथ गुंज रत होता है। यहाँ याद रखने यो य मह वपूण बात यह है क आप मान सक च ण और मं जाप एक साथ नह कर सकते। आपको येक च के लए अपने समय को मान सक च ण और च साधना के बीच वभा जत करना होगा। जब आपका अ यास गहन हो जाएगा, तो मान सक च ण का अ धक से अ धक यान कर और जब आप उससे थक जाएँ तो च क मं साधना पर आ जाएँ। ल य यही है क च पर आपक एका ता बनी रहे जब क मन क सजगता बनाए रखना भी आव यक है।

3. मु ा उ चत मु ा के मह व को नकारा नह जा सकता। आपके शरीर क दस मह वपूण ऊजाएँ, आपके चतन, वाणी व कम को भा वत करती ह। उ चत मु ा और अंग व यास आपको, इन ऊजा को नद शत करने म मदद करता है ता क वे सभी मल कर, सबसे श शाली ऊजा — कुंड लनी के जागरण के लए माग बना सक। आदश प से, आपको आलथी-पालथी मार कर बैठना चा हए पर अगर आप ऐसे नह बैठ सकते तो कुस पर आरामदायक मु ा म बैठ। कसी भी दशा म, आपक पीठ, कसी तीर क तरह सीधी होनी चा हए। आपक गदन ह क सी झुक हो और हाथ गोद म टके ह । यान के दौरान, आपको कसी चट् टान क तरह थर होना चा हए। आपका मन जतना थर होगा, वाभा वक तौर पर दे ह भी उतनी ही थर होती जाएगी। इसका वपरीत भी उतना ही स य है। दे ह क थरता, कसी योगी क ग त का सूचक है। अनाव यक और ऊजा का य करने वाली ग त व धयाँ जैसे पैर हलाना आ द अपनेआप ही मटने लगती ह और उनका मन थर होने लगता है।

4. एका ता अगर आप पहले तीन कारक का अ यास करगे तो आपक एका ता म अपने-आप नख़ार आएगा। जब तक आप एका नह ह गे, कुंड लनी का जागरण संभव नह है। एका ता लाए बना आपका यान सफल नह हो सकता। यही कारण है क पतंज ल ने भी यान से पूव एका ता को थान दया है। एका ता को आप यान नह कह सकते। दरअसल, अ छ एका ता आपको अ छे यान क ओर ले जाती है। एका ता आपका क बनाती है और यान के मा यम से आप सजगता को बनाए रखने क कला सीखते ह। च भेदन क सफलता, यान क गुणव ा पर टक है। आपक एका ता क गुणव ा जतनी अ छ होगी, प रणाम उतने ही तुरंत तथा द घकालीन ह गे।

5. आहार का नयमन अगर आप यान कर रहे ह तो च साधना के दौरान आहार का भी याल रखना चा हए। च साधना के साथ, अपने आहार को भी च के अनुसार नय मत करते चल, जस तरह एक-एक कर, सीढ़ के पायदान चढ़ते ह। च पर दए गए अ याय म, मने हर च के लए अनुकूल भो य पदाथ के बारे म भी बताया है। कसी भी दशा म, मसालेदार, तैलीय व ग र भोजन से बच। शाकाहारी होने से आपको मदद मलेगी य क शाकाहारी भोजन आपको सा वक ऊजा दान करता है।



पर यान कैसे लगाएँ?

अपनी धुन के प के तथा गंभीर साधक के लए, पहले दो च

के भेदन यानी मूलाधार व

वा ध ान च भेदन के लए, त च एक वष क एक न साधना क आव यकता होगी। इसके बाद वाले च के लए छह-छह माह का समय माना जा सकता है। यह माना जा रहा है क आप येक वष म त दन, यान के लए दो घंटे का समय नकालगे। इन दो घंट के समय को एक-एक घंटे क अव ध म वभा जत कर दे ना चा हए या चालीस मनट के तीन स भी कए जा सकते ह। आपक पहली त या यही हो सकती है क आप तो ब त त रहते ह इस लए आप यान को इतना समय नह दे सकगे। भले ही आप थोड़ी अव ध से आरंभ कर परंतु स य तो यही है क गहन साधना से ही प रणाम सामने आते ह। और गहन यान के लए आपके पास कड़ी वचनब ता होनी चा हए। हम यह नह भूलना क कुंड लनी जागरण सबसे अ धक तु दायक व कठोर यान साधना म से है। हम कूल म त दन छह घंटे पढ़ाई करते ह और ऐसा पं ह साल तक करते ए एक मूल ड ी हा सल करते ह जो हम एक नौकरी तक मलने क गारंट नह दे ती। जब आप नौकरी करते ह, दन आठ से दस घंट के काम के बाद, माह के अंत म औसत वेतन मलता है। पूरे वष म दो या तीन स ताह का अवकाश हाथ आता है। एक औसत पयानोवादक को अपनी कला म नपुणता हा सल करने के लए औसतन दस हज़ार घंटे अ यास के नाम करने होते ह। कहना न होगा क सभी कलाकार और संगीत आजीवन अ यास करते रहते ह। ठ क उसी तरह, कुंड लनी जागरण के लए भी अ यास, यास, समय और वचनब ता क आव यकता होगी। यहाँ मन को अ छा लगने वाले यान क बात नह हो रही, हम व के असाधारण पांतरण क बात कर रहे ह। आप केवल कुछ रचने का ल य नह रखते, आप सीधा सृजन के ोत क ओर जा रहे ह। कुंड लनी साधना को पयानो सीखने या ओलं पक म भाग लेने क तरह सोच — अगर जीतना चाहते ह तो आपको अपनी ओर से भरपूर यास करना ही होगा। मेरा नजी अनुभव यह रहा है क अगर आप त दन गुणव ा से भरपूर च साधना के लए सात घंटे का समय दे ते ह, तो आप पहले छह माह म अपना मह वपूण अनुभव पा लगे। सरे श द म, आपको पहले छह माह म अपने लए बड़ी पदो त मल जाएगी। अपने अ यास के शखर के दौरान, म त दन, औसतन बाईस घंट तक यान लगाया करता था। जब आप गहनता क एक न त अव था तक आ जाते ह, तो आपक भूख, न द, आदत, मन और वचार या मह वपूण प से पांत रत होने लगते ह। एक अटल साधक के प म, यह ब त मह व रखता है क आप एक बार म, एक ही च पर यान साध। जब आप एक च को अपना ल, तब आपको सरे च पर यान दे ना चा हए। जब आप एक च पर छह माह तक यान कर ल (मूलाधार तथा वा ध ान के लए एक-एक वष का समय दे ना होगा) और आपको च यान के दौरान गहन संवेदना का अनुभव होने लगे, तो आप अगले च पर जाने के लए तैयार ह। आप सरी अव था तक कतनी तेज़ी से जाने वाले ह, यह आपके यास क गहराई पर नभर करता है।

सभी ावहा रक योग के लए, मान लेते ह क आप त दन यान के लए केवल दो घंटे का ही समय नकाल सकते ह। तब आपका स कुछ ऐसा दखाई दे सकता है। 1. ास को सामा य करने के लए पाँच मनट तक गहरी ास का अ यास करना। 2. ऊजा को नय मत करने के लए आ ा च पर दस मनट का यान करना। 3. आपके धान क च पर चालीस मनट तक यान लगाना। 4. शरीर को श थल करने के लए पुनः पाँच मनट तक गहरी ास का अ यास करना। तीसरे ब के दौरान, य द आप थकान महसूस कर तो आप च के रंग के मान सक च ण तथा बीज वण पर बारी-बारी से यान कर सकते ह। जब आप इस पथ पर अ सर ह गे, तो धीरे-धीरे, आपके भीतर हमेशा एक कार क यान से पूण सजगता बनी रहेगी। तब आप नान करते ए, गाड़ी चलाते ए और खाना खाते ए भी, पूरी सजगता के साथ यान कर सकगे। इस तरह आपके मन म एक लय वक सत होगी। कोलाहल भी संगीत बन जाएगा। त स ताह, केवल छह दन यान कर। एक दन का अवकाश ल। एक अ छे ेक से आपके मन को तरोताज़गी मलती है। त दन एक ही समय पर यान आरंभ करने का अ यास कर। य द च साधना के दौरान, आप शराब और सरे नशीले पदाथ का सेवन बंद कर द, तो ब त बेहतर होगा। ऐसा इस लए है क भले ही अ पकालीन तौर पर, वे आपको यान करने म लाभ दे सकते ह परंतु वे म यम से द घकाल क अव ध म आपक मान सक च ण करने व एका होने क यो यता को बा धत कर दगे। एक ालु श य ने अपने गु से यान करना सीखा। वह कतनी भी को शश य न करता, वह आरंभ म यान लगा ही नह पाता था। हालां क एक दन, यान के दौरान उसे गहरी त लीनता का आभास आ। उसने स तापूवक कहा, “गु जी!, आज मेरा यान ब त अद्भुत रहा।” गु जी बोले, “कोई बात नह , यह भी बीत जाएगा। बस यान करते रहो।” “मुझे लगता है क मने यान को जान लया।” “यह भाव भी बीत जाएगा।” गु जी ने कहा और अपना काम करने लगे। श य को ब त हैरानी ई क गु जी ने ह सला नह बढ़ाया और न ही उसक ग त को सराहा। अगले कुछ दन तक उसका यान वाकई ब त अ छा रहा और जब उसे लगने लगा क वह सही मायन ग त कर रहा था, तो वह भीतर से मत और ाकुल महसूस करने लगा। वह जतना अ धक यास करता, यान उतना ही बदतर होता जाता। वह ब त नराश हो कर गु के पास प ँचा। “गु जी! म तो यान ही नह लगा पा रहा। म एका ही नह हो पाता।” उसने टू टे ए दल से कहा। गु ने कोमल श द म कहा, “ चता मत करो, यह भी बीत जाएगा। बस अपनी राह

पर चलते रहो।” “पर मुझे लगता है क यान मेरे हाथ से नकल चुका है।” “यह भाव भी मन से नकल जाएगा, यान करते रहो।” गु का उ र था। जब आप कुंड लनी जागरण के पथ पर ह , तो कुछ दन आप थोड़ी संवेदनाएँ महसूस कर सकते ह, आपको लग सकता है क आप तो सचमुच इस राह पर ब त आगे आ गए ह। अपने-आप को इस बहलावे म न आने द। य द आप उ चत समय और अ यास के बना ही, ऐसा महसूस करते ह क आप अगले च पर यान लगाने के लए तैयार ह, तो आप लगभग ग़लत ह गे। आपक एका ता क गुणव ा म नरंतरता वक सत होना ब त आव यक है। कुछ दन तक, आपको ऐसा लग सकता है क आप यान कर ही नह सकते और ये यान वगैरह आपके लए नह बने। उस समय ह मत न हार। बस थोड़ा अ धक यान कर। ह सला बनाए रख। हार मानने से कभी जीत हा सल नह होती। पूरे संक प और सजगता के साथ यान का अ यास जारी रख और कुंड लनी च का भेदन करेगी। इसके सवा कोई और उपाय ही नह है। मूलाधार च से आरंभ कर और एक बार म, एक कदम उठाते ए ग त कर। जब भी आप कसी मील के प थर तक प ँचगे, तो आपके भीतर एक दै वीय प उद्घा टत होगा, जसके अ त व के बारे म आपको पता तक नह था। धीरे-धीरे सामने आने वाला यह पांतरण ही आपको एक नए के प म ढाल दे गा, आपको एक बेहतर इंसान बनाएगा और आप अपने बारे म नई चीज जान सकगे। आप सोच सकते ह क या आप च से ा त इन नई ऊजा के बल पर बेहतर संबंध, नौकरी, दशन व मूड आ द म बदलाव पा सकते ह? इसका उ र है, ‘हाँ’। इसका अथ यह नह क अगर आपको चीनी भाषा बोलनी नह आती तो आप चीनी भाषा के जानकार हो जाएँग।े इसका सादा सा अथ है क आपके वचार क शु ता व मन क प ता के साथ, आपके लए, अपने ल य तक जाना सहज व सरल हो जाएगा। कुंड लनी साधना के येक चरण के साथ आप अपने भीतर चेतना के एक नए तर को उद्घा टत करते ह। आपके वचार क प ता म नखार आने लगता है। आपक मरण श म सुधार होता है और आपके शरीर के भीतर एक अवणनीय थरता का उदय होता है। आप वयं को कह अ धक ावहा रक पाते ह, आपके लए सर क नदा पर त या दे ना क ठन होने लगता है और आप अपने आसपास क ग त व धय के बावजूद, अनायास ही सजगता बनाए रखने के यो य हो जाते ह। आप दे खने लगते ह क आपक सोच असल जीवन म साकार प ले रही है, आपके सामने कट हो रही है। आप बड़ी सहजता से मनोवां छत व तु को अपनी ओर आक षत करने लगते ह। आपके जीवन, जीवनशैली और जीवन-यापन के बीच नजता दखाई दे ने लगती है। आप और आपके आसपास के लोग आपके भीतर एक न त सकारा मक बदलाव को दे खने लगते ह। आपक अपूणता, कसी अंगूठे क तरह आपके सामने दख रहे सूय या चं को

बा धत नह करती, वह अ थायी बादल क तरह हो जाती है, जो अपने-आप ही छँ ट जाते ह। यहाँ तक क आपक अपूणताएँ भी न हे सतार क तरह जगमग करते ए, आपके अ त व के ा ड क सुंदरता म चार चाँद लगाने लगती ह।

शतदल वाले सह ार से अमृतपान करने के बाद, सबसे न नतम तर तक कुं डजालनी, गरी है; वही मूलाधार च है। आपक रीढ़ क हड् डी के सबसे नचले ह से म, यह मूलाधार च होता है।

कहलाता है। कुंड लनी का जागरण, इसी च

के भेदन के साथ आरंभ

“मूलाधारा बुजा ढा ‘प चव ा’ थसं थता, अङ् कुशा द हरणा वरदा द नषे वता. मु ौदना स च ा सा क य बा व पणी.” (ल लता सह नाम, 106)

शा दक अथ मूल च म थत दे वी पंचमुखी है। इसी दे वी का अ थय म वास है। वे अपने हाथ म अंकुश धारण करती ह और एक हाथ अभय मु ा म उठा है। वे दाल से तैयार आहार का भोग लगाती ह और उनका नाम शा कनी है।

गु त अथ पंचमुखी दे वी वा तव म पंच मुख वाली नह ह। यह आपके जीवन, आपके शरीर और जीवन-यापन के मुख प क ओर संकेत करता है। आप अपने पाँच या मक अंग क सहायता से सारे काय करते ह। वे ह: हाथ, दो पैर, मुख, जननांग व गुदा। हमारे पास पंच याँ ह: ने , कान, नाक, जीभ व वचा। हम पंच त व के मेल से बने ह, धरती, वायु, अ न, जल व आकाश। ये सभी सकल त व भौ तक अ त व रखते ह और इ ह खुले ने से दे खा जा सकता है। सकल त व, अ त व के सबसे नचले तल का त न ध व करते ह। यहाँ तक पशु म भी यह सब पाया जाता है। तो ऐसा या है, जो हम पशु से अलग करता है? ान तथा ववेक। हमारे पास जैसा ान और ववेक है, पशु के पास उसका अभाव है। हम अपने-आप म सुधार लाते ए, अपने समाज और संसार को संप बना सकते ह। इस च क ऊजा यह वास नह करती। इस ोक म अगला श द है, ‘अ थसं थता’, यह आपक अ थय म भी वास करती है। और यह असली अथ छपा है। मूलाधार च पर यान लगाने से आपक ह ड् डय क सेहत म सुधार होता है। इस च म दे वी ने, अपने हाथ म एक अंकुश थामा आ है। अंकुश ायः हा थय को वश म करने के काम आता है। मने एक बार दे खा था क महावत ने चंचल हाथी को बड़ी आसानी से, अपने अंकुश से वश म कर लया था। उसने अंकुश को उसके वशाल कान पर लगा कर, गदन पर खूँटे से ठ का। हाथी त काल नीचे बैठ गया। मूलाधार, यान कए जाने वाले च म सबसे पहले नंबर पर आता है, तो आपके लए एका बने रहने

क चुनौती भी हाथी जतनी ही वशाल होगी; यह कुछ ऐसा ही होगा मानो आप हाथी को पालतू बना रहे ह । आपको कुं ठत होने या इससे जूझने क आव यकता नह है, अ यथा यह आपको कुचल दे गा। बस आपको अपनी सजगता और संक प के अंकुश के साथ, आगे बढ़ना है। सकारा मकता और ढ संक प के साथ आगे जाने वाले के लए ा ड वयं माग बनाता है। अगर आप हार नह मानते तो सभी बाधा को हार माननी पड़ती है। इस कार, दे वी का एक हाथ अभय मु ा म दखाई दे ता है। दे वी को दाल व चावल से तैयार सूप, मुदगौदन ् ब त भाता है। मुद ् यानी काले चने। (लै टन नाम : Phaseolus vulgaris or Vigna mungo) इसी वणन म एक और अथ भी छपा है। जब आप मूलाधार च क साधना करगे, तो उन छह माह के दौरान, आपको अपने आहार म यादा से यादा दाल व चावल को शा मल करना है। उस समय ग र भोजन करने से बच। इससे शरीर म आल य आता है। एक च मच म खन या घी ले सकते ह परंतु तले-भुने भोजन से परहेज कर। मूलाधार च को साधने से, आपक सेहत म सुधार होता है। यह आपक ह ड् डय के लए ब त लाभदायक है। आप व न, पश, वाद, प व गंध जैसे पाँच संवेद त व के त गहन संवेदनशीलता वक सत कर लेते ह। मूलाधार च को साधने के ल ण क बात कर, तो आपको व थ प से कम भूख लगने लगती है; आहार क कम मा ा ही आपके लए पया त होने लगती है य क आप भौ तक त व का बेहतर अवशोषण करने लगते ह। जब आपक इं याँ उ त होती ह, तो आप हर चीज़ का गहन अनुभव पाने लगते ह और आपके भीतर सभी जीव के त एक संवेदनशीलता वक सत होती है, जो एक स चे आ या मक क पहचान है। मूलाधार च पर लंबे समय तक साधना करने से, आप ह का महसूस करने लगते ह। आपके भीतर से तु छ वासनाएँ और वचार तरो हत हो जाते ह और शां त व क याण का भाव उदय होता है। ंथ म इस च के रंग का वणन नह आता परंतु मने जस ोत से इस साधना को पाया, वहाँ ऐसा नह है। इस च का रंग चमक ला संतरी है। दे वी का नाम शा कनी है इस लए, इस च का बीज वण सं है (इसे ‘संग’ कहा जाता है।) केवल आपके गु ही आपको इसका उ चत उ चारण करना सखा सकते ह। मुझे अ छ तरह पता है क पारंप रक पाठ् य म इस च के बीज वण को ‘लं’ कहा जाता है। यहाँ म इस बात पर बल दे ना चा ँगा क साधना के रह य कभी पु तक म नह मलते। अंततः, वण से कह अ धक, मान सक च ण क गुणव ा ही मायने रखती है।

े जननांग के ब आ पक धाम है।

पर

क, वा ध ान च

थत है, यही कुंड लनी का मूल

“ वा ध ाना बुजगता चतुव मनोहरा, शूला ायुधस प ा पीतवणा’ तग वता. मेदो न ा मधु ीता ब ध या दसम वता, द य ास दया का कनी पधाा रणी.” (ल लतासह नाम, 104–105)

शा दक अथ वा ध ान च म दे वी के चार मुख ह। उनका रंग पीला और हाथ म एक शूल लए ए ह। वे शरीर क वसा म रहती ह, उ ह मधु य है और वे बां ध य आ द अ य सहायक ऊजा से घरी रहती ह। दे वी को दही व अ भाता है और उनका नाम का कनी है।

गु त अथ च ट से ले कर हाथी तक, जस जीव म भी चेतना पाई जाती है, उसके भीतर दो चीज अ नवाय प से होती ह — जीने क इ छा और संयोग करने क इ छा। दरअसल, इ ह इ छाएँ कहना भी अनु चत होगा। ये इ छा नही, ब क कृ त के, वकास के दो मूल नयम ह। कृ त इसी कार फलती-फूलती है, इसी तरह सभी जा तयाँ वक सत होते ए, ग त करती ह। जीवन के त एक वाभा वक मोह, एक आस होती है, जो जीने क इ छा से पैदा होती है। हम सदा जी वत रहना चाहते ह और अपने जीवन तथा काय म स ता पाना चाहते ह। उसी स ता को महसूस करने के लए, हम लगातार अपने हाथ न मत और सं हत व तु से चपके रहते ह। हम अपनी संपदा व यजन को खोना नह चाहते। हम अपने लए कसी तरह क पीड़ा नह चाहते। जब आपके भीतर छोड़ने का भाव नह आता तब तक कोई वकास संभव नह हो सकता। जब भी हम कुछ पाना चाह तो हम बदले म कुछ खोना भी होता है। हम युवाव था पाने के लए अपने बचपन को छोड़ते ह। हम ल य को पाने के लए समय का ब लदान करते ह। हम छोड़ने के जतना यो य होते जाते ह, पाने के लए उतने ही अ धकारी होते चले जाते ह। और यही हम सरी इ छा क ओर ले जाता है। संयोग क इ छा, संभोग करने क इ छा, सबसे मु दायी भाव है। एक पु ष और ी, अपने बाहरी आवरण को उतार कर, एक- सरे के आगे न न होते ह। यहाँ कोई दखावा या कृ मता नह होती। चरमो कष के उस एक ण म, कसी अहं या आस के लए कोई थान नह रह जाता। यह सब कुछ छोड़ दे ने से जुड़ा है। हालां क वे भौ तक

तथा भावा मक प से एक ह, परंतु दोन सा थय ने, सबसे द आनंद म से एक — चरम आनंद के लए आ मसमपण कर दया है। य द आपके मन म वजना और भय है तो आप चरम तक नह जा सकते। भले ही आप अपना कतना भी वरोध कर या वयं को रोक, कृ त हर सजीव को यौन संबंध बनाने के लए ववश करती है। हम अपने अहं या सं कारशुदा धारणा के आधार पर इसे अ छा या बुरा मान सकते ह, प व या प व व तु षक मान सकते ह, परंतु कृ त जानती है क छोड़ने के मूल भाव म ही आप महान वतं ता का अनुभव कर पाते ह, तब आप पनपते ह व कृ त को भी पनपने म मदद करते ह। ‘ व’ अथात वयं और ‘अ ध ान’ का अथ है थान। वा ध ान च कुंड लनी के सामा य और ाकृ तक धाम क ओर संकेत करता है। यह च जननांग के ब पर थत है। हम यह से अपनी काम ऊजा को कट करते ह, जनन करते ह और संभोग का आनंद पाते ह। हालां क, कुंड लनी सबसे नचले च पर आ गई है य क इसने हमारे म त क म थत शतदल कमल से अमृतपान कया है। कोई आनंद और यहाँ तक क काम संबंध से उ प आनंद भी, म त क के अभाव म अनुभव नह कया जा सकता। यही हर कार के अनुभव को सू चत, नद शत व नयं त करता है। इस लए, कसी भी कार के काम संबंधी आनंद को पाने के लए हमारे म त क और क ऊजा का सामंज य म होना ब त मह व रखता है। उदाहरण के लए, जस का म त क मृत हो गया हो, उसे आप उ े जत नह कर सकते। येक म काम संबंधी आनंद पाने क आव यकता इतनी गहरी है क यही हमारा रचना मक प होने के साथ-साथ, हमारे पतन का कारण भी बन जाता है। इसके कारण हम अपने साथी के त मोह रखने लगते ह। हम एक कार का वै श य चाहते ह; हम उन पर अपना वा म व चाहते ह, उ ह अपने अनुसार गढ़ना चाहते ह। व श ता क उसी चाह म, जलन, नफ़रत और ई या जैसे भाव मुख रत होते ह। हम अपने पर ही नयं ण खो दे ते ह। हमारे भीतर क अ छाई के सूरज को मेघ ढांप लेते ह। शा ीय ंथ के अनुसार, कुंड लनी सह ार च से अमृत पीने के कारण ही, अपना नयं ण खो दे ती है और मूलाधार क ओर चली जाती है, अपने थान से खसक जाती है। मूलाधार का अथ है, मूल बु नयाद, परम आधार। यह हमारे उस संसार क वा त वकता को कट करता है, जहाँ अ धकतर लोग के लए यौन संबंध केवल वासना से जुड़े ह। इस रचना मक श म छपी मता को भुला कर, हमारे वतमान समाज ने इस संयोग को मा एक कृ य बना कर छोड़ दया है, जहाँ अ धक से अ धक लोग अपने संबंध से बाहर जा कर, काम संबंध बनाने के लए आतुर हो उठे ह। अब हम इस रचना मक ऊजा को, भौ तक, भावा मक व आ या मक तर पर होने वाले अनुभव को नखारने से नह जोड़ते। हमम से अ धकतर लोग, इसके भौ तक प से ही स ह; उ ह केवल आने और जाने म ही वशेष आनंद आता है, शायद आप मेरा अथ समझ सकते ह। हालां क उ ह भी दोषी नह ठहराया जा सकता, य क उ ह अभी तक संपूण संयोग

का सुख ही नही मला, दे ह, मन व आ मा का मेल, सब कुछ एक साथ, एक ही तर पर! यह कसी पाठशाला म नह सखाया जाता। से स एक नजी मामला है, परंतु ऐ य नह । यह एक ा डीय आयाम है। यह कुंड लनी और वा ध ान च क भू मका सामने आती है। ल लता सह नाम म लखा है क चार मुख वाली दे वी इस च क अ ध ा ी है। वा तव म, यह दे वी यौ नकता व मनु य के मन के चार प का त न ध व करती है।

यौ नकता के चार प से स केवल एक भौ तक कम नह है। दरअसल, काम संबंधी आनंद का अ धकांश सेरी ल या म त क से जुडी अनुभू त कहा जा सकता है — यह म त क म घटता है। से स भले ही मन म हो, श द म हो या भौ तक प से — सभी इसे एक ही तरीके से नह करते। आप कस तरीके से संभोगरत ह गे या आपको उससे कस कार क संतु मलेगी, यह इस बात पर नभर करता है क आप आ या मक सीढ़ के कस पायदान पर ह। न य तं , कु जका तं , कुलाणव तं , महा नवाण तं आ द तां क ंथ म सभी मनु य को उनके वभाव के अनुसार तीन े णय म वभा जत कया गया है। वे ह: द , वीर व पशु। हालां क, जब ल गकता क बात आती है, तो एक और भाव भी सामने आता है, मनु य भाव। कोई भी काम संबंधी कृ य; द , वीर, पशु या मनु य भाव म ही पूण होता है।

पशु भाव सं कृत के श द ‘पाश’ यानी ृंखला से पशु श द बना है। जो कसी आदत, वचार या इ छा क ृंखला से बंधा हो, वह पशु है। कसी पशु के लए से स कोई भावा मक माँग नह होती, वह एक जै वक आव यकता मा है। जो पशु भाव म शारी रक संबंध का आनंद लेता है, वह हसक और कठोर तरीके से वहार करेगा। पशु भाव अपनी साथी क भावना क परवाह नह करता। वह केवल अपनी वासना क पू त करना जानता है। पशु भाव म थत ी या पु ष, कसी के भी साथ शारी रक संबंध बना सकते ह। उ ह कसी से ेम करने या कसी से ेम पाने क इ छा नह होती। जैसे एक कु ा कसी से भी स तापूवक रोट का टु कड़ा ले लेगा, उसी कार एक कामुक पशु भी माँस के टु कड़े क तलाश म है। वे साथी के साथ अपने-आपको इस तरह न कर दगे, जैसे कसी वे यालय म ह । कामवासना क पू त ही इन संबंध का एकमा येय होता है। पशु अपनी कामवासना को शांत करने के लए साथी खोजते ह; वे कसी भी तालाब से जल पी सकते ह। ऐसी ही वृ तय वाला मनु य भी पशु के समान है। वह अपने लए केवल चरमो कष चाहता है, भले ही साथी कोई भी हो। और ऐसा करने म, उसे अपने साथी को चोट प ँचाने से भी हज़ नह होता — फर चाहे वह चोट शारी रक हो या भावा मक!

मनु य भाव मनु य से अ भ ाय ऐसे से है, जो मन म आ य लेता हो। पशु से एक चरण ऊपर मनु य भाव है। पशु भी भाव रखते ह परंतु हम उनसे कह अ धक उ त व ज टल भाव रखते ह। मनु य भाव म, आपको कसी सरे के साथ शारी रक संबंध बनाने से पूव, ऐसा लगता है क आपके मन म उसके लए ेम हो और बदले म वह भी आपको उसी कार ेम दे सके। आप कतना संतु अनुभव करगे, यह इस बात पर नभर करेगा क आपके भीतर ेम, बंधन, मोह व जुड़ाव आ द से जुड़े कैसे वचार और भावनाएँ ह। आप सरे को अपनी वासना क पू त का मा यम नह मानते। आप उ ह ेम करना चाहते ह, उनके साथ रहना चाहते ह। आप उनके और अपने जीवन म एक प रवतन लाना चाहते ह। आप उनका यान पाना चाहते ह। आप चाहते ह क आपको आपका यास वा पस मले। इस तरह आपको अपनेपन और मोह का एहसास होता है। आप चाहते ह क आप उनके लए सब कुछ ह और बदले म वे भी आपके लए सब कुछ हो जाएँ। हमारे भीतर पा क भाव व वृ याँ इतने गहरे ह क हमम से अ धकतर लोग मनु य भाव म भी ेम नह कर पाते। हमम से अ धकतर मनु य और पशु भाव के बीच झूलते रहते ह। कभी-कभी, जब पा क वृ हावी होती है, तो संभोग के दौरान कठोर वहार कर सकता है। जस कार पशु समागम के समय अपने साथी से पेश आता है, अ धकतर पु ष, अपने साथ लेट ी के त एक स भर ेम को महसूस कए बना भी, उससे अपनी वासना क पू त कर सकते ह। भले ही हम कतने भी लोग के साथ शारी रक संबंध य न बना ल, परंतु हम पशु नह ह। हम मनु य ह और इस लए हम केवल शारी रक संभोग के मा यम से संतु व पूणता का अनुभव नह पा सकते। कह न कह , हमारी आ या मक व भावा मक यास, हमारी कामे छा से कह अ धक बड़ी है। इस कार, जब हम अपनी पा क वृ से ऊपर उठते ह, तो हम मनु य भाव म यौन संबंध बनाना चाहते ह। मन क ऐसी अव था म, मनु य भाव म, काम संबंध बनाने से हमारी आ या मक और भावा मक यास भी संतु होती है। यह हमारे भीतर बसी उस गहरी इ छा क भी पू त करती है जो अपने लए साथ और सौ य क चाह रखती है।

यो ा वीर भाव वीर भाव, यो ा का भाव है। यामल म, वीर को तां क स कहा गया है, जो द भाव, द ता से केवल एक चरण नीचे है। ऋगवेद म, संत त को वीर कहा गया है। ऐसा जो श ु का दमन कर सकता हो, वह वीर है परंतु सबसे अ धक, जो अपने रचना मक (वीय) को नखारता है, वही वीर है। रचना मक को, ी और पु ष म, जनन के प म माना जा सकता है, वह जो ी व पु ष को संतानो प के यो य बनाता है। वीर भाव म, दोन म से एक साथी सदै व न य होता है। इस भाव से होने वाला यौन संबंध गना उद्दे य पूरा

करता है। पहला, स य साथी को अपनी वजय का भाव होता है। एक यो ा क तरह, वे अपने पर जतना अ धक नयं ण करते ह, यह उनके लए उतना ही संतु दायक होता है। सरे, ये अपने साथी पर जीत हा सल कर स ता अनुभव करते ह य क इस कार उ ह अपनी भौ तक श व सहनशीलता के दशन का अवसर मलता है। मनु य भाव से वपरीता, यो ा भाव म अनास का भाव रहता है। उसके लए, यौन संबंध जीवन का एक अंग है। उनक साधना का एक अंश मा है। जस कार एक यो ा अपने राजा क र ा करना चाहता है, उसी कार वीर भाव, अपने साथी क र ा करना चाहता है। सुर ा के इस भाव को वा म व भाव समझने क भूल नह करनी चा हए। एक यो ा मोह क से नह ब क कत क से बचाव करता है। कसी पशु का समागम, कुछे क ण मा से अ धक नह होता। एक मनु य का यह शारी रक संबंध कुछ मनट का हो सकता है, परंतु वीर भाव म यह संतु , संभोग क अव ध को द घकाल तक ले जाने से ही मलती है। पशु भाव क तरह, वीर भाव म केवल वासना क पू त नह हो रही, मनु य भाव क तरह इसम अपनेपन क कोई गहरी चाह नह छपी। वीर भाव का अथ है क आप अपने साथी के साथ, उनके सहयोग व श बन कर उप थत ह। आप ऐसे के प म उनके साथ ह, जनसे वे सुर ा पाने क इ छा रख सकते ह। यौन चेतना म, द भाव ही अं तम चरण है। पशु कामवासना शांत करना चाहते ह, मनु य वा म व चाहते ह, यो ा सुर ा दान करना चाहता है, परंतु द ता सबको मु कर दे ती है।

दै वीय भाव कृ ण, आधी रात को यामल जल वाली यमनुा नद के कनारे जा बैठते। चं मा क सौ य करण उनक मुखाकृ त, वृ , न दय आ द पर पड़ती और सब कुछ ेम क तरह धीमेधीमे का शत हो उठता। ेम एक कोमल भाव है, एक सौ य कट करण। वे अपनी बाँसुरी बजाने लगते। उनके वशु अधर से नकली द फूँक से, खोखली वंशी से माधुरी फूट पड़ती। जीवन का संगीत जीवंत हो उठता और ेम इसक धुन पर नाच उठता, सारी गो पयाँ मं मु ध हो जात । वे अपना घर-बार, प त, संतान, पशु आ द सारी संप का याग कर, कृ ण के पास दौड़ी चली आत । वे अपने हाथ के काम को वह छोड़, बाँसुरी क धुन सुन कर, खची चली आत । वे अपना सब कुछ कृ ण को स प दे ना चाहती थ । गो पयाँ उ ह चंदन का लेप करत , कुछ उ ह ताजे पु प क माला धारण करवात और पान खलात । कुछ गो पयाँ उनक टाँग दबाने लगत तो कुछ नेह से उनके बाल सँवारत । वे बाँसुरी को सराहत जसे कृ ण सदै व अपने संग रखते थे। वे उसे अपने अधर का पश दे ते थे। वे पूछत क वंशी ने ऐसे कौन से अ छे कम कए थे क उसे कृ ण क वंशी बनने का सौभा य मला। वंशी उ ह उ र दे ती, ‘मने वयं को र कर दया। म अपने भीतर कुछ नह रखती। म कसी चीज़ से मोह नह रखती। मने पूरी तरह से आ मसमपण कर दया और अब म

उनक इ छा क चेरी ँ, उनके कहने से ही बजती ँ। म कभी नह बोलती, कृ ण ही मेरे मा यम से बोलते ह।” गो पय ने भी वंशी क तरह, कृ ण के आगे आ मसमपण कर दया था। उनके बीच कोई जलन या ई या का भाव नह था। उनके बीच कोई मोह या आस नह थी य क वे जानती थ क उ ह कृ ण क सेवा करनी है, उन पर वा म व नह पाना। वह पशु भाव (वासना पू त), मनु य भाव ( वा म व), या फर वीर भाव (र क), नह ब क द भाव (मु ) था। द भाव, यह यौन चेतना के वकास म सबसे परम अव था है। यौन कम म द भाव से ल त होने वाला केवल एक व तार है, ेम का एक कट करण। कृ ण और गो पय के संबंध म यही भाव गोचर होता है। जब आप कुंड लनी जागरण के पथ पर आगे बढ़ते ह, तो आपको अपनी यौन ऊजा को नद शत करना आ जाता है, आप एक दाता हो जाते ह। आपक कोई माँग नह होती और आपको सरे को अपना ेम और नेह दे ने म ही आनंद आता है। आप द भाव से अपनी दे ह, आ मा व मन स प दे ते ह। तब शारी रक संबंध, वासना क पू त का साधन नह , सभी तर पर ेम म एका म होने का मा यम बन जाते ह। केवल तीन कार के लोग ही यौन कम म द भाव को अनुभव कर पाते ह। पहले नः वाथ लोग जो बना कसी वाथ के, पूरी क णा व दे ख-रेख के साथ दाता क भू मका नभाते ह। वे लोग संभोग के दौरान केवल अपने साथी को संपूण बनाने के बारे म वचार करते ह। उ ह अपने साथी को नेह और सुर ा दान करने म ही सुख व आनंद मलता है। जस कार कृ ण का ेम, शु व कसी भी कार के मोह से परे है। सरे वे लोग होते ह ज ह ने ेम म पूरी तरह से आ मसमपण कर दया हो। ऐसे के कोई नजी चुनाव या वरीयता नह होती। वह सरे को अपने दय म थान दे ता है। यह संभोग म इस लए ल त होता है य क वह अपना कण-कण सरे को स प दे ना चाहता है। जस तरह गो पयाँ सेवा करते ए, सरे क ताकत बनना चाहती ह। जब गो पयाँ कृ ण को अपने द ेमी के प म वीकार लेती ह, तो वे बना कसी शत के समपण कर दे ती ह। यही आ मसमपण ही, भ का मूल प है। द भाव म ेम करने वाले तीसरे कार के लोग, ऐसे होते ह जो तां क स होते ह। वे पूरी तरह से अनास होते ह और उनके भीतर काम संबंध को लंबे समय तक बनाए रखने क कोई इ छा नह होती, एक योगी अपनी सहयो गनी को द ऊजा से प रपू रत कर दे ना चाहता है ता क वह कामा लगन से मु होने के बाद भी, एका मकता के गहन भाव को अनुभव कर सके। यह एक कार का आ या मक खुमार कहा जा सकता है। शव इसी द भाव म श से संभोग करते ह। द भाव म, पु ष और ी के बीच क सीमाएँ अलोप होने से पूव, पूरी तरह से धुंधला जाती ह। ऐसा नही लगता क आप कसी सरे के साथ संबंध बना रहे ह। लगता है मानो आप अपना ही व तार कर रहे ह , दपण बन गए ह । एक पु ष, ी म अपने ैण प को खोजता है और ी, पु ष म अपने पु ष त व को खोजती है। दाँया

म त क, बाएँ म त क के संपक म आ रहा है, रचना मकता तक के साथ लीन हो रही है। मानो मन अपने-आप को ही दे ख रहा है। वा ध ान च क चार मुखी दे वी, मन के चार प का तीक भी है। जब हमारे मन म कोई वचार आता है, तो उस पर सही मायन म कारवाई करने से पूव, ब त कुछ उभरता है। कोई भी कम कतनी भी अधीरता से य न कया जाए, इसके चार प होते ह। ये चार प ही हमारे मन के चार प ह।

मन के चार प मनु य के मन के चार प , सामू हक प से चतुष—अंतःकरण, वचार व भाव के चार थान कहलाते ह। वे ह, मनस, बु , च व अहंकार। कोई भी इ छा या सोच पहले मन म ही उपजते ह। अगर हम उनका कुछ नह करते तो वह वचार वह मट जाता है। एक वचार का जीवनकाल इतना ही होता है। य द हम इसका याग नह करते तो यह हमारी चेतना म आ जाता है। हम इसके हर पहलू, लाभ और हा न पर वचार करने लगते ह। हालां क चेतना वयं नणय नह ले पाती। जब हम मन ही मन सोच लेते ह तो इस सोच को मन के तीसरे प , बु के हवाले कर दे ते ह। बु ही नणय लेती है क हम इसे आगे ले जाने वाले ह या नह । य द हम इसे साकार प दे ना चाहते ह तो हम इसे अहंकार को स प दे ते ह, यह हमारे गत अ त व का भाव है। हमारा अहं हम हमारी नजता को बनाने और र ा करने को कहता है। यह हम द संयोग का अनुभव पाने से रोकता है य क अहं सदा असुर त अनुभव करता है। यह हम, हमारे आसपास के प रवेश से तोड़ दे ता हे। यह हम अपने वश म करना चाहता है, इसे समपण से भय लगता है। जब हम कसी के काम से ठे स लगती है, तो यह अहं ही हम ख दे ता है। काम संबंध अपने-आप म सबसे अ धक संतु दायक भाव म से है य क इसके लए आपको अपने अहं का पूरी तरह से याग करना पड़ता है। आपक यौ नकता, यौन आचरण तथा यौन संबंधी वचार आ द वा ध ान च को साध कर नयं त कए जा सकते ह, ये आपके मन व चेतना पर य और त काल भाव डालते ह। दे वी के हाथ म एक शूल है जो साधक को च पर एका होने क ेरणा दे ता है। बं धनी व अ य सहायक दे वयाँ, बंध का सूचक ह, जनका योग म अ यास कया जाता है ता क च साधना म लाभ मल सके। वैसे बंध करने क आव यकता नह , म नजी प से उ ह नह करता। मने सदा वयं को वशु यान पर क त रखा है। यह दे वी शरीर क वसा म वास करती है और इ ह शहद व दहीयु भोजन पसंद है। इसका अथ है क इस च पर यान लगाते ए, आपको अपने आहार म दही व शहद को शा मल करना चा हए। इस च पर यान करने से, सभी रोग पर सकारा मक भाव होगा, वसा से जुड़े रोग का शमन होगा और धम नय म कॉले ॉल और वसा के जमाव पर भी रोक लगेगी।

इस च

क दे वी का नाम का कनी है। और इनका बीज वण कं है।

आ पक ना भ क

पर ही म णपुर च

थत है।

“म णपूरा ज नलया वदन यसंयुता, व ा दकायुधोपेता डामया द भरा वृता. र वणा मांसा न ा गुडा ीतमानसा, सम तभ सुखदा ला क य बा व पणी.” (ल लता सह नाम, 102–103)

शा दक अथ तीन मुखी दे वी म णपुर च म थत ह। उनके एक हाथ म व है और वे डामरी तथा अ य सहायक ऊजा से घरी ह। वे र वणा ह और आपक म जा म रहती ह। उ ह गुड़ (ग े के रस को उबाल कर बनता है) ब त पसंद है। वे अपने भ को हर कार के सुख पाने का आशीवाद दे ती ह और दे वी ला कनी का प रखती ह।

गु त अथ म णपुर च आपक ना भ के ब पर थत है, यह आपका ना भ क है। तीन मुख वाली दे वी आपके तीन दोष ; वात, कफ और प क सूचक ह। येक क वृ इ ह तीन दोष पर आधा रत होती है। कसी म वात क मा ा अ धक होती है तो कसी म कफ क और कसी म प क अ धक मा ा पाई जाती है। आयुवद के अनुसार, मनु य के शरीर म उ प 95 तशत रोग का संबंध पेट से होता है। म णपुर च पर यान लगाने से, तीन दोष शांत होते ह। तीन मुख वाली दे वी, आपके ारा अवशो षत तीन कार के आहार क भी सूचक ह। ंथ ने भोजन को तीन े णय म वभा जत कया है, सा वक (पौ क शाकाहारी आहार), राज सक (आवेग को बढ़ाने वाला आहार), व ताम सक आहार (आ ामकता को बढ़ाता है)। ना भ च पर यान लगाते ए, आहार का नयमन ब त मह व रखता है। आपक सेहत के अहम पहलु म से एक, शरीर के ताप को म णपुर च नद शत करता है। ंथ के अनुसार, ताप पहले भोजन को पेट म जलाता है, य द यह नय मत नह होगा तो यह पाचन तं को भा वत करेगा और पेट के अ सर, लीवर के रोग व क ज आ द का शकार हो जाएगा। अगर आप अपने शरीर को पया त भोजन नह दे ते और आपका शरीर अ त र ताप से त है, तो आपका मुँह सूखा रहेगा, ह ठ फट जाएँगे और आप उ च र चाप से त भी हो सकते ह। दे वी के हाथ म व है, जस तरह भूख के झटके महसूस होते ह, आप इस च म ऐसी सनसनाहट महसूस करते ह मानो बजली कड़क हो। ारंभ म, वे आते-जाते रहगे।

बाद म, वे थोड़े समय तक बने रहगे और आप इस च पर नरंतर होने वाली सनसनाहट को अनुभव कर सकगे। सहायक दे वयाँ उन सात शुभ गुण क सूचक ह जो आप अपने भीतर वक सत करते ह। वे सात दे वी ह — डामरी, मंगला, पगला, ध या, भ का, उ का व स ; ये स मोहक व न, सौभा य, सुंदर चमकदार वचा, अ छे भोजन, सद् वहार, काश तथा सफलता क सूचक ह। यह भी एक रोचक त य है, म णपुर च का मन क सहज व अंत ान संबंधी वशेषता से गहन संबंध है। मने असं य अवसर पर दे खा है क म णपुर च पर यान करने से आपक अंत म नखार आता है। संभवतः इस त य का संबंध गभ से जोड़ा जा सकता है, जब आप अपनी ना भ से गभनाल से जुड़े थे। यही आपके अ त व का मूल है; गभ म रहने के दौरान आपका कोई भी श ण या पोषण आ द इसी ना भ के मा यम से होता था। इस कार आपके सहज ान का, आपके म णपुर च से ठोस संपक है। म णपुर च को आ ा च के समक ही मह वपूण माना जा सकता है। यह कुंड लनी जागरण के लए मह वपूण च म से है। जब आप म णपुर स पा लेते ह, तो आप अपने शरीर के ताप को नय मत कर सकते ह, अ छ सेहत कायम कर सकते ह। इसके अ त र आपक वचा म भी नखार और चमक आती है। एक अ छा साधक, इस च को साधने के बाद मानो एक ह क सी चमक से दमक उठता है। म णपुर च को साधने से मांसपेशीय वा य म भी सुधार होता है। इस च को साधने वाला एक गंभीर साधक लंबे समय तक भी भूख और यास को सहन कर सकता है। वह ब त कम भोजन के साथ, लंबे समय तक अपनी ऊजा बनाए रख सकता है। पेट भी आपके भय का थान है। जब आप भयभीत होते ह तो सबसे पहले इसे अपने पेट म महसूस करते ह। हमारे भय, हम अपनी पूरी संभावना तक जाने से रोक सकते ह। इस च को साधने से आपको, जीवन क अ न त प र थ तय म शांत रहने का भाव मलता है। आपके भीतर एक कार क भयहीनता का अनुभव होता है। जो लोग संघष व अवां छत प र थ तय म ाकुल और घबराया आ महसूस करते ह, उ ह म णपुर च पर यान लगाने से लाभ हो सकता है। दे वी का वास माँस म है। इसका अथ है क यह च आपक मांसपे शय क लोच बनाए रखता है और इनसे जुड़ा कोई भी रोग, च साधने से र हो सकता है। म णपुर पर गहन साधना के दौरान, आपको अ धक से अ धक सा वक भोजन हण करना चा हए। इस च का रंग है। दे वी का नाम ला कनी है और इनका बीज वण ‘लं’ है।

े सीने के बीच, आ पक है।

दय से दा ओर, कुछ इंच क

री पर, आपका अनाहत च

“अनाहता ज नलया यामाभा वदन या, दं ो वला’ माला दधरा धरसं थता. कालरा या दश यौघवृता न धौदन या, महावीरे वरदा रा क य बा व पणी.” (ल लता सह नाम, 100–101)

शा दक अथ अनाहत च म थत दे वी दो मुखी व यामवणा ह। उनके दं त उ वल ह और उ ह ने ा क माला धारण क है। वे र म उप थत रहती ह। वे कालरा दे वी से घरी रहती ह और उ ह तैल म पके कोमल और नरम खा पदाथ भाते ह। वे साहसी साधक को अपना आशीवाद दे ती ह और रा कनी का प धारण करती ह।

गु त अथ हमारे पास जीवन म हर चीज़ के लए दो धारणाएँ होती ह। यह गहन प से, हर चीज़ के दो प का त न ध व करती ह — अ छा-बुरा, उ चत-अनु चत, स य-अस य, सकारा मक भाव-नकारा मक भाव और चुनाव क बात कर, तो हाँ — नह ! ंथ ने इसे ै त कहा है और यही सभी मनु य के भाव का बीज है। आप ै त से उठते ह और वचा लत प से इन अ थायी अव था से परे चले जाते ह, आप अनंत शां त के छोर पर आ जाते ह। हमम से अ धकतर अपनी भावना से संचा लत होते ह। भले ही हम कतने भी शांत या सहज य न ह , हम गु सा आते दे र नह लगती। उसी गु से म हम ऐसे श द का योग करते ह जैसे कोई सप वष वमन करता है। इससे मन म छपे भाव को बाहर आने का अवसर मलता है। पहले हम स ता होती है फर हम श मदगी महसूस करते ह। और फर हम उन बात को याद करते ह, जो हम नह कहना चाहते थे। अब हमारे पर पछतावे और बेचारगी का भाव छा जाता है। इससे हमारी आ म-छ व को ठे स लगती है। घृणा, बैर, जलन, उदासी व े ष के भाव भी ऐसे ही ह। जब हमारे कम, वाणी और वचन के अनुसार नह होते, तो हमारे भाव नयं ण से बाहर हो जाते ह। आप अपने दय को शु करते ह और वचार वयं को शु करते ह; कम अपने-आप ही उनके अनु प हो जाते ह। दोमुखी दे वी दय च म वास करती ह। वे ै त का त न ध व करती ह। इस संसार म रहते ए, हम ववश होकर त दन, दन म कई बार चुनाव करने पड़ते ह। अतीत,

वतमान के चुनाव को भा वत करता है और वतमान चुनाव भ व य क दशा तय करते ह। जसका दल और दमाग आपस म तालमेल रखता हो, उसके लए सहज भाव से नणय लेना सरल होता है। ऐसा आसानी से नणय ले कर आगे बढ़ सकता है। इस तरह एक कार का नभ क भाव आता है। दय च पर यान लगाने से आपके दल और दमाग के बीच खूबसूरत संतुलन पैदा होता है। इस तरह आपको सारे सकारा मक और नकारा मक भाव के बीच सहज रहना आ जाता है ब क आपके लए नणय लेना भी आसान हो जाता है। आपक तभा सामने आती है और आप पूरे संक प के साथ अपने चुनाव पर टक पाते ह। आपको अपनी योजनाएँ प तौर पर दखने लगती ह। लोग अ सर दो कारण से नणय नह ले पाते — वे भ व य से डरते ह या उ ह यह पता नह चलता क उनके नणय का या भाव होगा। एक अ छा, साधक, म णपुर च को साधने के बाद, उद्वेग से परे जा कर, अपनी भावना को परख़ सकता है। और इस च को साधने के बाद, आप नणय लेने और उन पर कारवाई करने क यो यता पा लेते ह। इस च म दे वी के उ वल दं त इस बात के सूचक ह क आप अपने नणय को बेहतरी के साथ संभालने के यो य हो जाते ह। आप वां छत — अवां छत, दोन को ही एक समान उदासीनता के साथ वीकारते ह। इसका एक अथ यह भी है क आप जीवन के सकारा मक और नकारा मक पहलु के बीच उ वल दं तपं क तरह हो जाते ह। अब आप कसी भी बात पर नाराज़ नह होते। अ माला, अ के मोती से अ भ ाय, ा से नह , ब क सं कृत वणमाला के पचास वण से है जो अ से आरंभ हो कर पर समा त होते ह। आपक शंसा, नदा, आलोचना या सराहना म जो भी श द कभी कहा जाएगा, वह इ ह के मेल से बना होगा। अगर आप यह सोच कर तट थ रह सक क सरे आपके लए जो भी राय रखते ह, वे केवल वण से श द जोड़ कर आपको एक माला दे रहे ह तो आपक त या गायब हो जाएगी। इस तरह आपके भीतर एक सजगता और शरीर म ऊजा क थरता उ प होगी। जब आपक ऊजा थर होती है, तो सरे आपको भड़का नह सकते, आपको वचार करने का समय मल जाता है और आप बाहरी व आंत रक प से, अपने लए शा दक व मान सक यु र का चुनाव कर सकते ह। दे वी का वास र म है। इसका अथ है क इस च पर यान लगाने से आप र क अशु य को र कर सकते ह। दे वी कालरा व ऊजा के अ य चार प से घरी ह। उनके नाम ह — र दं तका, ामरी, शाकंभरी व गा। यहाँ कालरा से अ भ ाय नौ रात क वशेष अव ध से है। यह समय वष म एक बार आता है और चं कैलडर के अनुसार, माघ माह म, घटते चं मा के छठे दन से ले कर, अमाव या से एक रात पहले तक होता है। गो रयन कैलडर के अनुसार, माघ का माह जनवरी म आता है। इन नौ रात के दौरान, दन म और रात म चार-चार घंट तक, इस च क साधना करने से उ लेखनीय प रणाम सामने आते ह। इन नौ दन के दौरान लूटन-मु आहार हण करना चा हए।

जब आप इस च पर यान करगे तो सबसे पहले आपका यान जस बात पर जाएगा, वह सम व भाव है। आप अपने भाव को कह बेहतर तरीके से संभालना सीख लगे। जब आप इस च क स करगे तो कृ त के अनेक बल, आपके सपने साकार करने क दशा म सहायक हो उठगे। सहज भाव से नणय लेने क मता, एक नए ही तर तक आ जाएगी। अनाहत च पर यान करने का एक और लाभ यह होगा क आप एक न त कार क शु का अनुभव कर सकगे — जो भी भावा मक और भौ तक होगा। आपके र क गुणव ा म सुधार होगा और आप कह सकारा मक अनुभव कर सकगे। आपक अ वीकृ त से भरपूर त याएँ पहले से कह सजग व धीमी ह गी। साधक को अपने भीतर एक नए कार के साहस का अनुभव होगा। दे वी का नाम रा कनी है। उनका रंग याम तथा सहायक व न ‘रं’ है। पारंप रक ंथ म, दय च के रंग को हरा माना जाता है। अ ात कारण से, कसी ने जबरन, इं धनुष के सात रंग को सात च से जोड़ दया है। वा तव म इनका ऐसा कोई संपक नह है। ल लता सह नाम के अनुसार दय च का रंग काला है।

आ पके कंठ के बीच म वशु



थत है।

“ वशु च नलया” र वणा लोचना, खट् वाङ् गा द हरणा वदनैकसम वता. पायसा या व था पशुलोकभयङ् करी, अमृता दमहाश संवृता डा कनी री.” (ल लता सह नाम, 98–99)

शा दक अथ वशु च म तीन ने वाली एकमुखी दे वी का वास है। उनका वण र चंदन है। वे अपने हाथ म एक रह यमयी दं ड रखती ह और उ ह चावल, चीनी व ध म पका भोजन भाता है। वे वचा म वास करती ह और पशु जगत म आतंक उ प करती ह। अमृता व अ य दे वय से घरी दे वी का नाम डा कनी है।

गु त अथ यह सबसे मह वपूण च म से एक है। यह च सारे नचले च को दो वशु च से अलग करता है जो आपको उ लेखनीय अंत व असाधारण ववेक दान करगे। वशु का अथ है, पूरी तरह से शु और प व । जब भी हम कुछ खाते ह तो यह कंठ से नीचे उतरते ही कसैला हो जाता है; भोजन का वाद बदल जाता है। कंठ एक अ थायी पा है। यह अपने भीतर कुछ नह रखता। यह कसी भी व तु को ले जाने का माग भर है। यहाँ दे वी एकमुखी ह य क अब आप बाहर और भीतर से एक से हो गए ह। यही इस च पर यान करने का नतीजा है। अपने इतना आंत रक बल और साहस पा लया है क अब आपको दोहरा बताव नह करना पड़ता और आप जो भी ह, जहाँ भी ह और जैसे भी ह; उससे पूरी तरह से संतु ह। इस च क ा या म, केवल दे वी के ने का संदभ आता है। वे लोचना कहलाती ह यानी तीन ने वाली! ायः यह नाम आ द योगी शव के लए यु होता है। जब आप वशु च को साध लेते ह, तो आपके और सह ार म बसी कुंड लनी के बीच परम संयोग का केवल एक चरण रह जाता है। आप इस च को खोलने तक, लगभग शव और उनके जैसे योगी हो जाते ह। एक पौरा णक संग के अनुसार, शव ने वष को अपने कंठ म धारण कया इस लए वे नीलकंठ कहलाए। नीलकंठ यानी नीला है कंठ जनका। कुछ लोग इस नीले रंग को वशु च से भी जोड़ते ह। हालां क आंत रक मंडल म ऐसा कुछ नह सखाया जाता, पु तक म यहाँ-वहाँ से साम ी ली जाती है। एक तशत से भी कम साधक, वशु



तक आने क लगन और प र म दशा पाते ह। यह दे वी अपने हाथ म एक रह यमयी दं ड, खड् वांग लए ए है जो शव के पास होता है। यह इस बात का सीधा सा संकेत है क आप इस च पर यान लगाने से वचार, ऊजा व ववेक के तर पर मुख पांतरण का अनुभव करगे। इस दे वी के पास अपने आयुध नह , उनके हाथ म शव के आयुध ह। यहाँ ऊजा का गहन पांतरण हो रहा है — संभा ऊजा ग तक ऊजा म बदल रही है। इसके बाद के च म, दे वी के पास कोई अ -श नह ह। आ म- पांतरण का संघष, ेम पी ब गया म बदल जाएगा ओर चमचम चमकते चं मा के काश म जगमगा उठे गा। जहाँ शव और श , पु ष और कृ त, द प म कट ह गे। यास, यासहीनता म बदल जाएगा; सभी काय असाधारण हो जाएँग।े दे वी को ध, चावल और चीनी से बनी खीर भाती है। इस च पर गहन साधना के दौरान, आपको अपने आहार म केवल ध पदाथ पर ही क त रहना चा हए। इसके अलावा आप चावल और मनपसंद फल भी ले सकते ह। इस दौरान नमक, मसाले, अनाज व दाल आ द न ल। इस च पर गहन साधना के दौरान आपक वचा चमक उठे गी और वचा के सभी रोग मट जाएँग।े शारंगधर सं हता नामक आयुवद पाठ् य म लखा है क वचा क सात परत होती ह। च पर साधना के दौरान उ चत आहार लेने से वचा क सात परत नरोगी हो जाती ह। दे वी पशुलोक को ास दे ती ह। इस तरह आप भी नभ क हो उठते ह और अपने आसपास के सभी पशु को अपना म बना सकते ह। म वन म रहता था, म असं य व य पशु के बीच लगभग असुर त था, बचाव का कोई साधन नह था। मुझ पर कभी कसी पशु ने हमला नह कया, कभी कसी क ट तक ने नह काटा। जब आप इस च को साध लेते ह तो मृ यु का भय आपसे र हो जाता है। यह दे वी, अमृता तथा ऊजा के अ य प से घरी ह। वे च साधना क सोलह दे वयाँ ह — ी व ा, दे वय के वशु व ान म इसका वणन आता है। वे ह — कामक षणी, बु क षणी, अहंकारक षणी, श दक षणी, पशक षणी, पक षणी, रसक षणी, गंधक षणी, च क षणी, धैयक षणी, मृ तक षणी, नामक षणी, बीजक षणी, आ मक षणी, अमृतक षणी व शरीक षणी। इन सभी नाम के अंत म ‘क षणी’ यय आता है जसका अथ है, कसी चीज़ को रोकने क श । इससे भी मह वपूण अथ है, उ चत उपयोग या वहार क श । ये सोलह नाम ेम, बु द्धमता, आ म-संक पना, व न, पश, आकार, वाद, गंध, चेतना, वीरता, मृ त, पहचान, रचना मक , सू म व भौ तक शरीर मशः ह। सभी च पर साधना करते ए जब तक आप यहाँ आएँग,े तो आप सदै व सजग और एका च रहना सीख चुके ह गे, आप अपने आचरण म पूरी सतकता रखगे और आप इन सभी सोलह त व को उपयु प से अपने जीवन म यु करगे। दे वी का नाम डा कनी है और उनक सहायक व न ‘दं ’ है।

आ पक भौह के म य, माथे के बीच, आ

ाच

है।

“आ ाच ा ज नलया शु लवणा षडानना. म जासं था हंसवतीमु य श सम वता, ह र ा ैकर सका हा कनी पधा रणी.” (ल लता सह नाम, 107.5–108)

शा दक अथ आपक दोन भौह के म य, आ ा च म थत दे वी वशु गौरवणा और छह मुख वाली ह। अ थ म जा म थत दे वी को धान ऊजा हंसावती का सहयोग मलता है। उ ह ह द डाल कर पका आ, ग र भोजन भाता है, वे हा कनी का प धारण करती ह।

गु त अथ अब दे वी के हाथ म कोई अ -श नह , जसका अथ है क अब लड़ने के लए कुछ शेष नह रहा। बस साधक को चुनौ तय क अं तम कड़ी से उबरना है, जो अब बना कसी यास के शी ही संप होगा। ेत शां त का रंग है और दे वी छह मुख वाली ह। अब श य शांत भाव म रहता है और छह मुख उन गहन प रवतन के सूचक ह, जनसे येक जीव को गुज़रना पड़ता है; वे छह अश ता तथा छह आंत रक श ु का त न ध व करती ह। म इनके वषय म जानकारी ँ , उससे पहले यह ब त मह व रखता है क अगर आपने नचले पाँच च पर पूरी गंभीरता से यान कया है, अगर आप पूरे भ -भाव से चरण-दर-चरण, यहाँ तक आए ह तो प रवतन के ये छह प , श ु या अश ता आपका कुछ नह बगाड़ सकते, ये आपको लुभा नह सकते, आपका यान नह भटका सकते और न ही आपके माग क बाधा बन सकते ह। ये केवल आपके भीतर वलीन हो जाएँग।े तब आप उनसे वशाल हो जाएँग।े वे छह प रवतन ह : ज म, अ त व, वृ , पांतरण, य व अलोप होना। वे छह अश ता या रोग ह : भूख, यास, ख, म, बुढ़ापा व मृ यु। वे छह श ु ह: काम, ोध, लोभ, मोह, दं भ व ई या। यहाँ तक क एक योगी के लए भी ये भारी चुनौ तयाँ हो सकती ह। इनके कारण भय पैदा हो सकता है। इनके कारण साधक, आ ा च पर यान रमाने के दौरान भी बुरा वहार कर सकता है, जब क इस यान से आपके भीतर ववेक व अटलता का बीज अंकु रत होना चा हए। आप हर चीज़ को एक कोण से दे खना सीख लेते ह। इसका अथ यह नह क अब आपको भोजन या व क आव यकता नह रही। इसका सीधा सा अथ यह है क आपके भीतर असाधारण धैय व सहनशीलता वक सत हो जाती है। आरंभ म, आप इस

संसार क अ थायी कृ त के लए नरंतर सजगता बनाए रखते ह। आपको एहसास होने लगता है क केवल अपनी इ छा क पू त करने के अ त र आपको एक वशेष भू मका नभाने के लए चुना गया है। ये भावनाएँ आपके मन को शु करती ह। परमानंद क लहर सारे नकारा मक भाव को तरो हत कर दे ती ह। वाथ इ छा के थान पर आप नः वाथ सेवा को अपना लेते ह। यही नई शु आपको थोड़े म ही कह अ धक संतु होना सखाती है। आपक इ छाएँ घटने लगती ह, नतीजन आपक माँग भी कम होने लगती ह। अब आपको लोग का यान, धन, यश व यहाँ तक क ेम पाने क भी इ छा नह रहती। कसी के मोह म पड़ना या कसी का समय चाहने क इ छा भी अलोप होने लगती है। इस अव था म, आप तेज़ी से अपने भीतर के शा त परमानंद क ओर बढ़ते ह। आपक भीतर तक जाने क या ा का समापन नकट आ जाता है। आ ा च साधने का अथ है क आपने अंत का आंरभ कर दया। जैसा क मने बार-बार कहा, इस काम के लए कोई छोटा रा ता नह है। अगर आप पूरे धैय, क व समपण के साथ यहाँ तक आ सकते ह तो आप सही मायन म एक अनूठे र न ह, करोड़ म एक ह। बस आपको यह जानना है क अगर आप यहाँ तक आ गए, तो कृ त आपके लए योजना तैयार करेगी। यह आपको एक उ चतम उद्दे य क पू त के लए साधन के तौर पर यु करेगी। इस च क दे वी अ थ म जा म थत है। इस च पर यान करने से आप अ थ म जा से जुड़े रोग से मु हो सकते ह। यह इस बात क भी सूचक है क अब यान आपक अ थय म है। पहले आपको यान लगाना पड़ता था, अब यह वचा लत प से लगेगा। आप बस लगभग प ँच गए ह, आप शां त व परमानंद क ाकृ तक अव था क तलाश करने के लए तुत ह। सहायक दे वी हंसावती कहलाती ह। यह उन गहन अ यास का सूचक है, जो आप दै वीय नराकार प पर कर सकते ह। जब आप भीतर ास लेते ह तो आप कहते ह ‘ह सा’ और बाहर ास छोड़ते ए कहते ह, ‘सोहम्’,। इसका अथ है, ‘म वही ँ’। अपने जीवन के येक ण म इस ान से बड़ा बोध कोई नह हो सकता क आप जस दै वीय को खोज रहे ह, आप वही ह और आपके आसपास क हर व तु और भी उतना ही दै वीय है। जब आप अपनी साधना म इतनी र आ जाते ह, तो आपको लाभ क चता नह रहती य क आप हर चीज़ को लाभ व हा न के पैमाने पर नह तौलते। आप ब त पहले ही ऐसे ै त से परे हो चुके ह। इस च पर यान लगाते ए वा द कतु सेहतमंद भोजन कर और अपने भोजन म ह द को शा मल करना बेहतर होगा। दे वी का नाम हा कनी व उनका बीज वण ‘हं’ है।

े आ पक है।

सर के शीष पर, हज़ार पंखु ड़य वाला सबसे सुंदर कमल, सह ार खला

“सह दलप था सववण पशो भता, सवायुधधरा शु लसं थता सवतोमुखी. सव दन ीत च ा या क य बा व पणी.” (ल लता सह नाम, 109–110.5)

शा दक अथ शतदल कमल म थत, सं कृत वणमाला के सभी वण से सुस जत, सारी साम ी स हत, रचना मक म थत, ब दशामुखी तथा हर कार का आहार पसंद करने वाली, दे वी या कनी ह।

गु त अथ सह श द का अथ कई गुना है, शा दक अथ है, एक हज़ार। ल लता सह नाम म, दे वी के एक हज़ार मुख, हज़ार ने व हज़ार हाथ बताए गए ह (सह शरा सह ा ी सह पात)। सह ार दे वी बनने के लए आपका वेश ब है। जब आप सह ार तक आते ह, तो आपका अ त व और यो यताएँ कई गुना हो उठती ह। सह ार सही मायन म कोई च नह ; यह एक अव था, एक दशा और एक प रणाम है। यह आपके लए असीम संभावना का ोत है। अब आप कोई एक नह रहे, जो आजीवन संघष कर रहा है या ल य पाने के यास म है। इसक बजाए आप दे वी अथात द ता का त प हो जाते ह। आपके हर वचार क ग त, क व श हज़ार क सं या म बढ़ जाती है। मानो आपको सहायता के लए हज़ार हाथ दे दए गए ह । सह ार तक प ँचना, आपके ारा क गई गहन साधना का पुर कार है। इस अव था तक आने वाला साधक स हो जाता है। साधक स होने क अव था से भी परे हो गया है। वह सा य, बनने के परम तर तक प ँच गया है, जसे वह खोज रहा था। साधक ने उसके साथ एका म पा लया, जसे वह साधना चाहता था। इस तर पर आप पूजनीय हो उठते ह य क आपका अ त व पूरी तरह से नः वाथ है और सर के क याण के लए है। आप लोग को आरो य दे न,े चम कार करने और उनके पार दे खने क श अ जत कर लेते ह। आप वाभा वक प से असीम क णा के वामी हो जाते ह और आप लोग को उसी तरह अपनी ओर आक षत करते ह, जैसे पु प मधुम खय को अपनी ओर ख चते ह। इस ोक म यु हज़ार श द को ‘एक हज़ार’ के अथ म नह लया गया। ायः ाचीन ंथ म ‘ब त सारे’ को ‘शत’ लख दया जाता था जसका शा दक अथ होता

है, ‘एक हज़ार’ और ‘ब त सारे से भी अ धक’ सह ार। हज़ार पंखुड़ी वाले कमल से अ भ ाय है क आप कमल और उनक पंखु ड़य से भी परे चले गए ह, अब वे चुर सं या म उपल ध ह। इस अव था म, आप ऐसे कमल के लए महासमु के समान ह। वणमाला के सभी वण इसी च म वास करते ह। हम जो भी बोलते या लखते ह, वह वणमाला के वण के मेल से बनता है। यह वण का शा दक मेल मा नह है। इसका अथ है क आप एक ऐसी अव था म आ गए ह जब आपके लए चाहने के लए कुछ बचा ही नह । आप हर व तु के यथाथ का गहरा ान रखते ह। आप स य, समझ और क णा क परम श अ जत कर लेते ह। इस अव था पर आने वाला र , अ थ, माँस व म जा आ द के भौ तक त व से परे चले जाता है। अब आप रचना मकता के म रहते ह, आप रचना मक ह। आप रचना मक से वीय का अथ न ल। इसे आयुवद म ओज्स कहा गया है, यह प य व पु ष , दोन के लए होता है। एक, दो, तीन या चार नह ब क आप सभी दशा म दे ख सकते ह। आप अपने ही जगत के स ाट या स ा ी बन गए ह। इस तर पर आने के बाद आप अपनी नय त वयं लखते ह। आपके संक प, आपके वचार — वे आपके लए कट होते ह। आपक इ छा को कृ त अपने लए आदे श मान कर पूरा करती है। आप जस भी चीज़ को गंभीरता से ल य करते ह, वह साकार हो उठती है। आप जो भी चखते ह, वह अद्भुत जान पड़ता है, आप नयम से परे हो गए ह; आप मनचाहे प म कुछ भी खाने, करने या होने के लए मु ह, य क आपने अपने ही मन के चंगुल से मु पा ली है। परमानंद क गहन भौ तक संवेदना ने आपको अपने वश म ले लया है। जब मने द माता का दशन पाया, उसके बाद म अपने म त क म गहन संवेदना , श शाली संवेदना को अनुभव करने लगा। मानो अंदर ही अंदर कोई मेरे माथे को मथ रहा था और फर यह संवेदना पूरे म त क म फैल रही थी। संवेदना मुख के तालू से आरंभ होती। कसी तरह क पीड़ा नह थी परंतु एक तरह का असाधारण दबाव महसूस होता था। आरंभ म, जब म आराम करने के लए अपना सर नीचे करता, तो संवेदना गहराने से सर म दद होने लगता। दमाग म कोई तकलीफ़ नह , बस एक गहरा बल महसूस हो रहा था, मानो कसी ने दमाग पर जोर डाल रखा हो। लगातार बनी रहने वाली एका दशा के कारण, वह संवेदना भी नरंतर रहने लगी। मुझे कुछ समय लगा और उसके बाद ही म उसका अ य त हो सका। ारंभ म, ऐसा लगता था क वह सब शांत हो जाएगा पर वह सदा मेरे साथ रही। वे संवेदनाएँ आज भी उतनी ही श शाली ह, जतनी पहले दन अनुभव ई थ । जस कार गंगो ी से बूँद-बूँद टपकती गंगा, एक व तृत और पूण प से बहती वेगवान नद बन कर, गंगासागर म वलय होती है, सह ार से टपकता अमृत भी बूँद दर बूँद मेरे पूरे अ त व को भगोता आ, परमानंद से सराबोर करता रहता है। इन दे वी को या कनी कहा जाता है। इनका वण ‘यं’ है। मूल वण ‘य’ का अथ है, ‘यह’। यही है, अब!

यही एक स व ज ासु के बीच मूल अंतर है; एक साधक जहाँ संघष करता है, स वहाँ आनं दत होता है। स पु ष वह रहते ह, जहाँ से छा भाग खड़े होते ह और वह यही है, अब!

वैत का पथ कहता है क ई वे दपरमाम अद् मा के बीच कोई भेद नह है। इस

र नराकार है, और ‘म वही ँ।’ आ मा व कार दोन समान ह और सभी ई र ह। वह सरी ओर, भ कहती है क आप केवल एक आ मा नह , जीवा मा ह, जो षत हो गई है। भ कहती है क आप वाथपूण इ छा व भाव से भरे ह। यह कहती है क आपने अनेक पाप कम कए ह जब क ई र पापर हत है। इस कार, सदा से ही शु रहने वाली सव े आ मा तथा अनंत काल से षत जीवा मा के बीच वलय संभव नह है। भ कहती है क अपने पाप क मा चाहते ए, उस द का नाम जप करते ए, उसका तु त गान करते ए, वयं को सम पत कर दो। तं इसे अ वीकार करता है। ई र के बारे म अवधारणा ही तं और वेद का मूलभूत अंतर है। तं म आप कहते ह, ‘आप मेरे पूजन का साधन हो। आप मुझसे महान हो इस लए म आपका पूजन करता ँ परंतु म केवल तु तगान करने या अपने पाप के लए मा चाहने म ही व ास नह रखता। म वयं को उस सीमा तक शु करना चाहता ,ँ जहाँ आप मुझम और म आपके भीतर समा जाऊँ। म मृ यु के बाद संयोग म च नह रखता, म अपनी जी वताव था म ही इसका अनुभव पाना चाहता ँ। “यैएव पतनं ैः सद्’ ध तैरव च्ओ दता, ीकौलदशन्ए चैव भैरव्एण महा मना.” (कुलाणव तं , 5, 48) कौल परंपरा के महान भैरव, शव ने नदश दया है क जो व तु मनु य के पतन का कारण बनती है, उसके उपयोग से ही आ या मक उ त करना संभव है। कुंड लनी मेरी ऊजा है और मेरे भाव व वचार भी मेरे ह। तं कहता है क कुछ भी अपने-आप म अ छा या बुरा नह होता। यह सब उसके उपयोग पर नभर करता है। कुंड लनी पथ क साधना म वीकारा जाता है क मेरे भीतर क मयाँ और दोष ह परंतु म उनके कारण अपनी मता को न नह कर सकता। तं इस बात पर बल दे ता है क कसी भी चीज़ से ऊपर उठने के लए आपको उसे समझना होगा। जब आप कसी चीज़ को नह समझते, तो आप उसका दमन करते ह, आप उसे अ वीकारते ह और जागरण के पथ पर यही अ वीकार आपक सबसे बड़ी बाधा बन जाता है। इसक बजाए अपनी सारी नकारा मकता और सीमा को एक सश बल म बदल जो मु पाने पर क त ह । तं आपको सखाता है क आप सहज भाव से हर चीज़ का याग कर द ता क आप उसे दे ख सक, समझ सक, उसे साध सक और उससे पार जा सक। आपको यह सोचने म बुरा लग सकता है क आप पाप से भरे ह। इसक बजाए, अपने पाप क सोच से परे

जाते ए, उसके मूल तक जाएँ। कसी न कसी को तो कचरा हटाना ही होगा। उपे ा करने से बात नह बनेगी। उसम से नरंतर गध आती रहेगी। आपको पूरे कौशल और कला मकता के साथ अपने भीतर क हर चीज़ को साधना सीखना होगा। एक जंगल म केवल सह और हरण ही नह रह सकते। इसम लकड़ब घे व हाथी भी ह गे। इसम प य व क ड़ -मकोड़ के घर भी ह गे। आप एक के भीतर सारे सद्भाव नह पा सकते। मेरे पास इन भाव का म ण है परंतु म इसी म ण से अपने अ त व के कैनवस को रंगना चाहता ँ। य द कुंड लनी मूल बल, शु स व व दे वी है तो को चा हए क वह अपनी ही ऊजा के मा यम से वयं को उघाड़ दे ता क अपनी स ची संभावना को साकार कर सके। य द ई र हर व तु म व मान है, तो या उसके अ त व क कोई भी व तु असंपूण हो सकती है? यही तं का पथ है। कुंड लनी जागरण एक तां क साधना है। एक इ ली पंख के साथ नह ज मती परंतु अपने खोल म होने वाले संघष के दौरान, अपने खोल से बाहर आने के यास के दौरान, यह लगातार यान करती है, उड़ने का सपना दे खती है। एक गंदे और ब सरत लावा से, यूपा म बदलती है जो कसी भी पेड़ क शाखा से उ टा लटका रहता है। यह वहाँ कुछ स ताह से कई माह तक वहाँ लटका रह सकता है। इ ली उड़ नह सकती। इसके पास पंख नह पर इसके पास आशा है, व ास है। मानो लावा ने समझ लया है क अगर इसे उड़ना है तो इसे अपने-आपको अपने वतमान व प से परे करना होगा, इसे बदलना होगा। इसे ह का होना होगा। इसे अपने पांतरण के लए हामी भरनी होगी। यूपा बडे ही धैय से ततली बनने क साधना करता है। यह चुपचाप, नरंतर अपनी परत उतारता रहता है। धीरे-धीरे, इसे अपने भीतर एक प रवतन दखने लगता है। नई परत पहले से कड़ी ह, अब यह वयं को कसी क ट जैसा अनुभव नह करता, इसक पीठ पर कुछ छोटे अंश उग रहे ह जो शायद इसके पंख ह गे। यह पांतरण के पथ पर पूरे व ास के साथ आगे बढ़ता रहता है। और एक दन, खोल इतना खुल जाता है क यूपा उसम से बाहर आ जाता है। यह वयं को उस खोल से बाहर गरा दे ता है। और कुछ अ व सनीय घटता है। धरती पर गरने क बजाए, पंख खुल जाते ह और यह उड़ान भर लेता है। अब यह रेशम के तंतु खाने वाली इ ली या उ टा लटकने वाला यूपा नह रहा। यह पंख व रंग के साथ एक सुंदर ततली बन गई है। इसके जीवन ने नए आयाम ले लए ह। एक गहरे अंधेरे खोल से बाहर आ कर, यह हरे-भरे मैदान म खले पु प के साथ, दन के उजले काश म खेलती है। इसने नई यो यता को सीखा हालां क इसके पास कोई सहायक अंग नह थे। एक ततली नाक न होने के बावजूद सूंघ सकती है। एक इ ली से ले कर ततली बनने तक का असाधारण पांतरण ही कुंड लनी जागरण है, यही सारी तां क साधना का रह य है। इसे पूरा होने म कतना समय लगेगा, यह आपके नै तक, मान सक व भौ तक अनुशासन क गुणव ा पर नभर करता है। कोई लावा पेड़ पर कतने समय तक लटका

रहेगा, यह उसके कार पर नभर करता है। कईय को खोल से बाहर आने म कुछ दन लगते ह तो कुछ कई माह तक भीतर कैद हो कर रह जाते ह। आप अपनी परत को उतारने के लए जतना संक पब ह गे और आपके यास जतना अ धक अनुशा सत ह गे, आपका पांतरण उतना ही ती हो जाएगा। ल लता सह नाम म, च क ा या के बाद कहा गया है : “ वाहा वधा’ म तर् मेधा ु तः मृ तर् अनु मा. पु यक तः पु यल या पु य वणक तना, पुलोमजा चता ब धमोचनी बबरालका.” (ल लता सह नाम, 110.5–111) ये ोक यहाँ कसी संयोगवश नह , इ ह पूरी सावधानी के साथ लया गया है। शा दक अथ म इन पं य म केवल दे वी के नाम लए गए ह। इनका अथ है क दे वी दे व व पूवज को चढ़ाया गया भोग हण करती ह। वे ही आ द वचार, बु मतापूण, सुनने यो य व मृ त म धारण करने यो य ह। दे वी का तु त गान करने वाले उनसे गुण, यश व लाभ पाते ह। दे वी सबसे महान पुलोमा, महान ऋ ष भृगु क प नी ारा भी पूजनीय ह, वे सारे बंधन को काट दे ती ह और वे स मो हनी ह। वा त वकता म, इसके गु त अथ म साधक क आ या मक ग त का रह य छपा है। पहले श द वाहा का अ भ ाय है क आपने अपनी सारी नकारा मक वृ य को जला कर राख कर दया है। इ ली क तरह, आप इस अ व ास को जला दे ते ह क आप उड़ नह सकते। अब आप उन बात पर क त नह रहते, जो आप नह कर सकते, आप उन बात पर यान रखते ह, ज ह आप करना चाहते ह और ा ड वयं आपक सहायता के लए आगे आ जाता है। अगले श द वधा का अथ है, आंत रक श तथा अवशो षत करने क आंत रक यो यता। कुंड लनी जागरण से, आपको अपनी असाधारण तभा का भान होता है, वह असीम संभावना, जसे पाने के लए आप सदा से ाकुल थे। आप कसी इ ली क तरह अपने भय तथा वजना क परत उतारने लगते ह। आपक हर परत उतरने के साथ ही, आपके भीतर से आपका एक नया प उजागर होता है। आपको लगता है क आप भी पंख उगा सकते ह, आप अपने खोल से बाहर आ सकते ह। इसके बाद म त मेधा ु त मृ तः रनतु मा का अथ है क जागरण के पथ पर, आपके वचार का बल तथा बु मता ग त पकड़ लेते ह और आप अ त व के उन रह य को भी खोलने के यो य हो जाते ह, जो अब तक मानवजा त के लए अछू ते और अनजाने थे। आपका वच लत मन एक क त करण क तरह हो जाता है। आपक मरण श ती हो जाती है और आप सूचना व जानकारी का वशाल भंडान रखने के यो य हो जाते ह। आपको एहसास हो जाता है क भले ही रेशम के य न ह , आपको लाख तंतु म नह बंधना, आपको सारे पु प का अमृतपान करना है।

इस छं द के अ य श द का अथ है क आप ा ड म एक अनूठे र न बन जाते ह। आपक उप थ त और सोच मा से ही, आसपास के लोग को आनंद और मु का अनुभव होता है। कृ त आपको मह वपूण काय करने के लए चुनती है और आपके सद्गुण और ववेक क चचा र- र तक सा रत हो जाती है। आपके मुख से नकला येक श द कसी न कसी प म मानव जा त को लाभ दे ता है। सभी ानी जन आपक शरण म आ कर आपके मा यम से मु , शां त व आनंद का अनुभव पाएँगे। इसी तरह हमारे ाचीन ऋ ष-मु नय वेद ास, अग य आ द ने अक पनीय आ या मक ऊँचाईयाँ हा सल क । यही कारण है क बौ जैसे धम म भी, जो आ मा और परमा मा के अ त व को नकारता है, उसम कुंड लनी और च के बारे म व तृत ववरण मलता है। बौ ंथ के अनुसर, यहाँ तक क गौतम बु ने भी कुंड लनी जागरण के मा यम से ही बोध पाया था। बु ने भले ही इसे वयं कुंड लनी का नाम न दया हो कतु उनके वशु जागरण और उसके बाद मलने वाले च प रचय का संकेत, इसी आ द ऊजा क ओर ही है। जस तरह एक इ ली खोल क कैद से बाहर आ कर, ततली बन कर उड़ती है। कुंड लनी जागने पर, आप भी अपने मान सक सं कार से मु ह गे। आपके भीतर से आपका एक नया प कट होगा। हर च के भेदन के साथ ोध, ई या, े ष, अहं, लोभ आ द क परत उतरती जाएँग और आप वयं जीते-जागते, दे वी का त प हो जाएँग।े यह पांतरण आपके भीतर, ा डीय ऊजा के साथ एका मकता का अवणनीय अनुभव ले कर आएगी, यह नभ कता क अद्भुत भावना है। य द आपको लगता है क यह इतना अ छा है क स य हो ही नह सकता तो म इसके लए आपको दोषी नह ठहराता। एक समय था, जब कुंड लनी क स यता को ले कर मेरे मन म भी संदेह था। यह सब सुनने म ब त अवा त वक सा लगता था। या इस युग और समय म भी ऐसे परमानंद का अनुभव पाना संभव था? या कुंड लनी वा तव म हम द ऊजा के साथ एकाकार कर सकती है? या इसके जागरण म मनु य वा तव म नभ क हो जाता है? मेरी गहन साधना के दौरान या उसके बाद भी, म न तो वायु म उड़ा, या न ही मेरे शरीर का आकार घट कर अणु जतना आ। परंतु गहरी एका ता के साथ लंबे समय तक यान करने से, मेरे पूरे शरीर म उ लेखनीय पंदन व संवेदनाएँ होने लग । च लत मा यता (अनु चत) के अनुसार, न तो मेरे शरीर म कोई कंपन आ और न ही कोई आँख च धया दे ने वाला काश दखा। मेरे म त क म श शाली संवेदनाएँ जमा होने लग और फर वे सह ार तक जा प ँच । मुझे लगता क ये गहन संवेदनाएँ न त प से, कुंड लनी जागरण का संकेत थ इस लए मुझे इनक परी ा करनी चा हए। मुझे यह जानना था क य द आ द ऊजा वयं मेरे भीतर कट ई थ तो या म वयं वा तव म दे वी हो गया था? मुझे याद है क म हमालय के घने वन म, व य पशु के बीच आधी रात को घूमता ता क यह दे ख सकूँ क मेरे भीतर कोई भय शेष था या नह य क मृ यु का भय ही हर कार के भय से बड़ा माना जाता है। म सप और ब छु से घरे थान पर जा बैठता। आधी रात को अ सर नद पर चला जाता और आ त दे ता, उस समय वहाँ अनेक

रा चर क भरमार होती, जो मेरा वागत करते। म बुरी तरह से भ कते ए जंगली कु के बीच से नकलता और वे मुझे दे ख कर शांत हो जाते। वे अपनी म हलाते ए वह बैठ जाते। वे धरती पर लोटने लगते। अगर म आपसे यह कहता क म इस बात क परख़ करने नकलता क मने मृ यु के भय पर काबू पा लया है या नह , तो वह पूरा स य न होता। सच तो यह है, म यह भी दे खना चाहता था क या वे भी मेरे भीतर बैठे दे वी भाव को महसूस कर रहे ह। म जानना चाहता था क या हम सही मायन म, उसी आ द ऊजा के मा यम से आपस म जुड़ गए थे? म दे खना चाहता था क या वे जंगली पशु भी मेरे लए वैसा ही नेह अनुभव कर पा रहे थे, जैसा म उनके लए करता था? मुझे एक और बात का प ता से एहसास आ क हर आकार, जा त तथा हर सजीव के वहार म एक ही ाणश छपी थी। म उसे दे वी कहता ँ। सजीव के भय से परे, नेह व क णा क गंगा वा हत होती है। यही कारण है क हम बारंबार ेम करते ह, ेम चाहते ह, ेम दे ते ह य क हम यही तो ह, हम ेम ह। हम जस भी चीज़ से बनते ह, उसे वाभा वक तौर पर आक षत करते ह — ेम! जागरण के साथ ही यह बोध भी आता है क केवल ेम ही एक ऐसा भाव है जसे अपने भीतर थान दे ना और सा रत करना चा हए। आप नः वाथ नेह का तमान हो जाते ह और यही कुंड लनी है। कुंड लनी वह नेह है जो आपक इ छा व सपन तले कुंडली मारे बैठा है, वह चाहता है क आप भाव तथा मोह के च को भेदते ए, अपने अनंत अ त व के संयोग का अनुभव पा ल। यह एक बोध है क आप जल क इकलौती बूँद नह , जो कसी भी ण सूख जाएगी, आप एक अनंत जलरा श का अंश ह — एक सागर, ऐसा सागर, जो कभी नह सूखता। धरती अपना ठोसपन कभी नह छोड़ती। अ न कभी जलना नह छोड़ती। वायु व काश कभी बूढ़े नह होते। जल कभी वा हत होना नह छोड़ता; भले ही जम जाए, भले ही सूख जाए कतु फर से अपने असली प म वा पस आ जाता है। आपके भय आपको आकार दे सकते ह। वे आपको जमा सकते ह, छतरा सकते ह परंतु अंततः आप अपने मूल व प म लौट आते ह। आपके चेहरे पर झु रयाँ आ सकती ह, आपक दे ह बुढ़ा सकती है, आपक जीवंतता घट सकती है पर आपके भीतर क मूल ऊजा, कुंड लनी, वह चर युवा है। वह सारे य व मृ यु से परे आवेगपूण व सहा यका है। शव का श से संयोग होने द, अपनी ऊजा को संभावना से मेल करने द ता क आप अपने भीतर रहने वाले के असीम व तार का अनुभव पा सक, उसे दे ख सक। आप दे ख सक क आप कतने संपूण, युवा व सुंदर ह। यह बोध व खोज आपको मत कर दगे। यह आपको आ यच कत करते ए, सदा के लए पांत रत कर दे गा। मेरे लए जागरण का यही अनुभव रहा। जाइए, अपना अनुभव खो जए!

पा रभा षक श दावली अधम धम का वपरीत है। कुछ ऐसा जो धम के अनु प नह होता। इसके संकेताथ म अ वाभा वकता, अनु चत होना, ता, अनै तकता, बुराई और अवगुण आ द शा मल ह। आ द य सौरमंडल के दे व ह, जो वग य लोक म रहते ह। वे व वध ा डीय त व का त न ध व करते ह जो इस जगत को बनाए रखने म सहायक ह। बारह वसु ह : व ण, म , आयम, भग, अंशुमान, धाता, इं , स वतुर, व , व णु, पु य, ववसान। व णु सभी आ द य म धान ह। जो साधु शव से एका म होने के लए घोर तप करते ह, वे अघोरी कहलाते ह। नए चाँद क रात अमाव या कहलाती है। ं थ का अथ है ह्मा क बताया गया है।

ं थ। इसे तीन ं थय नामक अ याय म व तार से

द णायन ऐसी अव ध है, जब सूय कक रा श से धनु रा श क ओर या ा करता है। सूय क इस द ण क ओर क जाने वाली या ा म तीन ऋतुएँ आ जाती ह : वषा, हेमंत तथा शीत ऋतु का अ धकतर समय डम , दो मुखी वा यं है जसे शव बजाते ह। दं डवत णाम का अथ है, वै दक परंपरा के अनुसार स मान दे ना। इसम धरती पर पूरा लेट कर, माथा टे का जाता है। कसी प व का दखना, दशन कहलाता है जो आशीवाद दे ने क हो। यह दशन का तं भी है पर यहाँ इसका अथ प व दशन से ही है।

मता रखता

दे वलोक दे व का धाम है। दे व वग म वास करने वाले जीव ह। दे वी भाव म होने का अथ है क भ दे वी क भ म खोया है। जब कसी भ क चेतना दे वी म लीन हो जाती है, तो वह अपने हर काय को उसी द भाव म पूरा करता है। यान का अथ है यान एका ता क गहरी अव था। पतंज ल योग सू के अनुसार, यह समा ध से पहले क अव था है, जसम एक संपूण अंत व सम व भाव का होना

अ नवाय है। गण का अथ है, सहायक का दल व गक संगीत गंधव कहलाते ह। हर हर महादे व एक कार का जयघोष है जसका अथ है, भगवान शव क जय हो! इं दे व के शासक ह, जो के दे व भी ह।

ा, व णु और महेश के बाद आते ह। ह परंपरा म, वे वषा

इं का लोक ही इं लोक कहलाता है। जय बजरंग बली का अथ है, बजरंग बली क जय हो। यह हनुमान का एक नाम है। केवल न वक प समा ध, योग म समा ध का एक परम प है। इसका शा दक अथ है, ऐसी समा ध जसका कोई सरा वक प न हो। इसका अथ है क मान सक ग त व ध यानी च वृ पूरी तरह समा त हो गई है और ाता, जानने के कम व ान क व तु के बीच कोई भेद नह रहा। यह एक पूण संयोग है जैसे पानी क बूँद सागर म समा जाती ह। केवल का अथ है क साधक पहले से ही, ब त लंबे अरसे से इस समा ध म लीन हो गया है। कुशा एक कार क घास है जसे आमतौर पर ह धम के सभी अनु ान म यु कया जाता है। ाचीन समय म, सोने और यान के लए बनी चटाईयाँ भी कुशा से बनती थ। नमोः पावतीः प यैः श द का अथ है, ‘म पावती के प त भगवान शव क वंदना करता ँ।’ प त ता का अथ है एक सद्गुणी प नी! ऐसी ी जसने कसी परपुर ष को दे खा तक न हो, उसके साथ आ मीयता तो ब त र क बात रही। जाप त का अथ है, जीवन के जनन व संर ण के दे व पु षो म का अथ है, सव े , सभी पु ष म उ म ऋ ष का अथ है मु न या साधु ऋ वक का अथ है धान पुरो हत ं थ शव क

ं थ है। चौथे अ याय म इसके बारे म व तार से बताया गया है।

जो साधना करे, वह साधक कहलाता है। साधक कुछ आ या मक अ यास को पूरी न ा से पूरा करता है। साधना एक आ या मक अ यास है जो मनु य को आ म-बोध क ओर ले जाती है। सह ार शीष च

है। इसे सातवाँ धान च

माना जाता है।

समा ध यान क अं तम अव था है। इसका अथ है गहन यान या भीतर व बाहर, उस द ता के साथ पूण संयोग। सं हता से ता पय ंथ के ाचीनतम प से है, जसे मु नय ने रचा। वेद म मं , तु त, ोक, ाथना व आशीवाद आ द पाए जाते ह। स

एक द पु ष होता है जो कुछ भी करने म स म होता है।

तो का अथ है, तु त, शंसा या ाथना म रचा गया

ोक!

तप वी का अथ है तप करने वाला साधक तप या का अथ है संयम, आ या मक साधना या तप या उ रायण वह समय है, जब सूय मकर से कक रा श क ओर, द ण से उ र क ओर या ा करता है। उसक इस या ा म तीन ऋतुएँ आ जाती ह : शीत ऋतु का अंत, बसंत और ी म वानर का अथ है बंदर वा तु श पकला का ाचीन तं है। इसका शा दक अथ है श प व ान वसु इं तथा व णु के सहायक दे व ह। व ा यानी पूजन का कोई प। मं व ान म, ैण ऊजा को जा त करने से जुड़े बीज मं भी व ा कहलाते ह। कसी भी कौशल का सट क ान भी व ा कहलाता है। व णु ं थ यानी व णु क है।

ं थ। चौथे अ याय म इसके बारे म व तार से बताया गया

य का अथ है, मन म कसी न त धारणा के साथ अनु ा नक य रचाना या सभी जीव के क याण के लए अ न म आ त दे ना। युग का ता पय है, चार युग के च म से एक। चार युग का एक च वृ -चाप का त न ध व करता है और 25,92,000 वष क अव ध का है। वे चार युग ह स य युग (17,28,000 वष), ेता युग (12,96,000 वष), ापर युग (864,000 वष), व क ल युग (432,000 वष)। ह परंपरा के अनुसार, वतमान युग, क लयुग है।

१९४६ म था पत जयको प ल शग हाउस एक ऐसी काशक सं था है जसने मश र लेखक ी ी परमहंस योगानंद, ओशो, रॉ बन शमा, द पक चोपड़ा, ट फन हॉ क ज, एकनाथ ई रन, सवप ली राधाकृ णन, नराद चौधरी, खुशवंत सह, मु क राज आनंद, जॉन मै सवेल, लेन बेनचाड और ायन े सी जैसे लेखक क कताब का शत क ह। हमारी सूची म २००० से यादा कताब शा मल ह, जो दे श म सबसे यादा व वध वषय पर कताब रखने वाली सं था है। इनम धम, आ या मक, मन शरीर प व आ मा, वयंमदद, ावसा यक, खानपान, हा यपरक, कै रअर, खेल, आ मकथा, फ शन और व ान वषय शा मल ह। जयको ने अपने तज का व तार शै णक और ावसा यक पु तक , बंधन, इंजी नय रग और ौ ो गक क कताब के ापार म अ णी काशक के प म कया है। हमारे महा व ालय तर के पा पु तक और संदभ शीषक दे शभर के छा कर रहे ह। हमारे शै णक और ावसा यक कताब क सफलता काफ हद तक हमारे शै णक और कॉप रेट ब भाग के यास के कारण है। वग य ी. जमन शाह ने पु तक वतरण कंपनी के प म जयको क थापना क । वतं ता आंदोलन चल रहा था इस लए उ ह ने अपनी कंपनी को जयको ( हद म जय का मतलब जीत) नाम दया। वकसनशील दे श म कताब क उ लेखनीय मांग को दे खते ए ी. शाह ने खुद ही कताब का शत करने का फैसला कया। जयको दे श क पहली काशन कंपनी है जसने अं ेजी भाषा क पेपरबैक पु तक का शत क । अपनी कताब के काशक और वतरक होते ए जयको ने मैक ा हल, पयसन, सगेज ल नग, जॉन वाइली और ए सवेयर साइंस इन मुख अंतररा ीय काशक क पु तके वत रत करने का काम शु कया। मु बई म मु यालय के साथ, जयको के ब कायालय अमदाबाद, बगलोर, भोपाल, भुबने वर, चे ई, द ली, हैदराबाद, कोलकाता और लखनऊ म भी ह। चालीस अ धका रय से अ धक क ब ट म, डाइरे ट मेल आडर डवीजन और वेबसाइट सु न त करती है क हमारी कताब भावी ढं ग से दे श के सभी शहरी और ामीण इलाक तक प ँच।े